Top
Begin typing your search above and press return to search.

देशभक्ति का रास्ता पेट से होकर जाता है

देशभक्ति के इस नवयुग में सब कुछ बदल रहा है — नारे, नज़ारे, यहाँ तक कि नाश्ते भी

देशभक्ति का रास्ता पेट से होकर जाता है
X

- संजय चावला

देशभक्ति के इस नवयुग में सब कुछ बदल रहा है — नारे, नज़ारे, यहाँ तक कि नाश्ते भी। अब केवल दिल से नहीं, देशभक्ति का रास्ता सीधा पेट से होकर जाता है। जयपुर के त्यौहार स्वीट्स के मालिक जैन साहब को ही देख लीजिए। हाल ही में हुए ओपरेशन सिन्दूर के बाद उनमें ऐसी देशभक्त भावना जागी कि उन्होंने अपनी दुकान की प्रसिद्ध मिठाइयों — मोतीपाक और मैसूरपाक — के नामों से 'पाक' शब्द को निकाल फेंका। अब वे गर्व से मोतीश्री और मैसूरश्री नाम से बिक रही हैं। मालिक जैन साहब का म$कसद निस्संदेह देशी घी की तरह शुद्ध है। लेकिन अ$फसोस, देशभक्ति की आँधी में वे भूल गए कि शब्दों के भी अर्थ होते हैं। अब अगर किसी शब्द की ध्वनि किसी दूसरे देश से मिलती-जुलती हो तो क्या हम उसे देशनिकाला दे देंगे? मैसूरपाक का 'पाक' कोई सीमा पार की साजि़श नहीं है। यह एक कन्नड़ शब्द है — जिसका अर्थ होता है 'पकाने की प्रक्रिया'। यह तो उस चाशनी का भी नाम है जो धीरे-धीरे उबलती है और मिठास बिखेरती है — जैसे कभी भारत की संस्कृति बिखरा करती थी। 19वीं सदी में मैसूर की शाही रसोई में काकासुर नामक बावर्ची ने इसका आविष्कार किया था। अब स्वर्ग में बैठा वह बेचारा सोच रहा होगा — 'मैंने मिठाई बनाई थी या राष्ट्रद्रोह?'

बहरहाल, नाम बदलने का यह राष्ट्रव्यापी अभियान नया नहीं है। इतिहास गवाह है कि जब भावनाएँ उबलती हैं, तो सबसे पहले कढ़ाई में पकते हैं व्यंजन। अमेरिका में 9/11 के बाद एक सांसद ने फ्रेंच फ्राईस का नाम बदलकर फ्रीडम फ्राईस रख दिया था। वजह? फ्रांस ने इराक युद्ध का समर्थन नहीं किया था। अब ये कोई नहीं बताता कि फ्रेंच फ्राइज़ दरअसल बेल्जियम की उपज थीं — और उन्हें 'फ्रेंच' तो अमेरिकियों ने ही कहा था। यही हाल कैनाडा में हुआ, जब ट्रम्प ने वहाँ के साथ व्यापार युद्ध छेड़ दिया। कुछ कैफे वालों ने अमेरिकानो कॉफी को कनाड़ानो कर दिया — भले ही वो कॉफी बीन्स न अमेरिका से आई थी, न कैनाडा से। तुर्की और ग्रीस ने भी 1974 के युद्ध में इसी तरह से मोर्चा खोला — टर्किश कॉ$फी ग्रीस में ग्रीक कॉ$फी बन गई। यह सब दर्शाता है कि जब तोप न चले, तो चम्मच चला दीजिए।

भारत में तो अब हर चाय, हर चटनी, हर चाशनी पर राष्ट्रध्वज लहराने की होड़ लगी है। हैदराबाद की कराची बेकरी को तो यह सफाई देनी पड़ी कि 'हमारा नाम चाहे जो हो, हमारे बिस्कुट पूरी तरह भारतीय हैं।' ये अलग बात है कि उनके मालिक विभाजन के बाद भारत आए थे। और अब सवाल उठता है — क्या हम पाकशास्त्र को भी श्रीशास्त्र कहेंगे? क्या पाकशाला को श्रीशाला? और पाकस्थली — यानी हमारा पेट — उसका क्या होगा? उसे भी किसी सरकारी योजना का नाम देना पड़ेगा क्या? पेटश्री योजना - 'जहाँ भी भोजन पचे, वहीं तिरंगा लहराए!'

इस देश में भोजन कभी केवल भोजन नहीं रहा। यह एक सामाजिक घोषणा रहा है — कि आप कौन हैं, किस ओर हैं, और किस थाली में खा रहे हैं। खाने पर प्रतिबंध, भोजन के नामों का संकीर्णकरण — यह सब केवल पेट की बात नहीं, पहचान की लड़ाई बन चुकी है।

कितनी विडम्बना है कि हम भूल रहे हैं — भोजन वह कला है जो जोड़ती है, बाँटती नहीं। कोई मिठाई किसी मुल्क की नहीं होती — वो उस स्वाद की होती है जिसे साझा किया जा सके। मैसूरपाक में न पाकिस्तान है, न कोई राजनीतिक षड्यंत्र — उसमें है तो बस बेसन, घी, और वो मीठा भाव जो हर त्योहार में बँटता है। मगर इस देश में आजकल भाव से ज़्यादा ब्रांड चलता है। शायद इसी लिए अब मिठाई भी प्रधानमंत्री श्री मिष्ठान योजना के तहत आएगी। और स्वाद से ज़्यादा मायने रखेगा नाम। इसलिए अगली बार जब आप किसी मिठाई का टुकड़ा मुँह में रखें, तो सोचिए — यह आपके स्वाद का सवाल नहीं, राष्ट्रभक्ति का इम्तिहान है। क्योंकि भाई साहब, इस दौर में 'पेट' नहीं, 'पाक' ज्यादा संवेदनशील है।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it