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पोल खुल गई मोदी मैजिक के मिथक की

अब यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के मोदीकृत संस्करण को खारिज कर दिया है

पोल खुल गई मोदी मैजिक के मिथक की
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- जगदीश रत्तनानी

परिणाम बताते हैं कि धन बल बहुमत पाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकारी मशीनरी व मीडिया पर मोदी सरकार का पूरा नियंत्रण था। भाजपा ने बाद में घोषित अवैध चुनावी बॉन्ड और अन्य स्रोतों से बेशुमार धन उगाहा। इन सबके बावजूद भाजपा असफल रही। यहां वीपी सिंह की याद आती है जिन्होंने एक बार कहा था- 'भारत में आप पैसों के अभाव में चुनाव हार सकते हैं लेकिन आप सिर्फ इसलिए नहीं जीत सकते कि आपके पास पैसा है।'

अब यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के मोदीकृत संस्करण को खारिज कर दिया है। नई लोकसभा में भाजपा बहुमत से काफी पीछे है। भले ही भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए केंद्र में सरकार बना ले लेकिन इस समय जिस नैरेटिव को आगे बढ़ाया जा रहा है उससे इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि गठबंधन की राजनीति के पेंचों के सामने मजबूत दिखने वाली भाजपा झुकने के लिए मजबूर हो जाएगी। भाजपा को अपने नए साझीदारों, विशेष रूप से चंद्रबाबू नायडू (तेलुगु देशम पार्टी) और नीतीश कुमार (जनता दल-यूनाइटेड) की बात सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा जिन्होंने नई ताकत हासिल कर ली है। खबरों के मुताबिक ये दोनों पहले से ही प्रमुख विभागों की मांग कर रहे हैं। यह अपने आप में भाजपा पर ब्रेक लगाता है जो अंहकारवश धर्म की अपनी खुद की धुन बजाती है जिसे कई भारतीय नापसंद करने लगे हैं।

इन परिस्थितियों में हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में मोदी के नेतृत्व वाली कमान और नियंत्रण के प्रति आसक्त भाजपा के दिन शायद ढल गए हैं। अब यह एक रास्ते, एक चुनाव, एक व्यक्ति, एक सत्य की पार्टी नहीं हो सकती। भारत के लोगों, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के मतदाताओं ने यह सुनिश्चित किया है कि भाजपा इंद्रधनुष में शामिल सभी रंगों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण सबक सीखे जिनके संयोग से सफेद रंग का सृजन होता है।
कम से कम 2024 के चुनाव कई अन्य ट्विस्ट और टर्न की संभावनाओं के साथ खबरों में हैं जिनमें भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनने के बावजूद मोदी की शीर्ष पर बने रहने की संभावना जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं। अब तक किसी भी चुनौती को उठाने या अपने नेतृत्व के किसी भी सवाल को पूछने के लिए अभ्यस्त न होने की वजह से खोखली हुई पार्टी चुनाव परिणामों से मिले झटकों से उबरने में कुछ समय लेगी। संभवत: वह पार्टी नेतृत्व के खिलाफ आंतरिक विद्रोह करने के संकेतों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ओर देखेगी। यह एक ऐसी घटना हो सकती है जिसकी कुछ समय पहले तक कोई संभावना नहीं दिखती थी।

इसके अलावा, भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन करने वाली कुछ पार्टियों की ओर से संकेत मिले हैं कि वे अपनी मूल पार्टियों की ओर लौट सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की एनसीपी। मूल पार्टी से अलग हुए गुटों के वापस अपनी पार्टी में लौटने के कारण एनडीए के सिकुड़ने की संभावना बढ़ जाती है। कुछ अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार भाजपा के साथ गठबंधन करने वाले शिवसेना (शिंदे) के नवनिर्वाचित सांसद और विधायक उद्धव ठाकरे की शिवसेना के संपर्क में हैं। शिवसेना(उद्धव गुट) भाजपा के खिलाफ और आईएनडीआईए गठबंधन के साथ है।

इस बात की भी संभावना है कि चुनावी परिणामों से डरे हुए नरेंद्र मोदी अधिक नियंत्रण हासिल करने और विपक्ष को कोसने के साथ-साथ प्रतिशोध की राजनीति को दोगुना करने की कोशिश करेंगे। पिछले कई वर्षों से यह पार्टी की पहचान रही है और मोदी इस काम में सबसे अधिक निपुण हैं। विपक्ष को खत्म करने की यह प्रवृत्ति चुनाव के बाद के परिदृश्य में नए मोड़ ला सकती है। मंगलवार की शाम को भाजपा मुख्यालय में मोदी के दिये पहले भाषण से संकेत मिलता है कि चुनावी नतीजों ने उनमें कोई विशेष बदलाव नहीं लाया है। इस भाषण में सिर्फ एक बार उन्होंने 'मोदी की गारंटी' शब्द का इस्तेमाल किया। प्रचार अभियान के दौरान उन्होंने बार-बार 'मोदी की गारंटी' शब्द का इस्तेमाल किया था। समय बताएगा कि क्या यह एक झांसा देने वाला बड़बोलापन है या मोदी शैली की आने वाली राजनीति का संकेत है; और क्या यह आरएसएस से बैकरूम समर्थन के बाद आता है या वास्तव में पार्टी में आंतरिक रूप से उनके खिलाफ विरोध को रोकने की एक चाल है? हालांकि मोदी द्वारा कही गई इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि यह एक 'एनडीए सरकार' होगी। यह एक स्व-घोषित कदम है और मोदी में आए एक बदलाव का संकेत भी। जिस बदलाव के अभाव में भाजपा और उसकी राजनीति अब यहां तक सिमट कर रह गई है।

मोदी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जाना जाएगा जिसने एक पार्टी की कमान संभाली और 'मोदी की गारंटी' कहे जाने वाले चुनावी वादों से लेकर योजनाओं, परियोजनाओं, संस्थानों और यहां तक कि क्रिकेट स्टेडियम तक को एक व्यक्ति की सेवा में लगा दिया। एक ऐसा व्यक्ति जो एक तरफ आत्म-मुग्ध था और दूसरी तरफ राजनीतिक संवादहीनता के कारण उत्पन्न कटुता ने जिसे निम्न स्तर पर धकेल दिया। कभी नेतृत्व की व्यापकता का दावा करने वाली पार्टी पर कब्जा, मोदी का गुणगान करने वालों को तरक्की देना और लाइमलाइट में रहने के लिए सांप्रदायिकता का इस्तेमाल सत्ता के शॉर्टकट के रूप में किया जाता था, यह सब तथाकथित 'मोदी जादू' के मिथक का निर्माण करने वाली कहानी का एक हिस्सा है। चूंकि यह सब मोदी और उनके भरोसेमंद नंबर दो- गृह मंत्री अमित शाह से जुड़ा था इसलिए चुनाव में जो कुछ भी गलत हुआ है उसका दोष इन दोनों के कंधों पर भी होगा, जिन्हें मजाकिया तौर पर भाजपा के 'डेढ़ नेतृत्व' के रूप में जाना जाता है।

इसका भी उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि भाजपा के स्वघोषित लक्ष्यों से पतन का एक बड़ा हिस्सा सीधे तौर पर 'डेढ़ नेतृत्व' के अहंकार से जुड़ा हुआ है। महाराष्ट्र इसका एक उदाहरण है। मोदी ने शरद पवार को 'भटकती आत्मा' कहा क्योंकि पवार के परिवार में दरार पड़ गई थी। उन्होंने बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे को 'नकली वारिस' या फर्जी कहा जिसके कारण भाजपा द्वारा पैदा किए गए राजनीतिक विभाजन में जहर के नए स्तर को भर दिया। फिर भी यदि मोदी-शाह की जोड़ी ने महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनावों के बाद ठाकरे को एक और कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री बने रहने दिया होता तो इस सबकी कोई जरूरत नहीं पड़ती।

पद देने से इनकार करके उन्होंने ठाकरे को कांग्रेस-एनसीपी से दोस्ती करने के लिए मजबूर किया और जब ठाकरे ने राज्य में सरकार बनाई तो भाजपा ने शिवसेना नेताओं के पीछे अपनी जांच एजेंसियों को लगा दिया। भाजपा ने अंतत: सरकार बनाने के लिए शिवसेना को विभाजित कर दिया। एक वरिष्ठ राजनीतिक साथी से अपेक्षित है कि वह शालीनता और परस्पर सम्मान के साथ पेश आए लेकिन भाजपा ने अल्पकालिक लाभ, दीर्घकालिक विस्तार तथा जमीनी स्तर के राजनीतिक कार्य की कीमत पर यह हासिल किया।

इसी दृष्टिकोण के साथ अन्य भागीदारों के साथ भी भाजपा इसी तरह खेल रही है जिसके कारण भाजपा नेतृत्व पर भरोसा नहीं किया जाता है। इसे गंदी चालें खेलने वाले खिलाड़ी के रूप में देखा जाता है और भागीदारों का उपयोग केवल उन्हें निगलने के लिए करता है। यह सर्वज्ञात है कि चंद्रबाबू नायडू वास्तव में भाजपा नेतृत्व, विशेष रूप से मोदी के प्रति अच्छी भावना नहीं रखते हैं। यह सच है कि इन चुनावों में भाजपा के साथ उनका गठबंधन था लेकिन भाजपा के साथ अधिकांश गठबंधन राजनीतिक मजबूरियों में और मोदी की जांच एजेंसियों द्वारा उत्पीड़न के खतरे से बचने के लिए किए गये हैं। ओडिशा में राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के स्वास्थ्य को लेकर जबरन शुरू किया गया विवाद भी उतना ही नकारात्मक था और इसने कटुता ही पैदा की। भाजपा ने भले ही ओडिशा जीत लिया हो लेकिन वे यहां जिन तरीकों के सफल होने की उम्मीद कर रहे हैं वे वैसे ही तरीके हैं जिनके कारण उसने कहीं और सत्ता खो दी है और पार्टी का नाम बर्बाद कर दिया है। इन तरीकों को संकीर्ण, शातिर और कडुवाहट से भरा हुआ माना जा रहा है।

अंत में, परिणाम बताते हैं कि धन बल बहुमत पाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकारी मशीनरी व मीडिया पर मोदी सरकार का पूरा नियंत्रण था। भाजपा ने बाद में घोषित अवैध चुनावी बॉन्ड और अन्य स्रोतों से बेशुमार धन उगाहा। इन सबके बावजूद भाजपा असफल रही। यहां वीपी सिंह की याद आती है जिन्होंने एक बार कहा था- 'भारत में आप पैसों के अभाव में चुनाव हार सकते हैं लेकिन आप सिर्फ इसलिए नहीं जीत सकते कि आपके पास पैसा है।'
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


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