सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
क्या लोकतांत्रिक ढंग से चुने हुए नेता भी लोक की अवहेलना करने लगते हैं और फिर जिंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं

- वर्षा भम्भाणी मिर्जां
अपने चुने हुए नेता को यूं बदलते हुए देखना, किसी भी मतदाता को गहरी तकलीफ से भर देता है। यह सच है कि अब भी बड़ी तादाद भक्ति के चश्मे को उतारना नहीं चाहती। वहां कोई तर्क काम नहीं करता। उन्हें कोई सरोकार नहीं कि अब चुनाव उस दौर में जा पहुंचे हैं जहां दोनों पक्षों को खेलने के लिए एक सा मैदान नहीं है। उसके पीछे सरकारी एजेंसियां हैं, मीडिया उसे दिखाना गैरजरूरी समझता है।
क्या लोकतांत्रिक ढंग से चुने हुए नेता भी लोक की अवहेलना करने लगते हैं और फिर जिंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं, अपने चुने हुए नेता को ही आईना दिखाने के लिए सड़कें पाट देती है? दुनिया तो फिलहाल ऐसे ही संकेत दे रही है। कई देशों में जनता सीधे अपने नेताओं को चुनौती दे रही है। इज़रायल ताज़ा मिसाल है जहां जनता ने सड़कों पर विद्रोह करते हुए प्रधानमंत्री नेत्यनाहू को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। उन्हें स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था में सरकारी दख़ल वाले कानून को कुछ समय के लिए स्थगित कर देना पड़ा है। फ्रांस की जनता भी सड़कों पर है। यहां तक कि श्रीलंका, ईरान और चीन की जनता भी सड़कों पर विभिन्न मुद्दों को लेकर लड़ाइयां लड़ रही है।
हमारे देश की चुनी हुई सरकार भी तो कुछ ऐसा ही तर्क रखती है कि एक चुनी हुई सरकार का न्यायपालिका में दखल होना चाहिए। वह न्यायपालिका में कार्यपालिका का हस्तक्षेप चाहती है लेकिन फिलहाल यही सरकार खुश है कि चार लाख मतों से चुने हुए सांसद को वह सही वक्त पर संसद से निकालने में कामयाब हो गई है। तकनीकी तौर पर देखा जाए तो जनता बस चुनने का औपचारिक जरिया भर बनकर रह गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों लक्षद्वीप के चुने हुए सांसद को पहले लोकसभा से निकाल दिया जाता है और फिर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई से ठीक पहले तुरंत बहाल कर दिया जाता है?
भारत सरकार को भी किसान आंदोलन ने किसान कानून को वापस लेने के लिए बाध्य किया था। इस आंदोलन के साथ दुनिया की कई हस्तियां खड़ी हुई थीं। अमूमन जो सरकार अपनी गलतियों को मानना तो दूर कभी उसकी समीक्षा भी करना नहीं चाहती, उसका कानून को वापस लेना लोकतंत्र की बड़ी जीत कहा जा सकता है। नोटबंदी हो या कोरोना या महामारी के दौरान मजदूरों के हजारों किलोमीटर का पैदल सफ़र, सरकार ने किसी समिति के गठन या समीक्षा की ज़रूरत नहीं समझी। इसी पलायन पर हाल ही में आई एक फिल्म 'भीड़' का वह दृश्य द्रवित करने वाला है जिसमें लड़की कहती है कि 'अपने मुश्किल दिनों में वह अख़बार के पन्ने लगा-लगाकर चलती रही।' नोटबंदी के दौरान अपने ही धन के लिए लंबी कतार में लगना या कतार में ही मौत का आ जाना जैसे उस गरीब की नियति हो- कोई व्यवस्थागत दोष नहीं। ये हठ क्या था? झूठे इरादों और परेशान कर देने वाली क्रूरता से बनाई गई नीति का नाम था- नोटबंदी। आखिर यह क्या प्रवृत्ति है कि लोक मार्ग से आया नेता उस मार्ग को ही तहस-नहस करने लगता है जिस पर से चलकर वह आया है? क्या सत्ता उसे इतना आत्ममुग्ध कर देती है कि वह विरोधियों को जेल में डालने के ख्वाब बुनने लगता है?
नेता भले इस तरफ जाते हुए दिखाई दे रहे हों लेकिन जनता खामोश नहीं है। फ्रांस की जनता को नए पेंशन सुधार मंज़ूर नहीं है, वह सड़कों पर है। पूरी दुनिया की जनता एक दूसरे से प्रेरणा लेती हुई नज़र आ रही है क्योंकि विद्वानों ने कहा है कि दुनिया में एक भी व्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन पूरी दुनिया के लोकतंत्र को चोट पहुंचाना है।
अपने चुने हुए नेता को यूं बदलते हुए देखना, किसी भी मतदाता को गहरी तकलीफ से भर देता है। यह सच है कि अब भी बड़ी तादाद भक्ति के चश्मे को उतारना नहीं चाहती। वहां कोई तर्क काम नहीं करता। उन्हें कोई सरोकार नहीं कि अब चुनाव उस दौर में जा पहुंचे हैं जहां दोनों पक्षों को खेलने के लिए एक सा मैदान नहीं है। उसके पीछे सरकारी एजेंसियां हैं, मीडिया उसे दिखाना गैरजरूरी समझता है। वह बड़ी ही मासूमियत से यह बताता है कि राहुल गांधी ने मोदी समुदाय को 'चोर' बोला इसलिए उन्हें जज ने सज़ा दी। वह ढोल पीटने लगता है कि यह पिछड़ों का अपमान है। वह ऐसा कोई संदर्भ नहीं देता कि चुनावी भाषणों में सभी नेता ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल करते हैं। अगर सदस्यता रद्द करने की यही कसौटी रहेगी तब तो अधिकांश सांसद जेल में होंगे।
मुख्यधारा का कोई मीडिया यह तथ्य नहीं रखता कि मोदी उपनाम पारसियों, व्यवसायियों यहां तक कि अल्पसंख्यकों में भी है। जैसे कि, सोहराब मोदी, ललित मोदी और सैयद मोदी। चुने हुए नेता के लिए जब उसका वोटर यह कहने लगे कि सब नेता एक से होते हैं, इन्हें सिर्फ सत्ता में बने रहना है, तो वह वोटर जिसने बड़ी उम्मीद से अच्छे दिन, सबके साथ और विकास के लिए सत्ता बदली थी, जिसे 'हम तो फ़कीर हैं, झोला उठा के चल देंगे' जैसी भाषा पर भरोसा किया था, उसे अब लगने लगा है कि यह वह सुबह तो नहीं है जैसी उसने उम्मीद की थी। यही नेता के लिए आत्म विवेचन का भी समय होता है। अमूमन ऐसे स्वर सुन पाने में सत्ता नाकाम रहती है। वे भूल जाते हैं कि सदा ही सम्मानित कोई नहीं रहा है इस भू पर।
क्या विरोधियों को जेल में डालने की मुहिम भी चुने हुए नेताओं की इसी गलती का हिस्सा है? क्या राहुल गांधी का निष्कासन सियासी बदलाव का बड़ा कारण साबित होगा? विपक्षी पार्टी के एक नेता के शब्द देखिये- 'मुझे तो ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी का विनाश करने का मन बना लिया है इसीलिए ऐसे ऊलजलूल निर्णय आ रहे हैं और सनक से देश चलाया जा रहा है।' यह कहना है समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राज भाटी का जिन्होंने अपने बयान में कहा था कि ट्वीट, भाषण, पोस्टर..., यहां तक कि सारस से दोस्ती करने वाले को भी जेल में डाला जा रहा है। आखिर यह देश किस दिशा में जा रहा है? क्या पार्टी की अग्रिम पंक्ति के अन्य नेताओं को भी यह खयाल में आता होगा कि खामखां ही पार्टी को मुश्किल में डाल दिया गया है। एक ठीक-ठाक विकेट पर बॉलिंग-बैटिंग की लय ताल बनी हुई थी, फिर अचानक पार्टी खुद ही रनआउट क्योंकर होने लगी है? तेज़ दौड़ते हुए हांफने क्यों लगी है? एक और पार्टी सीपीएम से हिमाचल प्रदेश के विधायक नरेंदर पंवार का बयान भी बड़ा दिलचस्प है। वे कहते हैं कि वे तो सिर्फ 'राहुल' थे, भाजपा ने उन्हें 'गांधी' बना दिया।
केंद्र सरकार की मंशा को समझने के लिए लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फैज़ल पीपी के मामले पर गौर करना चाहिए। फैज़ल एनसीपी से लक्षद्वीप के सांसद हैं। उन्हें कवरत्ती के सत्र न्यायालय ने हत्या के प्रयास में दोषी माना था लेकिन उच्च न्यायालय ने इस सज़ा पर रोक लगा दी। केंद्र ने बिना देर किये निचली अदालत के फ़ैसले के साथ ही तुरंत मोहम्मद फैज़ल की संसद सदस्यता रद्द कर दी, जैसा कि राहुल गांधी के साथ भी हुआ। कायदे से उच्च न्यायालय का निर्णय आते ही सांसद की सदस्यता तुरंत बहाल होनी चाहिए थी लेकिन दो महीने तक वे निष्कासित सांसद ही रहे। सांसद ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई होनी थी लेकिन उससे ठीक पहले सांसद की सदस्यता बहाली का पत्र लोकसभा सचिवालय से जारी हो गया। शर्मिंदगी से बचने के लिए सरकार ने उन्हें बहाल तो कर दिया लेकिन जल्दबाजी का आलम यह था कि इससे पहले चुनाव आयोग लक्षद्वीप में उपचुनाव की घोषणा भी कर चुका था। आखिर ऐसी हड़बड़ी क्यों, वह भी चुने हुए नुमाइंदे के साथ? यूं कर्नाटक के चुनाव के साथ उपचुनाव की तारीख़ भी आई है। उसमें राहुल गांधी का चुनाव क्षेत्र वायनाड का उपचुनाव नहीं है। लोकतंत्र के पाये अगर ठीक काम करते रहेंगे तो संतुलन बन जाएगा जो शांत और चुप रहे तो बहुत कुछ दांव पर होगा। पंजाबी भाषा के कवि अवतार सिंह 'पाश' ने लिखा है-
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना/तड़प का न होना/सब कुछ सहन कर जाना/ घर से निकलकर काम पर/ और काम से लौटकर घर आना/सबसे खतरनाक होता है/ हमारे सपनों का मर जाना/सबसे खतरनाक तो वो घड़ी होती है/आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो/आपकी नज़र में रुकी होती है...
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)


