कड़वी यादों की खो रही सीख
भारत में जून महीने का अंतिम सप्ताह हमारे आधुनिक इतिहास के जिन पृष्ठों को फिर देखने और उलटने-पलटने का एक बेचैन अवसर बन कर आता है

- राजीव कुमार शुक्ल
निश्चय ही स्वात्ंत्रर्योत्तर भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास के एक ग़लत और अंधेरे दौर के रूप में हमें 'इमरजेंसी' को याद रखना चाहिए, ताकि सदैव ध्यान रहे कि निरंकुश सत्ता प्रवृत्तियों को पहचानने और उनका मुक़ाबला करने में कभी चूक न हो, क्योंकि ऐसी चूक हमारे गणतंत्र का सत्व गंभीर और भीषण संकट में ला सकती है। निरंकुशता पर किसी दल या विचारधारा विशेष का एकाधिकार नहीं होता।
भारत में जून महीने का अंतिम सप्ताह हमारे आधुनिक इतिहास के जिन पृष्ठों को फिर देखने और उलटने-पलटने का एक बेचैन अवसर बन कर आता है, उनमें से एक ख़ास है 25 और 26 जून, 1975 की दरमियानी रात में आंतरिक आपातकाल लागू किया जाना और फिर लगभग 21 महीनों यानी पौने दो साल का उसका आज़ाद हिंदुस्तान में अभूतपूर्व कालखण्ड। वह दौर 'इमरजेंसी' के नाम से कुख्यात हुआ और इस शब्द की 'लोकप्रियता' के अनेक प्रमाणों में से एक यह है कि आजकल बेहद साफ़ तौर पर कलात्मकता या यथार्थ प्रतिबिंबित करने की तड़प से इतर खुलेआम एकांगी और मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति पक्षधर फ़िल्में राजनैतिक उद्देश्यों से बनाए जाने का जो सिलसिला चल रहा है, उसकी एक महत्वपूर्ण अगली कड़ी जो फ़िल्म है उसका नाम ही 'इमरजेंसी' है।
जब वह आपातकाल देश पर थोपा गया था, तब मैं बनारस में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीएससी (अंतिम वर्ष) की परीक्षा (सत्र विलम्बित था) दे चुका था या देने को था और ग्रीष्मावकाश में अपने ननिहाल दिल्ली आया था। देश में तब चल रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन (जिससे हम भी उद्वेलित थे) से उपजी बेचैनी आसपास लगातार महसूस हो रही थी। 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का वह प्रसिद्ध निर्णय आया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लोकसभा निर्वाचन को अवैध घोषित किया गया था। दिल्ली और देश का माहौल और उत्तप्त हो उठा था। बहरहाल, कुछ दिनों बाद मैं अपनी बड़ी मौसीजी के पास हाथरस गया, जहां अच्छा-ख़ासा बुख़ार चढ़ आया, तो कई दिन वहीं रहना पड़ा। बीमारी में दीन-दुनिया की ख़बर भी कुछ कम रही। वहां से मैं अपनी उस यात्रा के अगले चरण फ़र्रूख़ाबाद जिले के गांव कम्पिल के लिये रवाना हुआ।
मैं 25 जून की रात हाथरस से किसी ऐसी ट्रेन से सफ़र पर चला, जिससे कासगंज तक जा कर गाड़ी बदलनी होती थी। भीड़ ऐसी थी कि हाथरस से कासगंज तक कहीं ढंग से टिकने की जगह भी नहीं मिली। खड़े-खड़े हाल पस्त हो गया। 26 जून, 1975 की सुबह गाड़ी कासगंज पहुंची। अगली गाड़ी आने में घण्टा-डेढ़ घण्टा बाक़ी था। बुख़ार के बाद की कमज़ोरी, रात्रि जागरण और घण्टों खड़े रह कर शरीर और मन चूर हो रहे थे। मैं प्लेटफ़ॉर्म पर एक बेंच पर आंखें मूंद कर बैठ गया था। तभी अख़बारों के हॉकर वहां आ पहुंचे और देश में आपातकाल लागू हो चुकने का उद्घोष करने लगे। तीर खाए जीव की तरह आत्मचेतना जैसे तड़पने लगी। झपट कर एक अख़बार ख़रीदा और पढ़ गया। याद है कि उत्तेजनावश अख़बार पकड़े हाथ थरथरा रहे थे और उसका कागज़ बड़ा अजीब और अजनबी लग रहा था। कासगंज के रेलवे स्टेशन की वह भोर जैसे जल उठी। थकान से लस्त था, पर आंखों और मन की कड़वाहट और एक अजीब सी सनसनी में नींद बहुत दूर जा छुपी। बहुत सारी दूसरी चीज़ों की तरह सुबह की पहली चाय भी बिल्कुल कसैली हो गई थी।
आपातकाल के दौरान क्या कुछ सोचा-देखा-महसूस किया और प्रतिरोध में एक विद्यार्थी के रूप में ही अपनी छोटी सी भूमिका निभाने में क्या किया, फिर कैसे 'दूसरी आज़ादी' आई, उसका क्या हश्र हुआ, मैं विचार और सम्वेदना के कितने सोपानों से गुज़रा, वह सब विस्तार से बयान करने की गुंजाइश अभी नहीं है। लेकिन यह दज़र् कर देने में कोई हर्ज नहीं कि एक सहज बुद्धि और विवेक संपन्न और लिखने-पढ़ने का रुझान रखने वाले किशोर के रूप में मन में जो विरोध और विद्रोह का भाव था, उसे एक अधिक सुविचारित दिशा तब मिली, जब मैं 1976 से बीचयू में ही पत्रकारिता का विद्यार्थी बन गया। अब यह बोध था कि जीवन की जो राह चुनी है, उसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक अनिवार्य मूल्य है, जो तब गहरे संकट में था। अमूमन भारत के तत्कालीन मीडिया जगत ने (तब ग़ैर-सरकारी संचार माध्यम के रूप में सर्वसुलभ सिफ़र् अख़बार हुआ करते थे, हालांकि तेज़-तर्रार लोग बीबीसी, वॉयस ऑफ़ अमेरिका आदि कुछ विदेशी रेडियो स्टेशनों से भी जुड़ाव रखते थे) विशेष गौरवशाली प्रतिरोध की गाथाएं तब ज़्यादा नहीं रचीं। लालकृष्ण आडवाणी ने बाद में पत्रकारिता जगत के लोगों के लिए वह प्रसिद्ध वाक्य कहा था कि उन्हें जब झुकने के लिए कहा गया, तो वे रेंगने लगे। लेकिन ऐसा नहीं कि साहस के कोई स्फुलिंग समय-समय पर कौंधते नहीं थे। बड़े प्रतिष्ठानों में 'इंडियन एक्सप्रेस' का आलोचनात्मक स्वर सबसे प्रखर और मुखर बना रहा। उसमें कुलदीप नैयर का विशेष तौर पर पहचाना और सम्मानित नाम बना। निखिल चक्रवर्ती संपादित पत्रिका 'मेनस्ट्रीम' और राजमोहन गांधी के सम्पादन में 'हिम्मत' ने भी अपनी अपेक्षाकृत सीमित पहुंच के बावजूद पत्रकारिता के संकल्प वाक्यों में एक 'स्पीक ट्रुथ टु पॉवर' को चरितार्थ किया।
इस संदर्भ में एक प्रसंग याद आता है। बतौर पत्रकारिता विद्यार्थी जब हम 'स्टडी-टूर' पर दिल्ली आए, तो कई प्रतिष्ठानों में ले जाए गए। उनमें आकाशवाणी का दिल्ली केंद्र और राष्ट्रीय आकाशवाणी मुख्यालय भी गंतव्य थे। आपातकाल के उन कड़वे दिनों से विक्षुब्ध हम तीन-चार साथियों ने तय किया कि हम इस 'सरकारी भोंपू' में जाकर क्या करेंगे, हम उसके बदले निडर समाचारपत्र 'इण्डियन एक्सप्रेस' के कार्यालय जाकर निर्भीक पत्रकारिता के नायक आदरणीय कुलदीप नैयर जी से मिलेंगे। सो कुछ बहाना बना कर हम आकाशवाणी जाने से बच गए और 'इण्डियन एक्सप्रेस' चले गए। नैयर साहब ने 'बी ब्रेव' लिखकर ऑटोग्राफ़ दिया, जो निधि बन गया।
इस विराट महादेश में उस कठिन दौर में हिम्मती और सच्ची पत्रकारिता के और भी उदाहरण निश्चय ही रचे गए होंगे, पर अपनी जानकारी और स्मृति की सीमाओं के कारण मैं यहां उनका उल्लेख नहीं कर पा रहा।
तो निश्चय ही स्वात्ंत्रर्योत्तर भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास के एक ग़लत और अंधेरे दौर के रूप में हमें 'इमरजेंसी' को याद रखना चाहिए, ताकि सदैव ध्यान रहे कि निरंकुश सत्ता प्रवृत्तियों को पहचानने और उनका मुक़ाबला करने में कभी चूक न हो, क्योंकि ऐसी चूक हमारे गणतंत्र का सत्व गंभीर और भीषण संकट में ला सकती है। निरंकुशता पर किसी दल या विचारधारा विशेष का एकाधिकार नहीं होता। 'पॉवर करप्ट्स, अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स अब्सोल्यूटली' सूक्ति के फलीभूत होने की आशंका हमेशा बनी रहती है, यदि संपूर्ण नागरिक समाज चेतन और निर्भय न हो। विशेष उत्तरदायित्व सिविल सोसाइटी का होता है और उनमें भी जिनकी सबसे कांटे की भूमिका होती है, उन समूहों में मीडियाकर्मी अनिवार्यत: प्रमुखता से शामिल हैं।
निश्चय ही इस परिप्रेक्ष्य में भी हमें आपातकाल को याद करना और रखना चाहिए। यह भी ध्यान में बना रहना ही चाहिए कि तब दमन प्रत्यक्ष था और साफ़ नज़र और पहचान में आता था। तब सामने स्थूल 'सेंसरशिप' थी और उससे कुछ लोगों और संस्थाओं ने लड़ाई लड़ी। अब टेक्नॉलॉजी और दूसरे विभिन्न बदलावों की उछालों की वजह से और नव-साम्राज्यवादी वैश्विक दैत्याकार कॉर्पोरेट शक्तियों के देशों के भीतर की पुरोगामी कट्टरपंथी ताक़तों के साथ गठजोड़ से निगरानी और नियंत्रण के तौर-तरीके कहीं ज़्यादा सूक्ष्म, शातिर, सर्वव्यापी और प्रभावी हो गए हैं। इसके अलावा तब अत्याचार अधिकतर 'स्टेट' की प्रत्यक्ष एजेंसियों जैसे पुलिस आदि के ज़रिए अंजाम दिए जाते थे। अब एक उन्मत्त भीड़ या वर्चस्वशाली लोग भी ऐसी भूमिका निभा सकते हैं, निभाते हैं। तो जूझने की समझ, हिम्मत और प्रविधि भी अब बेहतर चाहिए। ऐसा तो नहीं कि हम अपने-अपने सीमित और चतुर स्वार्थों और उद्देश्यों से आपातकाल को याद करने और धिक्कारने में तो लगे रह जाते हैं, लेकिन 'इमरजेंसी' के वास्तविक कड़वे सबक़ भूलते जा रहे हैं?


