न्यायपालिका को अपना घर भी ठीक करना चाहिए
भारतीय सेना की कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने वाले मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट का रवैया बेहद ही हैरतअंगेज और अफसोसनाक रहा

- अनिल जैन
भारतीय सेना की कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने वाले मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट का रवैया बेहद ही हैरतअंगेज और अफसोसनाक रहा। मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने इस मामले में सख्त रवैया अपनाते हुए पुलिस को शाह के खिलाफ सख्त धाराओं में एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था जिसकी देश भर में सराहना हुई थी
बीसवीं सदी के मशहूर जर्मन कवि-नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त ने कहा है कि 'हमें छोटे-छोटे न्याय दिए जाते हैं ताकि बड़े अन्याय छिपाए जा सकें।' हमारे देश में भी ऐसा ही हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों से देश की अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह हमारी न्यायपालिका भी संक्रमण के दौर से गुजर रही है। न सिर्फ उसकी कार्यशैली और फैसलों पर सवाल उठ रहे हैं, बल्कि उसकी हनक भी लगातार कम हो रही है। यह बात सर्वोच्च और उच्च अदालतों के कई पूर्व और वर्तमान न्यायाधीश भी कई मौकों पर कह चुके हैं। इस सिलसिले में कोई सात साल पहले सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों की ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेन्स उल्लेखनीय है।
साल 2018 के जनवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने एक प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से शीर्ष अदालत में प्रशासनिक गड़बड़ियों को उजागर करते हुए कहा था कि- ये गड़बड़ियां न्यायपालिका को नुकसान पहुंचा रही हैं और देश के लोकतंत्र को नष्ट कर सकती हैं। इन चार जजों का मीडिया के सामने आकर ऐसा कहना आजाद भारत के इतिहास में अपनी तरह की पहली घटना थी। उस घटनाक्रम की एक हैरान करने वाली बात यह भी थी कि चार जजों ने जो कुछ कहा था, उस पर सफाई या उनकी बातों का खंडन सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की ओर से नहीं आया था बल्कि भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन के नेता प्रधान न्यायाधीश के बचाव में आगे आए थे।
बहरहाल इस पूरे घटनाक्रम के बाद सुप्रीम कोर्ट की प्रशासनिक कार्यप्रणाली में कोई सुधार हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन देश की न्याय व्यवस्था में तो कोई सुधार हर्गिज नहीं आया। हालांकि तब से लेकर अब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कुछ फैसले बहुत अच्छे दिए, जिनसे लोगों को लगा कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। अलबत्ता सत्ता प्रतिष्ठान को वे फैसले रास नहीं आए और इसी वजह से सत्तापक्ष की ओर से सुप्रीम कोर्ट को कई तरह की नसीहतें भी दी गईं। फिर भी लोक महत्व के कई फैसले बेहद निराशाजनक रहे, जिन्हें किसी भी दृष्टि से तार्किक या निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के कुछ जजों का व्यक्तिगत आचरण भी बेहद आपत्तिजनक रहा, जिससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठे।
ज्यादा पुरानी बात न करें तो हाल के दिनों में ही सुप्रीम कोर्ट के कुछ अजीबोगरीब फैसले आए हैं, जो पहलगाम कांड और उसके बाद भारत-पाकिस्तान के बीच हुए सैन्य टकराव के शोर में दब गए और लोगों का उन पर ध्यान नहीं गया। इनमें से कुछ फैसले शीर्ष अदालत की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करते हैं तो कुछ फैसले ऐसे हैं जो शीर्ष अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर दिए हैं।
सबसे महत्वपूर्ण मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर यादव का है। विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में भाषण देते हुए जस्टिस यादव ने मुसलमानों को कठमुल्ला बताते हुए कहा था कि देश बहुसंख्यकों की इच्छा के मुताबिक ही चलना चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस यादव से सफाई मांगी थी और तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना उनके खिलाफ इन-हाउस जांच के लिए कमेटी गठित करने वाले थे लेकिन राज्यसभा सचिवालय ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिख कर जस्टिस यादव के खिलाफ जांच रुकवा दी। मामला रफा-दफा हो गया। जस्टिस यादव को उनके पद से हटाने के लिए राज्यसभा के 55 सदस्यों के हस्ताक्षर वाला प्रस्ताव भी सदन के सभापति के पास गया था लेकिन उसमें भी कुछ नहीं हुआ।
एक अन्य मामला अवमानना का है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से दोहरा रवैया अपनाया है। एक यूट्यूबर अजय शुक्ल ने अपने यूट्यूब प्लेटफॉर्म पर सुप्रीम कोर्ट से हाल ही में रिटायर हुई जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की कार्यशैली और उनके दिए कुछ फैसलों को लेकर आलोचनात्मक टिप्पणियां की थीं, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपमानजनक मानते हुए उनका स्वत: संज्ञान लिया और सुप्रीम कोर्ट की रजिस्टरी को निर्देश दिया कि वह यूट्यूबर शुक्ल के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करे। जबकि इसी वाकये से कुछ दिनों पहले भाजपा के वरिष्ठ सांसद निशिकांत दुबे ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना का नाम लेकर कहा था कि उनकी वजह से देश में गृह युद्ध छिड़ा हुआ है। देश के इतिहास में यह पहला मौका था जब सुप्रीम कोर्ट के मुखिया पर किसी ने इतना गंभीर आरोप लगाया था लेकिन उसके खिलाफ अदालत ने अवमानना का मामला शुरू नहीं किया, बल्कि अदालत के सामने जब यह मामला आया तो उसे खुद जस्टिस संजीव खन्ना ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 'न्यायपालिका ऐसी छुई मुई नहीं है कि जो ऐसी टिप्पणियों से बिखर जाएगी।'
इन मामलों के अलावा सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर तमिलनाडु के दो मंत्रियों के इस्तीफे का मामला भी कम हैरान करने वाला नहीं रहा। तमिलनाडु के बिजली और आबकारी मंत्री सेंथिल बालाजी और वन मंत्री के. पोनमुडी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से धमकी दी थी कि अगर उन्होंने मंत्रिपरिषद से इस्तीफा नहीं दिया तो उनकी जमानत रद्द कर उन्हें जेल भेज दिया जाएगा। सवाल है कि कोई भी अदालत किसी मंत्री को यह कैसे कह सकती है कि वह मंत्री पद छोड़े नहीं तो जमानत रद्द करके उसे जेल भेज दिया जाएगा? क्या यह कार्यपालिका के काम में न्यायपालिका का असंवैधानिक हस्तक्षेप नहीं है? किसी आरोपी या दागी व्यक्ति को मंत्रिमंडल में रखने का फैसला नैतिकता की कसौटी पर हो सकता है कि सही नहीं हो लेकिन अगर कानूनी और संवैधानिक रूप से सही है तो उसमें अदालत का दखल क्यों होना चाहिए?
गौरतलब है कि सेंथिल बालाजी और पोनमुडी धन शोधन और आय से अधिक संपत्ति के मामलों में लंबे समय तक जेल में रहने के बाद जमानत पर रिहा हुए थे और फिर से मंत्री बनाए गए थे, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति विधायक है और उसे अयोग्य नहीं ठहराया गया है तो वह भारत के संविधान के मुताबिक मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन सकता है। जैसे पिछले साल धन शोधन के मामले में जेल से छूटने के बाद हेमंत सोरेन फिर से झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे और अरविंद केजरीवाल तो जेल में रहते हुए भी मुख्यमंत्री बने रहे।
भारतीय सेना की कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने वाले मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट का रवैया बेहद ही हैरतअंगेज और अफसोसनाक रहा। मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने इस मामले में सख्त रवैया अपनाते हुए पुलिस को शाह के खिलाफ सख्त धाराओं में एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था जिसकी देश भर में सराहना हुई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर दो महीने का रहस्यमय स्थगन देकर देश को निराश ही किया।
हाल के वर्षों में हेट स्पीच यानी नफरत फैलाने वाले भाषणों को लेकर भी शीर्ष अदालत और हाई कोर्टों का रवैया बेहद विचित्र रहा है। जेएनयू के दो छात्र खालिद उमर और शरजील इमाम हेट स्पीच के मामले में करीब पांच साल से जेल में हैं। सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि 'जमानत नियम है और जेल अपवाद' लेकिन सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था इन दोनों पर लागू नहीं हो रही है। इसके विपरीत कई केंद्रीय मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के सांसद आए दिन हेट स्पीच देते रहते हैं पर उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की अपील तक अदालतों में नहीं सुनी जाती।
ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका में जारी गड़बड़ियों से आम आदमी बेखबर हो। पारंपरिक मीडिया भले अपने निहित स्वार्थों की खातिर इन गड़बड़ियों से मुंह फेरे हुए हो, परन्तु वैकल्पिक और सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स के विस्तार के चलते हर आदमी न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और विसंगतियों से भरी न्याय व्यवस्था से बाखबर है। यह और बात है कि ये गड़बड़ियां अवमानना के डंडे के डर की वजह से कभी भी व्यापक तौर पर सार्वजनिक बहस का मुद्दा नहीं बन पातीं। वक्त का तकाजा है कि न्यायपालिका खुद अपने गिरेबान में झांके और अपनी विश्वसनीयता बहाल करे। अपनी तमाम विसंगतियों और गड़बड़ियों के बावजूद न्यायपालिका ही आज भी हमारे लोकतंत्र का सबसे असरदार स्तंभ है और हर तरफ से लाचार-हताश देशवासियों की उम्मीद का आखिरी आसरा भी। यह स्तंभ भी अगर पूरी तरह ढह गया तो फिर बचा-खुचा लहूलुहान लोकतंत्र भी धर्मांधता, कॉरपोरेट की लूट और व्यक्तिपूजा के पैरों तले पूरी तरह कुचल कर दम तोड़ देगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


