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सावरकर जैसा न बन जाए आपातकाल का मुद्दा

आम चुनाव में हुई धुलाई और चुनाव के बाद ज्यादा उत्साह में दिख रहे विपक्ष के जबाब में अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह लाने और कांग्रेस समेत इंडिया गठबंधन के लोगों को बैकफुट पर लाने के लिए भाजपा आपातकाल का मुद्दा जोर-शोर से उठाने जा रही है

सावरकर जैसा न बन जाए आपातकाल का मुद्दा
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- अरविन्द मोहन

इन पचास वर्षों में भाजपा को आपातकाल की ऐसी याद कभी न आई, यह सवाल भी है। और इन पचास सालों में देश में आई दो पीढ़ियों को उसकी याद कितनी है और अब कितनी महत्वपूर्ण लगेगी यह सवाल भी बना ही हुआ है। इन्हीं लोगों से आज देश का बहुमत बनता है और उनकी चिंताऐं कुछ बातों को लेकर हैं। उन्हें संविधान की या लोकतंत्र की चिंता न हों ऐसा नहीं।

आम चुनाव में हुई धुलाई और चुनाव के बाद ज्यादा उत्साह में दिख रहे विपक्ष के जबाब में अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह लाने और कांग्रेस समेत इंडिया गठबंधन के लोगों को बैकफुट पर लाने के लिए भाजपा आपातकाल का मुद्दा जोर-शोर से उठाने जा रही है। इसकी तैयारी कई स्तर पर है और जैसा नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी के अब तक के कार्यक्रमों में होता रहा है, इस बार भी अगले कई दिनों तक हर कहीं आपातकाल और उस अवधि में संविधान के मौलिक अधिकार तक स्थगित रहने जैसे न जाने कितने ही सवाल बौद्धिक चर्चा में भी आएंगे। कांग्रेस और इंडिया गठबंधन ने चार सौ पार के नारे और भाजपा के कुछ कोनों से उठी संविधान संशोधन की मद्धिम सी आवाज को मुद्दा बनाकर दलित वोटों को अपने पक्ष में धु्रवीकृत कर लिया वह भाजपा को, खासकर उत्तर प्रदेश में काफी नुकसान पहुंचा गया। कांग्रेस और इंडिया गठबंधन ने कहा कि अगर भाजपा को चार सौ सीटें मिलीं तो वह संविधान में बदलाव करके दलितों, पिछड़ों और कमजोर लोगों के आरक्षण को समाप्त कर देगी। बाबा साहब का बनाया संविधान धीरे-धीरे दलितों के बीच एक बड़ा मुद्दा बन गया क्योंकि उनका अनुभव बताता है कि आजाद भारत में उनको जो थोड़ा बहुत हासिल हुआ है वह संविधान के चलते ही है।

विपक्ष का यह दांव सही बैठा। भाजपा ने भी पहले इसी तरह मोदी को चायवाला, 'नीच' और मौत का सौदागर कहने जैसे कई मुद्दों को नया स्वरूप देकर विपक्ष की घेराबंदी की थी और चुनावी सफलता हासिल की थी। चुनाव में सब कुछ चलता है, जैसे जुमलों की जगह इन सवालों में पक्ष-विपक्ष की अपनी क्षमता, विश्वसनीयता और पुराना रिकार्ड भी सफलता असफलता तय करता कराता है। भाजपा और संघ परिवार इस मामले में हाल में सब पर भारी पड़ा है। और इस बार विपक्ष का दांव चल जाने की एक वजह संघ का मोदी-शाह की कार्यशैली से नाराजगी भी थी। यह बात चुनाव तक उतनी जाहिर न हुई थी लेकिन चुनाव बीतते ही खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत से लेकर जाने किस किस ने स्पष्ट ढंग से समझा दिया। इस दांव के चल जाने की उससे भी ज्यादा बड़ी वजह बसपा के भाजपा के साथ चिपक जाने और दलितों में राजनैतिक बेचैनी का होना भी था। पिछले चुनाव से पहले रोहित बेमुला की मौत से लेकर की जगह दलितों की पिटाई का मामला अम्बेडकरवादी जमातों और कुछ प्रगतिशील जमातों ने बड़े जोर-शोर से उठाया था लेकिन आम दलित और उनके बीच की फांक का लाभ लेते हुए भाजपा ने काफी सारा दलित वोट हासिल किया और ये जमात और इनको समर्थन दे रही कांग्रेस जैसी पार्टियां खाली हाथ रहीं।

इसलिए भाजपा अब संविधान बचाओ और उस पर अब तक के सबसे बड़े हमले, आपातकाल के पचास साल पूरे होने पर कांग्रेस और उसका समर्थन कर रही पार्टियों को घेरने की योजना पर काम कर रही है तो किसी को भी इस रणनीति में कुछ तर्क दिखेगा। लेकिन जैसे ही आप पचास साल की अवधि, इस बीच खुद इंदिरा गांधी और कांग्रेस के कामकाज पर नजर पड़ते ही भाजपा की इस तैयारी में कमियां दिखने लगेंगी। एक तो इंदिरा गांधी ने ही आपातकाल हटाया और उसके बाद जबरदस्त ढंग से चुनाव जीती भी थीं। दूसरे आपातकाल के दौरान संघ परिवार और भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी, जनसंघ का खुद का रिकार्ड भी संदेहास्पद है। उसके काफी लोग माफी मांग कर जेल से बाहर आए थे। फिर इंदिरा गांधी और उनके पुत्र राजीव गांधी की जिस तरह से शहादत हुई और उन सबके बीच भी कांग्रेस ने चुनावी हार-जीत हासिल की, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को नहीं छोड़ा वह रिकार्ड सबके सामने है। और इन पचास वर्षों में काफी पानी बह चुका है और कल जिन लोगों ने आपातकाल के चलते जेल सहा, लाठी-गोली खाई उसमें से अधिकांश या उनके राजनैतिक वारिस आज इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं या भाजपा से दूर हो चुके हैं।

फिर इन पचास वर्षों में भाजपा को आपातकाल की ऐसी याद कभी न आई, यह सवाल भी है। और इन पचास सालों में देश में आई दो पीढ़ियों को उसकी याद कितनी है और अब कितनी महत्वपूर्ण लगेगी यह सवाल भी बना ही हुआ है। इन्हीं लोगों से आज देश का बहुमत बनता है और उनकी चिंताऐं कुछ बातों को लेकर हैं। उन्हें संविधान की या लोकतंत्र की चिंता न हों ऐसा नहीं यही लेकिन आप अपनी राजनीति के लिए कभी एक तो कभी दूसरे मुद्दे को उठाएं तो इसकी पहचान उन्हें है। पचास साल के इतिहास का ज्ञान भी उनको है और उनके अनुभव में भी आपातकाल का असर रहा है। यह कितना गहरा या हल्का रहा है, यह आपको बताने की जरूरत नहीं है। और लोकतंत्र की इस यात्रा की लड़खड़ाहटों ने इसे सीख दी है, बेहतर करने का रास्ता दिखाया है और गिरावटों की पहचान भी बताई है। आज पहले की तरह राष्ट्रपति शासन लगाना, सरकार गिराना, पार्टियां तोड़ना, दलबदल कराना असंभव है। वह खेल नए रूप में शुरू हुआ है यह सबको दिख रहा है।

कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी भी हाल के वर्षों में अपने अत्यधिक क्रांतिकारी वामपंथी सलाहकारों की राय मानकर संघ और सावरकर के सवाल को अलग-अलग ढंग से उठाकर भाजपा और संघ परिवार को घेरने की कोशिश करते हुए एक 'फर्जी किस्म की बहस' में फंसते रहे हैं। गांधी की हत्या हमारे लिए एक शर्म और शोक की बात है और उसने काफी चीजों को प्रभावित किया। लेकिन संघ और सावरकर का योगदान की मामलों में अलग किस्म का भी रहा है जिसकी अनदेखी नहीं हो सकती या जिसके सहारे इन आरोपों को मद्धिम किया जा सकता है।

इंदिरा गांधी देश में सबसे प्रभावी प्रधानमंत्रियों में एक रही हैं और सिर्फ आपातकाल की गलती या कुछ अन्य गलतियों को उठाकर उनके सारे कामकाज को नकारा नहीं जा सकता। सावरकर के दो रूप रहे हैं और वे किन वजहों से माफी मांगने तक आगे या बाद की भूमिका निभाई यह उनके क्रांतिकारी कामों के रिकार्ड को खत्म नहीं कर सकता। इसलिए जो गलती राहुल गांधी सावरक र पर बार-बार हमला करके कर रहे थे, भाजपा आपातकाल के सवाल को उठाकर वैसी ही गलती करती लगती है। इससे लाभ क्या होगा कहना मुश्किल है लेकिन इसमें ऊर्जा और साधन बहुत लगेगा जिसे किसी और काम में लगाना ज्यादा फायदेमंद रहता।


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