'अराजकता का व्याकरण' और आंबेडकर की चेतावनी
संविधान सभा में दिए गये आखिरी भाषण के अंतिम भाग में डॉ. आंबेडकर कहते हैं-'हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हम पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं

- डॉ.अजीत रानाडे
संविधान सभा में दिए गये आखिरी भाषण के अंतिम भाग में डॉ. आंबेडकर कहते हैं-'हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हम पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं। आजादी पाने के साथ ही हम कुछ भी गलत होने के लिए अंग्रेजों को दोष देने का बहाना खो चुके हैं। यदि इसके बाद कुछ गलतियां हो जाती हैं तो सिवाय खुद के हमारे पास दोष थोपने के लिए कोई नहीं होगा।
पिछले हफ्ते डॉ. आंबेडकर की जयंती मनाई गई। यह दिन आधुनिक और विशाल भारत की खोज और उसके पुन: खोज करने का अवसर था। आंबेडकर का असाधारण जीवन ही उनका संदेश था। समय बीतने के साथ उनके शब्द सच होते जा रहे हैं। संविधान सभा में संविधान के अंतिम मसौदे को अपनाने के समय उन्होंने जो अंतिम उद्बोधन दिया था वह उनके भविष्यसूचक सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषणों में एक था। भारत के गणतंत्र बनने से ठीक दो महीने पहले 25 नवंबर, 1949 को उन्होंने यह भाषण दिया था। यह एक ऐसा भाषण है जिसे हर स्कूली बच्चे को पढ़ना चाहिए। इसे आम तौर पर'अराजकता का व्याकरण' के भाषण के रूप में भी जाना जाता है। अगर भारत को 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिली तो कहा जा सकता है कि हमें 26 जनवरी, 1950 को 'जिम्मेदारी' मिली। स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व राष्ट्रवाद के सिक्के के दो पहलू हैं।
संविधान सभा में दिए गये आखिरी भाषण के अंतिम भाग में डॉ. आंबेडकर कहते हैं-'हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हम पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं। आजादी पाने के साथ ही हम कुछ भी गलत होने के लिए अंग्रेजों को दोष देने का बहाना खो चुके हैं। यदि इसके बाद कुछ गलतियां हो जाती हैं तो सिवाय खुद के हमारे पास दोष थोपने के लिए कोई नहीं होगा। उसी भाषण में उन्होंने भारत के नवजात लोकतंत्र के लिए तीन शक्तिशाली खतरों का उल्लेख किया था। पहला है राजनीति में नायक पूजा करने या व्यक्तित्व आधारित पंथ बनाने की प्रवृत्ति। उन्होंने कहा-'भारत की राजनीति में भक्ति या जिसे नायक पूजा का मार्ग कहा जा सकता है, वह एक अलग भूमिका निभाता है जिसकी दुनिया के किसी भी अन्य देश की राजनीति में निभाई जाने वाली भूमिका से तुलना नहीं हो सकती। धर्म के संदर्भ में भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकता है, लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा पतन और अंतत: तानाशाही के लिए एक निश्चित मार्ग है।'
दूसरा खतरा, जिसके बारे में उन्होंने चेतावनी दी थी, वह बढ़ती सामाजिक और आर्थिक असमानता के साथ राजनीतिक समानता की असंगति थी। उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र की वकालत की जिसका अर्थ है 'जीवन का एक तरीका जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को बुनियादी सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है।' उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर बढ़ती असमानता को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया तो जो लोग वंचित और उत्पीड़ित हैं, वे लोकतंत्र की इस शानदार इमारत को उड़ा देंगे, जिसे लोकतंत्र के संस्थापकों ने इतनी मेहनत से बनाया था।
नक्सली हिंसा की पहली घटना से लगभग बीस साल पहले उन्होंने यह चेतावनी दी थी। सरकार को इसे न केवल कानून-व्यवस्था की समस्या के रूप में बल्कि न्यायसंगत सामाजिक-आर्थिक विकास की कमी के रूप में भी मान्यता देने में दो दशक लग गए। तीसरा खतरा, जिसके बारे में डॉ. आंबेडकर ने बात की थी, वह संवैधानिक तरीकों की पवित्रता की रक्षा करने की आवश्यकता की थी। हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह के तरीकों को छोड़ देना चाहिए। यह कानून तथा व्यवस्था की अस्वीकृति के अलावा और कुछ नहीं है। हो सकता है कि उन्होंने मॉब लिंचिंग और त्वरित न्याय जैसे संविधानेतर तरीकों को भी जोड़ा हो। ये विधियां 'अराजकता का व्याकरण' के अलावा कुछ भी नहीं हैं। यदि लोग इन न्यायेतर हिंसक तरीकों को अपनाते हैं तो यह न केवल संविधान की ही नहीं बल्कि सरकार की भी विफलता होगी। संविधान के कार्यान्वयन के लिए शासन के अंगों अर्थात न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के समन्वय की आवश्यकता होती है। फिर भी, यह लोगों और राजनीतिक दलों पर निर्भर करेगा कि ये तीनों अंग कैसे काम करेंगे।
चार साल पहले 6 दिसंबर, 2019 को डॉ. आंबेडकर की पुण्यतिथि के दिन हैदराबाद में एक 26 वर्षीय पशु चिकित्सक के साथ सामूहिक बलात्कार तथा हत्या की वारदात हुई और इस जघन्य कांड के आरोपी चार लोगों की न्यायेतर हत्या हुई थी। मुठभेड़ में हुई हत्याओं पर केंद्रीय मंत्रियों, विपक्ष के नेताओं, मशहूर हस्तियों और यहां तक कि खेल सितारों सहित देश भर में कई लोगों ने खुशी जाहिर की थी। पीड़िता के साथ 'न्याय' करने के लिए पुलिस पर प्रशंसा के फूल बरसाए गए। कृतज्ञ राष्ट्र की नजर में वे पुलिसकर्मी तत्काल नायक बन गए। प्रकट रूप में पुलिस ने कहा था कि, उसने आत्मरक्षा में गोली चलाई।
जनता की उत्साह भरी प्रतिक्रिया और तत्काल न्याय की यह इच्छा कानून और न्यायपालिका की प्रक्रिया में विश्वास के पूर्ण नुकसान की ओर इशारा करती है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति वीएस सिरपुरकर के नेतृत्व में गठित आयोग ने तीन साल बाद पाया कि मुठभेड़ फर्जी थी। आयोग ने कहा कि पुलिस का यह दावा कि उसने आत्मरक्षा में गोली चलाई, 'विचित्र' और 'अविश्वसनीय' है।
आयोग ने यह भी पाया कि पुलिस ने एक तथ्य यह भी छिपाया था कि मारे गए लोगों में से दो लोग उनकी गिरफ्तारी और मौत के समय किशोर थे। हैदराबाद में हुई यह मुठभेड़ निश्चित रूप से हमारे देश में फर्जी मुठभेड़ों में से पहली या आखिरी नहीं है। क्या जनता सहित पुलिस का उन संवैधानिक तरीकों पर से विश्वास उठ रहा है जिनका डॉ. आंबेडकर ने इतनी गंभीरता से समर्थन किया था? अगर वे आज जीवित होते तो ऐसी घटनाओं पर क्या कहते?
पिछले हफ्ते भी आंबेडकर जयंती के आसपास उत्तर प्रदेश में दो हत्याएं हुईं और इनके बारे में भी पुलिस ने कहा कि, पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई। इसके दो दिन बाद गैंगस्टर से नेता बने अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की त्वरित न्याय करने के इच्छुक तीन हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी जब वे लोग पुलिस अभिरक्षा में पुलिस वाहन से उतरकर मेडिकल चेकअप के लिए जा रहे थे। दोनों भाइयों के हाथों में हथकड़ियां लगी हुई थीं। तीनों हत्यारे संवाददाताओं और पुलिस वाहन के आसपास जमा लोगों की भीड़ में पत्रकार बनकर शामिल थे। चूंकि हत्या पत्रकारों की उपस्थिति में लाइव टेलीविजन पर हुई थी इसलिए यह उचित प्रक्रिया की अवहेलना और मुक्ति का एक नया बेंचमार्क है। संवैधानिक तरीकों की मांग को यदि राष्ट्र-विरोधी नहीं तो भी सीधे-सीधे न्याय व्यवस्था की अवहेलना कहा जाएगा। भले ही उसके हाथों में हथकड़ी लगी हो तो क्या हुआ? आखिर एक गैंगस्टर ही तो मारा गया। एक राष्ट्रीय दैनिक के संपादकीय में कहा गया है- 'कानून-व्यवस्था की हत्या।' एक अन्य ने लिखा है कि अतीक अहमद ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर बताया था कि पुलिस हिरासत में उसकी जान को खतरा है। अहमद के खिलाफ अपहरण, जबरन वसूली, हत्या के प्रयास और हत्या के सैकड़ों से अधिक आपराधिक मामले लंबित थे। अतीक एक बार संसद के लिए और पांच बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए भी चुना गया था। एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि होना भी उसे त्वरित न्याय से नहीं बचा पाया।
ऐसे समय में, अंतर्दृष्टि के लिए फिल्मों की ओर रुख करना चाहिए। फिल्म 'ए फ्यू गुड मेन' में सेना की ड्रेस में सजा-धजा एक कर्नल एक युवा कैडेट के खिलाफ न्यायेतर हिंसक सजा का आदेश देता है जिसके कारण उसकी मौत हो जाती है। मुकदमे का सामना करते समय वह अपने सतर्कता पूर्ण कार्य को यह कहते हुए सही ठहराता है कि उसके कार्य राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में थे और वह एक राष्ट्रीय नायक के रूप में व्यवहार किए जाने की उम्मीद करता है। वह वकील से सवाल करते हुए कहता है- 'आप मुझे अजीब पा सकते हैं लेकिन समाज के सुचारु रूप से काम करते रहने के लिए मेरे तरीके आवश्यक हैं।' अंतत: उस पर हत्या का आरोप लगाया जाता है और संदेश जाता है कि संवैधानिक तरीकों की ही सर्वोच्चता होती है। निश्चित रूप से डॉ. आंबेडकर ने फिल्म के अंत को मंजूरी दी होती। अराजकता में डूबने से बचाने के लिए हमें इसी तरह की न्याय प्रणाली की आवश्यकता है। वह प्रणाली जो डॉ. आंबेडकर की चेतावनी पर ध्यान देती है।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)


