हमास के अमानवीय हमले से नेपथ्य में जाती फ़िलिस्तीन के अधिकारों की लड़ाई
हमास के आतंकी हमले के नृशंस और अमानवीय रूप ने फ़िलिस्तीन का ही सबसे ज़्यादा नुक़सान किया है

- आलोक बाजपेयी
यह समय विश्व के नेताओं के लिए परीक्षा की घड़ी है, जब वे अपने शांति प्रयासों से मानवता की रक्षा के लिए प्रयास कर सकते हैं। नफ़रत बढ़ाना और उन्मादी होकर क़त्लेआम देखना कम से कम हमारी संस्कृति नहीं। याद रखिए कि गांधीजी ने कहा था कि आंख के बदले आंख का रास्ता एक दिन पूरी दुनिया को अंधों के रहने की जगह बना देगा।
हमास के आतंकी हमले के नृशंस और अमानवीय रूप ने फ़िलिस्तीन का ही सबसे ज़्यादा नुक़सान किया है। हमास के अत्याचार के फ़ोटो -वीडियो आदि देखकर लोग बदले के उन्माद में फ़िलिस्तीन के नागरिकों के मानवाधिकारों की बात ही भूल गए हैं तो फ़िलिस्तीन की आज़ादी की मांग बहुत नेपथ्य में चली गई है। हमास ने इज़राइल पर अप्रत्याशित हमला कर सैकड़ों इज़राइलियों को मौत के घाट उतारकर फ़िलिस्तीन के लिए तो आत्मघाती क़दम उठाया ही, पूरे विश्व की शांति को भी ख़तरे में डाला है।
ज़ाहिर तौर पर हमास के आतंकियों को इस हमले के लिए आवश्यक साधन और ट्रेनिंग उसे समर्थन दे रहे मुठ्ठी भर देशों से मिली। इसके बिना हमास की ताक़त नहीं थी कि विश्व की सबसे बेहतरीन इंटेलीजेंस एजेंसी माने जाने वाली मोसाद, इज़राइल के मित्र देशों के इंटेलीजेंस नेटवर्क, इज़राइल के अभेद माने जाने वाले सुरक्षा चक्र और यहां तक कि हवाई हमलों से बचने की इज़राइल की तकनीक को विफल कर दे। यह हमला इतना अनपेक्षित था कि इज़राइल की सेना को स्थिति समझने और सम्भालने में कई घंटे लगे। लेकिन जब इज़राइल की सेना जागी तब दूसरी ओर का नरसंहार तय था। हमास की ग़लती की सज़ा पूरा फ़िलिस्तीन ख़ासकर ग़ाज़ा पट्टी का क्षेत्र भुगत रहा है। यहां हमास के आतंकवादियों के साथ आम नागरिक- बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सभी बड़ी तादाद में मारे जा रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से फ़िलिस्तीनियों के मानव अधिकारों की बात करने वालों का अकाल सा पड़ गया लगता है। दुनिया के बहुत सारे देशों के नागरिक ग़ाज़ा पट्टी के नेस्तनाबूद होने के इंतज़ार में लग रहे हैं। इस समय इज़राइल की सेना के हर हमले को शांतिप्रिय समझे जाने वाले देशों के नागरिक भी बड़े उत्साह से देख रहे हैं और उसे समर्थन दे रहे हैं। ऐसे माहौल में शांति और आम फ़िलिस्तीनी नागरिक के अधिकार की बात बहुत पीछे छूट गई लगती है, जो कि एक दुखद मंज़र है।
यूं देखा जाए तो फ़िलिस्तीन उन दुर्भाग्यशाली देशों में है जिसकी कि़स्मत में शांति अमूमन कम ही रही है। यास्सेर अराफ़ात के करिश्माई व्यक्तित्व और ख़ूबियों के कारण फ़िलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष को न सिर्फ दुनिया के कई मुल्कों का समर्थन मिला बल्कि भारत में इंदिराजी, अटलजी सहित अनेक नेताओं से अराफ़ात के बहुत ही प्रेमपूर्ण सम्बंध रहे। हिंसक संघर्ष से शुरुआत कर यास्सेर अराफ़ात ने जब शांति का मार्ग अपनाया और अमेरिका की मध्यस्थता में इज़राइल के साथ 1993 में ऐतिहासिक ओस्लो शांति समझौता किया तब फ़िलिस्तीन को शांति के कुछ वर्ष बमुश्किल नसीब हुए। इन वर्षों में फ़िलिस्तीन में लोकतंत्र की बयार भी आई और फिलिस्तीनी लेजिस्लेटिव काउंसिल का गठन भी हुआ। पहला चुनाव अराफ़ात की फ़तह पार्टी जीती भी। वर्ष 2004 में अराफ़ात की रहस्यमय कारणों से मृत्यु के एक-दो वर्ष पूर्व से उनकी राजनैतिक मुश्किलें बढ़ीं, सत्ता अपनी ही पार्टी के दूसरे व्यक्ति को सौंपनी पड़ी और हत्या की साज़िशों का सामना करना पड़ा।
लेकिन 2006 अपने दूसरे और आखिरी चुनाव में पूरी दुनिया को चौंकाते हुए फ़िलिस्तीनियों ने आतंक का मूल स्वर रखने वाले संगठन हमास को सत्ता में बैठा दिया। तब से ही फ़िलिस्तीन में न सिर्फ नस्लीय कट्टरता बढ़ी, हिंसा लौटी बल्कि विकास के सारे रास्ते भी अवरुद्ध होते गए। आज स्थिति यह है कि फ़िलिस्तीन में हज़ारों घायलों के इलाज में भी मुश्कि़ल आ रही है क्योंकि इज़राइल ने बिजली समेत अनेक ज़रूरी चीज़ों की आपूर्ति अवरुद्ध कर दी है। ग़ाज़ा पट्टी पर एक लाख सैनिकों, हथियारों आदि के साथ इज़राइली सेना की तैनाती के बाद भी हमास की ओर से रॉकेट के हमले जारी रहे जिनका ख़ामियाज़ा ज़ाहिर तौर पर फ़िलिस्तीन के निरपराध नागरिक भी भुगतेंगे। आतंकवादी संगठन के हाथ में सत्ता सौंपना ही फ़िलिस्तीनी नागरिकों का वो अपराध है जिसकी सज़ा वे लगातार भुगत रहे हैं और आगे भी भुगतने को अभिशप्त हैं।
हमास को ईरान के अलावा लेबनान के हिज़बुल्ला, चीन, रूस आदि चंद देशों का समर्थन सदैव हासिल तरह रहा है। सऊदी अरब जैसे देशों ने हमले के बाद फ़िलिस्तीनी अधिकारों की भी बात की है। उधर इज़राइल को अमेरिका और ज़्यादातर यूरोपियन देशों, सहित लगभग 84 देशों का समर्थन प्राप्त हो चुका है। अमेरिका ने अपने सैनिक विमानों से लैस युद्धपोत इज़राइल की मदद के लिए भेज दिए हैं। मोटे तौर पर दुनिया के देशों की प्रतिक्रिया जहां हमले की निंदा के मुद्दे पर एकमत है वहीं फ़िलिस्तीन और शांति की बात पर विभक्त। दु:ख की बात यह है कि ज़्यादातर देशों के नेताओं ने शांति की कोई मांग की ही नहीं है। अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में भी इज़राइल के शौर्य को ललकारा जा रहा है और उसके बदले की कार्रवाई को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर गौरवान्वित किया जा रहा है।
फ़िलिस्तीन में मारे जा रहे बच्चों - महिलाओं, बुज़ुर्गों की आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं। ऐसा लग रहा है कि पूरे फ़िलिस्तीन को ही आतंकवादी संगठन हमास के रूप में देखा जा रहा है। इस भ्रांति को तोड़े जाने की ज़रूरत है। हमास की ग़लतियों की सज़ा पूरे फ़िलिस्तीन के नागरिकों को देना ठीक नहीं। विश्व के बड़े नेताओं को अब शांति की पहल भी करना चाहिए। मुख्य रूप से इस्लामिक देशों का फ़िलिस्तीनियों से जुड़ाव इस सारे मामले को अलग स्वरूप दे रहा है। यद्यपि अभी तक इज़राइल ने किसी दूसरे देश से सैन्य सहायता नहीं मांगी है, लेकिन निकट भविष्य में यदि अंतरराष्ट्रीय धु्रवीकरण हुआ तो विश्व शांति पर आंच आने की सम्भावना एकदम निर्मूल भी नहीं।
यदि किसी भी विवाद में एक पक्ष मुस्लिम और दूसरा ग़ैर मुस्लिम हो तो उस विषय में भारतीयों के कुछ बड़े तबकों की रुचि बढ़ जाती है। ऐसे मामलों को अक्सर साम्प्रदायिक चश्मे से देखा जाता है। इसीलिए भारत में जहां मुस्लिम संगठन से युद्ध के कारण इज़राइल को हीरो मानने वाला तबक़ा भी है तो बिना हमास के कुकर्मों की निंदा किए फ़िलिस्तीन का समर्थन करने वाला तबक़ा भी। शासन के दबाव में प्रशासन फ़िलिस्तीन के समर्थन में रैली आदि निकालने वालों पर एफ़आईआर जैसे मामले भी सामने आने लगे हैं। कुल मिलाकर भारत में इस विवाद को अपने पसंदीदा चश्मे से देखा जा रहा है।
किसी को याद नहीं कि फ़िलिस्तीन किसी समय भारत का मित्र होता था और स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी को यास्सेर अराफ़ात अपनी बहन मानते थे और वे अटलजी के भी बेहद क़रीब रहे। सोशल मीडिया पर भी अपनी पसंद -नापसंद के इज़हार के साथ असली -नक़ली वीडियो भी ख़ूब वायरल हो रहे हैं। जिस तरह से घटनाक्रम चल रहा है उससे यह भी स्पष्ट है कि अभी कुछ दिन और यह मुद्दा भारत में भी अपने अपने नैरेटिव के हिसाब से सोशल मीडिया पर सुर्खियां बनाता रहेगा और बहसों का केंद्र रहेगा। यह समय विश्व के नेताओं के लिए परीक्षा की घड़ी है, जब वे अपने शांति प्रयासों से मानवता की रक्षा के लिए प्रयास कर सकते हैं।
नफ़रत बढ़ाना और उन्मादी होकर क़त्लेआम देखना कम से कम हमारी संस्कृति नहीं। याद रखिए कि गांधीजी ने कहा था कि आंख के बदले आंख का रास्ता एक दिन पूरी दुनिया को अंधों के रहने की जगह बना देगा। तो आइये अब लौट चलें शांति और मानवाधिकारों की ओर। हिंसा हमेशा बुरी है और शांति सदैव श्रेष्ठ। आइये शांति की उम्मीद और प्रार्थना करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी हैं।)


