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किसान कार्यकर्ता, जिसने उम्मीद के बीज बोए

मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के एक किसान ने बरसों से परती पड़ी जमीन को न केवल उपजाऊ बना लिया है बल्कि उसमें पेड़ लगाकर उसे हरा-भरा भी कर लिया है

किसान कार्यकर्ता, जिसने उम्मीद के बीज बोए
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- बाबा मायाराम

महेश शर्मा न केवल खुद खेती करते हैं बल्कि जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था के साथ मिलकर किसानों को जैविक खेती के तौर-तरीके सिखाते हैं, और उन्हें खेती करने के लिए देसी बीज भी उपलब्ध कराते हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के झींगटपुर गांव में गांववालों की मदद से बीज व अनाज बैंक भी बनाया है।

मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के एक किसान ने बरसों से परती पड़ी जमीन को न केवल उपजाऊ बना लिया है बल्कि उसमें पेड़ लगाकर उसे हरा-भरा भी कर लिया है। तालाब बनाकर बारिश की बूंद-बूंद को सहेजा है। लेकिन यह किसान सिर्फ खुद ही पौष्टिक अनाज की खेती नहीं करते, बल्कि एक संस्था से जुड़कर आदिवासियों को भी जैविक खेती के तौर-तरीके सिखा रहे हैं। यह कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह पूरी तरह जैविक है, श्रम आधारित है, और कम लागत वाली है, जो इस समय की जरूरत है। आज इस कॉलम में एक किसान कार्यकर्ता की लगन, जिद और मेहनत की कहानी बताना चाहूंगा, जिससे बिना रासायनिक खेती की बारीकियां समझी जा सकें।

अनूपपुर से मात्र 10 किलोमीटर दूर है जमूड़ी गांव, और यहीं है महेश शर्मा के परिवार की जमीन। कुछ समय पहले इस खेती को देखने के लिए मैं जमूड़ी गया। लम्बे अरसे से जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था के साथ मिलकर महेश शर्मा काम कर रहे हैं। पहले वे छत्तीसगढ़ में खेती का काम कर रहे थे, जहां बिलासपुर जिले में जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था का कार्यक्षेत्र है। जब संस्था के कार्यक्षेत्र का विस्तार मध्यप्रदेश में भी हुआ, तब यहां भी खेती कार्यक्रम शुरू हो गया। वैसे तो यह संस्था स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करती है, पर संस्था का मानना है कि सिर्फ बीमारी का इलाज ही नहीं, उसकी रोकथाम भी जरूरी है। इसके लिए जैविक तरीके से पौष्टिक अनाजों व सब्जी बाड़ी की खेती पर जोर दिया जा रहा है, जिससे लोगों को पोषणयुक्त भोजन मिले और उनका स्वास्थ्य बेहतर हो। इसी के मद्देनजर अनूपपुर जिले के पुष्पराजगढ़ प्रखंड में आदिवासियों के बीच पौष्टिक अनाजों की खेती की जा रही है।

जैविक खेती करने वाले महेश शर्मा ने बताया कि उनके परिवार की जमूड़ी गांव में 5 एकड़ जमीन है। इस जमीन पर उन्होंने 5 साल पहले खेती शुरू करना शुरु किया। इसके पहले यह जमीन बंजर पड़ी थी। लेकिन बहुत ही कम समय में उन्होंने इस जमीन को उपजाऊ बना लिया है। और वह भी पूरी तरह जैविक तौर-तरीके अपनाकर। सबसे पहले मल्चिंग की, यानी हरी खाद से भूमि का ढकाव, जिससे जमीन उपजाऊ हुई, हवादार, पोली और भुरभुरी हुई। और फिर इसमें कई तरह के फलदार पेड़ भी रोपे।

वे आगे बतलाते हैं कि खेत में हरी सब्जियां व मसाले भी उगाते हैं। मड़िया, अरहर, तिल्ली, मूंगफली, अमाड़ी और धान इत्यादि भी लगाते हैं। उनके खेत में सब्जियों में लौकी, करेला, सेमी, बरबटी, भिंडी, बैंगन इत्यादि की खेती अच्छी होती है। उन्होंने अब घर के लिए सब्जियां व मसाले खरीदना बंद कर दिया है। राजगिरा, मिर्च, मैथी, धनिया, प्याज, आलू, टमाटर इत्यादि की फसलें होती हैं। और इन सबसे उनकी घर के खाने की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। अतिरिक्त होने पर बेचते भी हैं। हल्दी और मडिया की बिक्री किसान मेलों में हो जाती है। जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था मडिया के बिस्कुट भी बनाती है।

उन्होंने बताया कि खेतों की मेड़ों में बड़ी संख्या में फलदार पेड़ भी लगाए हैं। अगर पेड़ होते हैं तो पक्षी आते हैं, और ये पक्षी कीटनाशक का काम करते हैं। यहां अमरूद के 45 पेड़, नींबू के 4, आम के 11, सीताफल के 8, केले के 40, अनार के 5, महुआ के 15, पपीता के 12, और करौंदे के 20 पेड़ लगाए हैं। सेमरा के 100 से ज्यादा पेड़ लगाकर खेत की बागुड़ कर दी है।

वे आगे बताते हैं कि महुआ फूल की बिक्री से ही उन्हें इस वर्ष 20 हजार रूपए मिले, जिससे उन्होंने देसी गोबर खाद खरीदा, और पूरी जुताई व बुआई करवाई। इस सबमें लगभग 15 हजार की राशि खर्च हुई। धान की खेती बिना रासायनिक खाद व बिना कीटनाशक के की है। यानी महुआ फूल बेचकर जो राशि मिली, उसी में पूरी खेती की लागत निकल गई।

उनके पास दो कुआं हैं, दोनों ही सूख चुके थे, लेकिन जब तालाब बनाया तो दोनों ही कुएं फिर से पानीदार हो गए। अनूपपुर जिले की सीमा से छत्तीसगढ़ राज्य लगा हुआ है, जहां की तालाब संस्कृति प्रसिद्ध है। वहां एक गांव में कई तालाब होते हैं। महेश शर्मा इस संस्कृति से भलीभांति परिचित हैं, और इसलिए उन्होंने खेत का पानी खेत में रोकने का जतन किया। तालाब बनाकर बारिश की बूंद-बूंद को सहेजा है।

वे बतलाते हैं कि जो पेड़ लगाए थे, वे अब फल देने लगे हैं। करौंदा में पहली बार फल आ गए हैं। अमरूद और पपीता फलने लगे हैं। खेत में बाजरा के भुट्टे लहरा रहे हैं। कुदरती तौर पर होनेवाली गूजा की हरी पत्तीदार साग हुई है।

महेश शर्मा न केवल खुद खेती करते हैं बल्कि जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था के साथ मिलकर किसानों को जैविक खेती के तौर-तरीके सिखाते हैं, और उन्हें खेती करने के लिए देसी बीज भी उपलब्ध कराते हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के झींगटपुर गांव में गांववालों की मदद से बीज व अनाज बैंक भी बनाया है, जहां कई तरह के देसी अनाजों के बीजों का संग्रह है। विशेषकर, देसी धान की कई किस्में उनके बीज बैंक में हैं। इसके अलावा, जैविक खेती के तौर-तरीकों का प्रशिक्षण भी देते हैं।

जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था के डॉ. पंकज तिवारी बतलाते हैं कि पुष्पराजगढ़ प्रखंड काफी पिछड़ा है और आदिवासी बहुल है। इस क्षेत्र के लोग ज्यादातर मजदूरी और खेती करके जीवनयापन करते हैं। यहां बच्चों में कुपोषण देखा जाता है। इसे दूर करने के लिए संस्था की ओर से 3 साल तक के छोटे बच्चों के लिए झूलाघर की तरह फुलवारी संचालित की जाती हैं। इन फुलवारियों में हरी सब्जियां उगाई जाती हैं, जो बच्चों को दिए जाने वाले भोजन में शामिल की जाती हैं। इसके अलावा, किसानों को पौष्टिक अनाज की खेती करने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस साल 85 किसानों ने जैविक खेती की है। इसके अलावा, इन्हीं किसानों के साथ मशरूम की खेती भी की जा रही है।

वे आगे बताते हैं कि सब्जी बाड़ी में लौकी, भिंडी, कद्दू, करेला, भटा और मिर्ची उगाई जाती है। अक्टूबर से फरवरी तक सब्जी बाड़ी से हरी सब्जियां मिलती हैं। सब्जी बाड़ी में अलग से पानी देने की जरूरत भी नहीं है। फुलवारी में बच्चों को जो हाथ धुलाने के लिए जो पानी इस्तेमाल होता है, उसी से सब्जी बाड़ी को पानी मिल जाता है।
महेश शर्मा ने बताया कि महिला किसानों ने भी मडिया की खेती की है। उपरीकला की फुलवारी कार्यकर्ता लीलाबाई, प्यारी गांव की फुलवारी कार्यकर्ता कौशल्याबाई जैसी कई किसानों ने मडिया की खेती की है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है महेश शर्मा व जन स्वास्थ्य सहयोग की पहल से देसी बीजों के साथ पौष्टिक अनाजों की खेती की जा रही है। इस खेती में खर्च न के बराबर है। न रासायनिक खाद की जरूरत और न ही कीटनाशक की। यह खेती पूरी तरह जैविक है। वृक्ष खेती यानी पेडों से जैव खाद मिलती है, पक्षी कीटनाशक का काम करते हैं। खेत का पानी खेत में रोककर तालाब में बारिश की बूंद-बूंद को सहेजा जा रहा है। इसमें भूजल उलीचने के लिए किसी भी प्रकार की बिजली, डीजल की जरूरत नहीं है।

इसके अलावा, आदिवासी किसानों को भी खेती के तौर-तरीके सिखाएं जा रहे हैं। विशेषकर, महिला किसानों को इससे जोड़ा जा रहा है, जो महिला सशक्तिकरण का उदाहरण है। लुप्त हो रहे देसी बीजों का संरक्षण व संवर्धन भी हो रहा है। मडिया व मशरूम की खेती की जा रही है। इससे लोगों की सेहत में सुधार हो रहा है और कुछ आमदनी भी बढ़ रही है। जलवायु बदलाव के इस दौर में पेड़ों के साथ पौष्टिक अनाज व बिना मशीनीकरण के खेती का महत्व और भी बढ़ जाता है, जिससे जैव विविधता व पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। कुल मिलाकर, यह पूरी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।


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