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लौट रहा है गठबन्धन सरकारों का दौर

10 वर्षों तक भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी का एकछत्र शासन, खासकर 2019 से 2024 तक देखने के बाद लगता है कि देश में फिर से गठबन्धन सरकारों के दिन लौट रहे हैं

लौट रहा है गठबन्धन सरकारों का दौर
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10 वर्षों तक भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी का एकछत्र शासन, खासकर 2019 से 2024 तक देखने के बाद लगता है कि देश में फिर से गठबन्धन सरकारों के दिन लौट रहे हैं। मोदी के शासन करने के तरीके ने यह सबक देशवासियों को दिया है कि गठबन्धनों से परहेज करना ठीक नहीं है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिये यह व्यवस्था, वह भी वर्तमान परिस्थितियों में सम्भवत: एक दल के पूर्ण बहुमत वाली सरकार से बेहतर हो सकती है। 18वीं लोकसभा के लिये हुए चुनावों के जो परिणाम आये हैं, उसके बाद यह तो साफ है कि अगली सरकार जो भी बनेगी वह गठबन्धन की होगी। ऐसी सरकारों के बारे में कायम पूर्वाग्रहों और कुछ पैमाने में उनका भारत में जो भी इतिहास रहा हो, अगर वह सब दरकिनार कर दिया जाये तो देशवासियों के हित में यह बुरा सौदा नहीं हो सकता।

2014 में मोदी की अगुवाई में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दो कार्यकाल पूरे कर चुकी जिस यूपीए सरकार को हटाया गया था, वह भी एक गठजोड़ ही था। ऐसा गठजोड़ जिसने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में चल रही नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस की सरकार को हटाया था। एकछत्र राज करने की चाहत में मोदी ने जहां एक ओर अपने विपक्षी दलों को साफ करने की कोशिश की, तो वहीं अपने सहयोगी दलों को भी समाप्त कर दिया। कुछ दलों को तो तोड़ ही दिया। भाजपा की अति महत्वाकांक्षा और मोदी की एकाधिकार की प्रवृत्ति ने एक सामंजस्यपूर्ण कार्य प्रणाली को ध्वस्त कर दिया। पहली बार (2014-19) तो उन्होंने सहयोगी दलों के सदस्यों का थोड़ा बहुत सम्मान किया और उन्हें सत्ता में भागीदारी दी परन्तु दूसरे कार्यकाल में जब उन्हें अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिल गया तो उन्होंने उन दलों को न केवल दरकिनार किया वरन उनकी जमीनें हथियाने की भी कोशिश की। महाराष्ट्र में शिवसेना को दो-फाड़ किया और उसकी सरकार गिरा दी। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल से उनकी पटरी नहीं बैठी।

1977 में पहली बार भारत ने जनता पार्टी की गठबन्धन सरकार देखी थी। मोरारजी देसाई उसके प्रधानमंत्री बने थे। यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। मध्यावधि चुनाव हुए और 1980 में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं। इसके पहले कुछ समय के लिये कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह की सरकार भी बनी लेकिन वह लम्बा चलने में असफल रही थी। इसके कारण गठबन्धन सरकारों को लेकर लोगों के मन में आशंका बैठ गयी। मान लिया गया कि ऐसी सरकारें टिकाऊ नहीं होतीं।

हालांकि इसकी दूसरी वजहें थीं, पर विरोधी दलों के लिये यह जुमला चल पड़ा कि 'डिवाइडेड दे स्टैंड, यूनाइटेड दे फॉल (विभाजित रहते वे मजबूत होते हैं, इकठ्ठे धराशायी)। 1989 में एक और अवसर आया जब 400 पार वाली परन्तु बोफोर्स के कारण बदनाम हुई राजीव गांधी की मजबूत सरकार को उसी में वित्त मंत्री व रक्षा मंत्री रहे वीपी सिंह के नवगठित जनता दल ने परास्त किया था। हालांकि उस चुनाव में सर्वाधिक सीटें कांग्रेस को ही आई थीं लेकिन 1984 के मुकाबले काफी कम थीं। इसे राजीव ने अपनी नैतिक पराजय माना था और सरकार बनाने से इंकार कर दिया था। वी पी सिंह आगे बढ़े थे। उन्हें भाजपा के साथ कुछ प्रगतिशील दलों ने समर्थन दिया था। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के चलते भाजपा द्वारा समर्थन खींच लेने से यह सरकार भी गिर गयी तथा कुछ समय के लिये चंद्रशेखर पीएम बने। वह कांग्रेस के समर्थन से चले पर राजीव के बंगले की हरियाणा पुलिस के दो कांस्टेबलों द्वारा जासूसी कराये जाने के आरोप में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया था। इंद्रकुमार गुजराल एवं एच डी देवेगौड़ा जैसों द्वारा भी गठबन्धन सरकारें चलाने का इतिहास इसी देश का है।

पहली बार वाजपेयी सरकार ने 1999 से 2004 तक का कार्यकाल पूरा किया था जो कि मिली-जुली सरकार थी। हालांकि इसके पहले वे एक बार 13 दिन और दूसरी बार 13 माह की गठबन्धन सरकारें चला चुके थे। इसकी मुख्य विशेषता यह थी कि सरकार उनकी दो बार गिरी लेकिन गठबन्धन अटूट रहा। सहयोगी दल साथ बने रहे। इसने यह लोकतांत्रिक प्रशिक्षण दिया कि पराजय में बिखरना नहीं है और मिलकर सरकार बनाने के प्रयास करते रहने हैं। वाजपेयी भी वैसे ही कट्टर हिन्दू और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उतने ही समर्पित कार्यकर्ता थे जितने कि नरेन्द्र मोदी। जब तक वे सरकार चलाते रहे उन्होंने अपनी विचारधारा को एक किनारे रख दिया था। उन्होंने अपने साथ जॉर्ज फर्नांडीज, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे समाजवादियों को भी रखा, पाकिस्तान की यात्रा की और जिस गोधरा कांड में बड़ी संख्या में मुस्लिम मारे गये व बलात्कार हुए थे, उसके होने पर इन्हीं मोदी को राजधर्म का पालन करने की सरेआम नसीहत भी दी, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी यह मिथक टूटा कि गठबन्धन सरकारें काम नहीं करतीं। ग्रामीण गरीबी दूर करने के लिये मनरेगा, भोजन का अधिकार, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे नायाब कार्यक्रम इसी गठबन्धन सरकार की सौगातें हैं। सो, ऐसे वक्त में जब पूर्ण बहुमत के अभाव में कोई भी अपने दम पर सरकार नहीं बना सकता, साफ है कि सत्ता मिल-जुलकर ही चलाई जा सकती है। वैसे भी लोकतंत्र का मतलब है मिलकर काम करना। मोदी को सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम करने की आदत नहीं। उन्हें गठबन्धन की संस्कृति सीखनी आवश्यक तो है, लेकिन वाजपेयी और मनमोहन सिंह सदृश्य लचीलेपन व उदारता के अभाव में उनके हाथों में पड़कर ऐसी सरकार वाकई में अस्थिर हो सकती है।


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