दुश्मनी हसीना से है, हमसे नहीं
बांग्लादेश में तख्तापलट के साथ ही भारत के पड़ोसी देशों में हमारा एकमात्र सच्चा मित्र शासन भी खत्म हो गया है

- अरविन्द मोहन
निश्चित रूप से बांग्लादेश में तख्तापलट का भारत पर असर होगा। हमारी सीमा ही चार हजार किलोमीटर से ज्यादा बड़ी है। फौजी और मजहबी रूप से ज्यादा कट्टर सत्ता होने से बांग्लादेश से घुसपैठ और शरणार्थियों का रेला आ सकता है। आंदोलन की सूत्रधार जमाते इस्लामी तो खुलेआम पाकिस्तान समर्थक है और वह बांग्लादेश बनने का विरोधी भी है। इस आंदोलन को भी आई एस आई के समर्थन की बात कही जा रही थी।
बांग्लादेश में तख्तापलट के साथ ही भारत के पड़ोसी देशों में हमारा एकमात्र सच्चा मित्र शासन भी खत्म हो गया है। नया शासन अनिवार्यत: हमारा बैरी हो यह जरूरी नहीं है लेकिन राजनैतिक अस्थिरता, फौजी दखल और कई स्पष्ट भारत विरोधी राजनैतिक ताकतों के बीच किस किस्म का संतुलन बांग्लादेश में बनाता है और वह भारत से किस तरह का संबंध रखता है यह आने वाले वक्त में तय होगा। यह हमारी कूटनीति की परीक्षा भी है। मालदीव में एकदम भारत विरोधी शासन को बहुत जल्दी अपने रुख में 180 डिग्री का बदलाव करना पड़ा पर वह बहुत छोटा देश है और भारत पर उसकी निर्भरता कहीं अधिक है। नेपाल में भी ओली सरकार को नहीं पर खुद प्रधानमंत्री ओली और उनकी पार्टी का रुख चीन समर्थक है। पाकिस्तान की बात ही क्या है। श्रीलंका की सरकार भी भारत के बहुत पक्ष की नहीं है। अफगानिस्तान और चीन के अपने किस्से बहुत हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत चारों ओर से जिन देशों से घिरा है वहां की सरकारें भारत समर्थक नहीं हैं और इनसे रिश्ता रखते हुए भारत को फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने होंगे।
बांग्लादेश की सत्ता छोड़ने और देश छोड़ने को मजबूर हुईं शेख हसीना के साथ ऐसा नहीं था। उनके पंद्रह साल लंबे शासन में भारत बांग्लादेश की तरफ से काफी निश्चिंत रहा है। भारत के काफी उद्यमियों ने बांग्लादेश के सस्ते श्रम के लोभ में अपने उत्पादन का केंद्र वहां भी बना रखा था। चीन भी बांग्लादेश के समुद्री लोकेशन और सस्ते श्रम को लेकर उसके आसपास मंडराता रहा है। और जब एकतरफा बांग्लादेश चुनाव में शेख हसीना की पार्टी को 300 में से 288 सीटों पर विजेता घोषित किया गया था तब उनकी सरकार को विश्वसनीयता का संकट था। उस समय भी चीन ने आगे बढ़कर उनका समर्थन किया था और उनकी सांस लौटी थी। लेकिन इसके बावजूद हसीना ने चीन के दबाव में तीस्ता को लेकर ऐसा समझौता नहीं किया जो भारत के हितों के खिलाफ होता। हसीना के शासन में पंद्रह साल में बांग्लादेश ने अच्छी आर्थिक तरक्की की थी और आज बांग्लादेश और वियतनाम जैसे मुल्कों पर दुनिया की नजर है। कई पैरामीटर पर बांग्लादेश भारत से बेहतर स्थिति में है। बाहर से काफी पूंजी बांग्लादेश में लगी है और हमारे हजारों बच्चों समेत इस पूरे क्षेत्र के बच्चे यहां के विश्वविद्यालयों और मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों में पढ़ाई कर रहे हैं।
लेकिन इससे शेख हसीना के शासन के सारे पापों को भुलाया नहीं जा सकता। अभी के आंदोलन में ही चार सौ नौजवान सेना और पुलिस की गोली का शिकार हुए थे। एक रात में ही 75 बच्चों के शव को चुपचाप दफनाया दिया गया था। विपक्ष की नेता खालिदा जिया जेल में बंद थीं तो लघु वित्त के अद्भुत प्रयोग के लिए नोबल पुरस्कार जीतने वाले मोहम्मद यूनुस भी जेल में थे। दूसरी ओर सरकारी बैंकों के भारी-भारी लोन का घोटाला करने वाले सरकार और शासन में प्रमुख बने बैठे थे। पिछला चुनाव भी लोकतंत्र का मजाक था और जिस आरक्षण को लेकर छात्रों, नौजवानों का आंदोलन जिस आरक्षण नीति को लेकर था उसमें सरकार और कोर्ट क्या खेल करते रहे यह समझना मुश्किल है। हसीना ने भी कभी आंदोलनकारियों से नहीं कहा कि वह अदालत के फैसले के खिलाफ अपील करेगी। और जब आंदोलन उग्र हुआ तो उसे शांतिपूर्ण और बातचीत के माध्यम से निपटाने की जगह पहले अपने छात्र संगठन से हमले कराए गए और फिर कठोर पुलिस के तरीकों से दबाने का प्रयास अंतत: भारी पड़ा। और खुद उस सेना प्रमुख वकारुज़्जमां ने तख्ता पलट की है जिसे शेख हसीना ने डेढ़ महीने से भी कम समय पूर्व इस पद पर प्रमोट किया था। ऐसी गलती सत्ता के मद में होने से भी होती है।
लेकिन इस प्रकरण में भारत ने उनको अपने यहां आने दिया और सुरक्षित रखा यह बहुत ही उचित व्यवहार है। शेख मुजीबुर्रहमान और बांग्लादेश की आजादी के साथ हमारा क्या रिश्ता रहा है यह बताने की यह जगह नहीं है। लेकिन यह कहने में हर्ज नहीं है कि शेख हसीना के साथ हमारा ज्यादा गहरा नाता है। जब 1975 में सैनिक तख्तापलट में शेख मुजीबुर्रहमान के पूरे परिवार के लोगों को मार डाला गया था तब से भारत से उनका रिश्ता है। और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही नहीं विपक्षी गांधी परिवार से भी उनके घरेलू रिश्ते हैं। अभी जब वे मोदी जी के शपथ ग्रहण में आई थीं तो सोनिया गांधी से मिलना न भूलीं। पर यह याद रखना जरूरी है कि वे सत्तर पार कर चुकी हैं। और मुल्क में उनकी पार्टी अवामी लीग अभी भले सबसे ताकतवर हों पर वे वापसी कर पाएंगी इसमें संदेह ही रहेगा। अभी वहां राजनैतिक रूप से क्या-क्या होगा इसकी भविष्यवाणी करना उचित न होगा क्योंकि सत्ता का स्वाद चख चुकी फौज बहुत जल्दी से लोकतान्त्रिक प्रक्रिया बहाल करे यह होता नहीं है। दूसरे वहां की राजनीति में जो भी तत्व हसीना विरोधी हैं वे भारत विरोधी भी हैं। खालिदा जिया तो कब से घोषणा कर रही है कि अगर वे सत्ता में आईं तो भारत से हुए सारे समझौतों पर पुनर्विचार करेंगी। लेकिन वे भी हसीना की तरह उम्रदराज हैं और बहुत बीमार हैं।
निश्चित रूप से बांग्लादेश में तख्तापलट का भारत पर असर होगा। हमारी सीमा ही चार हजार किलोमीटर से ज्यादा बड़ी है। फौजी और मजहबी रूप से ज्यादा कट्टर सत्ता होने से बांग्लादेश से घुसपैठ और शरणार्थियों का रेला आ सकता है। आंदोलन की सूत्रधार जमाते इस्लामी तो खुलेआम पाकिस्तान समर्थक है और वह बांग्लादेश बनने का विरोधी भी है। इस आंदोलन को भी आई एस आई के समर्थन की बात कही जा रही थी और चीन जरूर कोशिश करेगा कि नई सरकार पर उसका प्रभाव ज्यादा रहे। फौज और जुनूनी मजहबी जमात से संबंध निभाना आसान नहीं होगा। हां, यह याद करना लाभदायक है कि इन सबका विरोध शेख हसीना से था, भारत से नहीं और बांग्लादेश की हाल की खुशहाली उनको भी भायी होगी। सो वे सत्ता बदलकर वे हर चीज बदलने नहीं जाएंगे। स्थिति को बिगाड़ना नहीं चाहेंगे। पर अगले कुछ दिन बहुत नाजुक हैं भारत को गंभीरता से हर चीज पर गौर करके ही कदम उठाना चाहिए।


