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लालच का नतीजा है श्रीलंका का आर्थिक संकट

श्रीलंका गंभीर राजनीतिक और आर्थिक संकट का सामना कर रहा है

लालच का नतीजा है श्रीलंका का आर्थिक संकट
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डॉ. वंदना शिवा

श्रीलंका गंभीर राजनीतिक और आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। इस संकट के कई कारण हैं लेकिन पिछले दो वर्षों में कोविड, जलवायु परिवर्तन, बढ़ते असहनीय ऋण बोझ और इस बढ़ते ऋ ण में रासायनिक उर्वरकों के योगदान से संबंधित मुद्दों के साथ संकट तेज हो गया है। इस समय हम जो विरोध प्रदर्शन देख रहे हैं, वे लालच की अर्थव्यवस्था, ऋण जाल के निर्माण और किराया लेकर जमीन प्रयोग करने का अधिकार प्रदान करने, जीवनयापन की बढ़ती लागत के कारण आम नागरिकों के आर्थिक संकट की वजह से जीवित रहने की मुश्किलों से जुड़े हैं। इस तरह के विरोध प्रदर्शन 2019 में कोविड और उसके बाद लगे लॉकडाऊन के पहले दुनिया भर में आम थे । बेरूत और चिली को याद करें! जब जीवित रहने के खर्चे असहनीय हो जाते हैं तो लोग विरोध करने लगते हैं। यह एक दुष्चक्र है जिसमें देश कर्ज में डूबे होते हैं, इस कर्ज से अरबपति और बैंक पोषित होते हैं और आम नागरिकों को गरीब से अधिक गरीब बनाते हैं।
परस्पर जुड़ी समस्याओं के इन जटिल समूहों को आसानी से समझने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि श्रीलंका ने अब खेती में रसायनों के उपयोग से उत्पन्न संकट का सामना करने के लिए रसायनों के उपयोग को कम करने या रोकने की एक सीधी रेखा खींचनी शुरू कर दी है। इस समस्या का एक पक्षीय अध्ययन करने वाले लोगों के दिमाग में यह बात आई कि श्रीलंका में कृषि में रसायनों का उपयोग पूरी तरह बंद किया जाए या उसके उपयोग में कटौती की जाए। इसका परिणाम यह हुआ कि पैदावार में गिरावट आई और एक नया संकट पैदा हो गया जिसने श्रीलंका को एक अच्छी अर्थव्यवस्था से कई अन्य मुख्य उपजों व भोजन के लिए आयात पर निर्भर अर्थव्यवस्था में बदल दिया। विश्व स्तर पर कई प्रमुख मीडिया घराने अब तक इसी कहानी को दोहरा रहे हैं।
मीडिया घराने कहानी के इस पहलू को नहीं देखते हैं कि श्रीलंका पहले से ही चुनिंदा बुनियादी ढांचे- बंदरगाहों, बिजली संयंत्रों, राजमार्गों, रिसॉर्ट्स के निर्माण के लिए भारी उधार लेकर ऋ ण संकट में जा रहा था। भारतीयों को विदेश नीति के बारे में जागरुक करने के उद्देश्य में लगे एक गैर-लाभकारी संगठन गेटवे हाउस के अनुसार चीन द्वारा श्रीलंका में 50 से अधिक परियोजनाओं में ऋण और इक्विटी 11 अरब अमरीकी डालर से अधिक निवेश किया गया है। अधिकांश निवेश सड़कों और जल उपचार संयंत्रों में किया गया है लेकिन सबसे बड़ी परियोजनाएं हंबनटोटा पोर्ट, कोलंबो पोर्ट सिटी और लकाविजया थर्मल पावर प्लांट हैं। इन तीनों परियोजनाओं को चीनी सरकार के स्वामित्व वाले बैंकों द्वारा वित्त पोषित किया गया है तथा चीनी ठेकेदारों द्वारा निर्मित किया जा रहा है।
गेटवे हाउस के अमित भंडारी और चांदनी जिंदल लिखते हैं- च्च्2017 के दौरान श्रीलंका की सरकार ने अपने राजस्व का 83 प्रतिशत ऋण पुनर्भुगतान पर खर्च किया, जिसमें से एक चौथाई विदेशी उधार था। देश का विदेशी ऋ ण पुनर्भुगतान 2017 में 2.1 अरब अमरीकी डालर से दोगुना होकर 2019-22 के दौरान 3.3-4.2 अरब अमरीकी डालर सालाना होने का अनुमान है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि श्रीलंका ने इस ऋण में से कुछ को इक्विटी में बदलने का फैसला किया और 2017 में हंबनटोटा को चीन पोर्ट होल्डिंग के हाथों में सौंप दिया।ज्ज्
रॉयटर्स के अनुसार मार्च 2022 में श्रीलंका के केंद्रीय बैंक ने कहा कि विदेशी मुद्रा भंडार फरवरी के अंत तक 2.31 अरब अमरीकी डालर तक गिर गया जो देश के विदेशी मुद्रा दायित्वों के केवल एक महीने को कवर करता है। विदेशी मुद्रा संकट के कारण सरकार ईंधन सहित आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए भुगतान करने में असमर्थ हो गई है। जीवाश्म ईंधन के आयात पर निर्भरता के कारण एक नया आर्थिक संकट सामने आ गया है। 13 घंटे तक की बिजली कटौती हुई है और मुद्रा का अवमूल्यन होने के बाद मुद्रास्फीति बढ़ रही है। श्रीलंका के 2 करोड़ 22 लाख नागरिक स्पष्ट रूप से अस्तित्व के संकट का सामना कर रहे हैं और सरकार के विरोध में उठ खड़े हुए हैं। मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिये हैं। देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। देश क्रेडिट पर जीवित है। कोविड के कारण श्रीलंका की ब्याज के साथ अपने ऋणों का भुगतान करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई थी। श्रीलंका की विदेशी मुद्रा अर्जन का मुख्य स्रोत पर्यटन और विदेश में काम कर रहे नागरिकों द्वारा भेजे गए पैसे थे। महामारी ने दोनों स्रोतों को सुखा दिया। दो साल में विदेशी मुद्रा भंडार में लगभग 70 प्रतिशत की गिरावट आई है। यूक्रेन संकट ने तेल की कीमतों और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि के साथ संकट को और बढ़ा दिया है।
दक्षिण एशिया को सबसे गंभीर रूप से प्रभावित करने वाले जलवायु के कहर ने श्रीलंका के खाद्य संकट को भी गहन कर दिया है। दक्षिण एशिया मानसून के कारण आर्थिक और पारिस्थितिक रूप से समृद्ध है। मानसून को जलवायु परिवर्तन गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है और इसका असर कृषि उत्पादन पर पड़ रहा है। आईपीसीसी (इंटरगव्हर्मेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज- आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार तापमान में हर 1 प्रतिशत की वृद्धि का संबंध दक्षिण एशियाई मानसून से है और इससे संबंधित तीव्र और चरम घटनाओं में फीसदी की वृद्धि होगी। हम औद्योगिक और वैश्वीकृत खाद्य प्रणाली की केंद्रीय भूमिका को पहचाने बिना जलवायु परिवर्तन और इसके बहुत ही वास्तविक परिणामों के बारे में बात नहीं कर सकते हैं जो वनों की कटाई, केंद्रित पशु आहार संचालन (कान्स्ट्रेटेड एनीमल फीडिंग ऑपरेशन- सीएएफओ), प्लास्टिक और एल्यूमीनियम पैकेजिंग, लंबी दूरी के परिवहन और खाद्य अपशिष्ट के माध्यम से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 50 प्रतिशत से अधिक योगदान देता है।
आईपीसीसी के अनुसार 'भोजन और जलवायु प्रभाव दोनों तरफ से चलते हैं। जलवायु परिवर्तन खाद्य प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण जोखिम पैदा करता है, बढ़ते तापमान और बदलते मौसम के कारण आने वाले दशकों में फसलों, आपूर्ति श्रृंखलाओं और आजीविका को भारी नुकसान की चेतावनी दी जाती है।Ó
नेचर द्वारा च्श्रीलंका में जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा : खाद्य संप्रभुता की ओरÓ शीर्षक से प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि खाद्य संप्रभुता को बढ़ावा देना जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने की कुंंजी हो सकती है। सिंथेटिक रासायनिक खाद से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जो कार्बन डाई आक्साईड (सीओ-2) की तुलना में जलवायु के लिए 300 गुना अधिक हानिकारक है। सिंथेटिक उर्वरकों का आयात भी श्रीलंका के दुर्लभ विदेशी मुद्रा भंडार में भारी कमी का एक कारण था।
वैश्विक रसायन उद्योग, जो श्रीलंकाई संकट को अप्रैल 2021 में रासायनिक उर्वरकों के आयात में कुछ महीनों की रोक के रूप में चित्रित कर रहा है, स्वीकार नहीं कर रहा है कि यह प्रतिबंध श्रीलंका के ऋ ण संकट से संबंधित था। रासायनिक उर्वरकों के आयात पर प्रतिबंध खुद होकर खाद्य संप्रभुता की नीतियों की व्याख्या नहीं करता है। खाद्य संप्रभुता के लिए पारिस्थितिक कृषि के लिए व्यवहार, अनुसंधान और नीतियों में एक सुविचारित परिवर्तन की आवश्यकता होती है। क्यूबा ने अपने देश में सोवियत संघ के पतन से उत्पन्न ईंधन और फर्टिलाइज़र संकट से निपटने के लिए नीति और अनुसंधान के माध्यम से जैविक कृषि के परिवर्तन का प्रबंधन किया।
श्रीलंका जलवायु के साथ की गई नाइंसाफी की भारी कीमत चुका रहा है। यह विदेशी निवेश पर निर्भरता की उच्च लागत को भी दर्शा रहा है। इससे यह भी प्रकट हो रहा है कि महंगे बुनियादी ढांचे का निर्माण करने के लिए कर्ज लेने से कुछ लोगों को लाभ मिलता है जबकि जीवन के बुनियादी ढांचे के विनाश के कारण दोनों स्तरों पर- स्थिर जलवायु के पारिस्थितिक बुनियादी ढांचे तथा बुनियादी जरूरतों की गारंटी के आर्थिक ढांचे को नुकसान के रूप में, अधिकांश नागरिक बहुत अधिक कीमत अदा करते हैं।
कार्पोरेट वैश्वीकरण के बजाय स्थानीयकरण, जीवाश्म ईंधन, पूंजी, ऋ ण केन्द्रित अर्थव्यवस्थाओं की जगह पारिस्थितिक स्थिरता और संप्रभुता; व्यक्तियों, समुदायों, देशों और हमारी धरती के लिए शांति और स्वतंत्रता, लचीलापन और आत्मनिर्भरता का मार्ग है। श्रीलंका संकट को समझने का कोई अन्य तरीका उन दुखों को बनाए रखने का प्रयास होगा जिन सुखों के वादे के भरोसे के कारण वे इस हालत में पहुंचे हैं।
इस संदर्भ में श्रीलंका के पहले प्रधानमंत्री डॉन स्टीफन सेनानायके का कथन महत्वपूर्ण है। उन्होंने 1935 में लिखा था: च्च्कृषि केवल फसलों को उगाकर पैसा बनाने का एक तरीका नहीं है; यह केवल एक उद्योग या एक व्यवसाय नहीं है; यह निजी व्यक्तियों द्वारा अनिवार्य रूप से एक सार्वजनिक कार्य या सेवा है जो भूमि की देखभाल और उपयोग के माध्यम से की जाती है।


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