गांधी को स्वीकारने-नकारने की ऊहापोह
अपनी मृत्यु के 76 वर्षों के बाद भी सारी दुनिया जिस व्यक्ति के आगे नतमस्तक होती है, उनका अपना देश एक बार फिर उनकी जयंती मना रहा है

अपनी मृत्यु के 76 वर्षों के बाद भी सारी दुनिया जिस व्यक्ति के आगे नतमस्तक होती है, उनका अपना देश एक बार फिर उनकी जयंती मना रहा है। पिछले लगभग एक दशक से महात्मा गांधी की जयंती हो अथवा पुण्यतिथि, उन्हें याद करते वक्त देश के सामने यह द्वंद्व बराबर खड़ा होता है कि बापू को स्वीकारें या अब वे त्याज्य हैं?
ऊहापोह की यह स्थिति तैयार की गई है, कृत्रिम है; वरना जैसे व जितने लम्बे समय से गांधी जी के नाम को मिटाने के प्रयास हुए हैं, वे सफल हो जाते तो उनके नाम पर होने वाले आयोजन कब के रुक गये होते। उनकी नश्वर काया को मिटाने वाले लोगों, विचारधाराओं और संगठनों ने सोचा भी न होगा कि शरीर छोड़ देने के बाद भी वे ऐसी लम्बी पारी खेलेंगे जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। उल्टे, उनका नामो-निशान मिटाने की जितनी कोशिशें हो रही हैं, गांधी का नाम उतना ही बोल्ड और ज़ूम होता जा रहा है। खैर, गांधी को सहेजने और निपटाने की इस रस्साकशी में देश सोमवार को उन्हें फिर से याद कर रहा है। उनके नाम पर होने वाले छोटे-बड़े आयोजनों में उन्हें भी शामिल होना पड़ता है जो यह करना कतई नहीं चाहते। करते भी हैं तो अनिच्छा से।
तो भी, गांधी का केवल नाम बचाये रखना काफी नहीं है। उनके विचारों को अमल में लाना आज भी भारतीय समाज के सामने एक बड़ा टास्क बना हुआ है। गांधी खुद का नाम अमर करने या देश भर में अपनी बड़ाई के किस्से प्रसारित करने के पक्ष में बिलकुल नहीं थे परन्तु उनके रहते और उनके बाद की दुनिया ने उनका कहा नहीं माना। ऐसा इसलिये क्योंकि गांधी विश्व के लिये ज़रूरी हैं। मानवीयता के लिये अपरिहार्य भी।
गांधी जी को इस हयात से रुख़सत हुए तकरीबन उतने ही साल हुए हैं जितनी पुरानी हमारी आजादी है। स्वतंत्र भारत ने अभी अपनी आंखें ठीक से खोली भी न थीं, कि उसके सामने यकायक बड़ा अंधेरा छा गया था- 30 जनवरी, 1948 को। फिर भी, वे ही रोशनी बने जिनकी अदृश्य ऊंगलियां थामकर हमारे रहनुमाओं ने देश को आगे बढ़ाया। कई सरकारें आईं और गईं। ऐसा नहीं कि इनमें सारे गांधीवादी थे। यहां तक कि उनके तत्काल बाद आई सरकारों ने तो गांधीवादियों की बीज-पुस्तिका 'हिन्द स्वराज' के कई सिद्धातों व विचारों को काटते हुए आधुनिकता का रास्ता अपनाया। बड़े कल-कारखाने, विशालकाय बांध तो उनके राजनैतिक वारिस और प्रिय शिष्य जवाहरलाल नेहरू ने बनवाये। इनके पूर्ण होने के काफी पहले ही बापू जा चुके थे। अगर वे होते भी या ऊपर से देख सकते तो वे खुश ही होते कि उनका पट्टशिष्य ये सारे उपक्रम समाज के अंतिम व्यक्ति को सशक्त करने के लिये कर रहा है।
फिर, नेहरू ने गांधी के अमृत तत्वों को सहेजकर रखा और सियासत को उन पर हावी नहीं होने दिया। कमोवेश, यह सिलसिला वर्तमान सरकार के पहले तक जारी रहा और गांधी हर तरह की व्यवस्थाओं के बीच भी बच गये- 1991 में आई वैश्विक अर्थव्यवस्था की बाढ़ भी उस उपजाऊ मिट्टी को बहाकर नहीं ले जा सकी जिसमें गांधी विचारों के बीज छिड़के हुए थे। पीवी नरसिम्हा राव हों या आर्थिक सुधारों के पुरोधा डॉ. मनमोहन सिंह अथवा संचार क्रांति के प्रणेता राजीव गांधी- किसी ने भी अपनी कार्य प्रणाली से इस पवित्र नाम को दफ़्न नहीं किया।
गांधी को बचकानी व हास्यास्पद चुनौतियां देना हालिया राजनीति की देन हैं जिसने इसके लिये लम्बा इंतज़ार किया था। जितनी पुरानी हमारी स्वतंत्रता है या जितने साल बापू को जाकर हो गये हैं- उससे करीब 25 साल ज्यादा का। 1924 में बने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वतंत्रता आंदोलन का रास्ता अलग था, यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसी किसी राह पर यह संगठन चला ही नहीं।
उलटे, वह गांधी जी के नेतृत्व में जारी संघर्ष का मुख्य अवरोध रहा। फिर भी, गांधी को लोग ससम्मान रास्ता देते गये और जनसामान्य को वे ही अपनी मुक्ति का मार्ग महसूस होते रहे। अब परिस्थितियां बदली हुई हैं। एक ओर भरी लोकसभा में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी बसपा सदस्य दानिश अली को सम्प्रदायकसूचक अपशब्द कहकर पार्टी के भीतर बड़ी जिम्मेदारी पा जाते हैं और गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहने वाली प्रज्ञा ठाकुर को वे (मोदी) चाहें दिल से माफ न कर पाये हों, पर उन्हें बरास्ता भोपाल लोकसभा तक पहुंचाते हैं, वहीं पीएम जी-20 सम्मेलन में आये मेहमानों को राजघाट पर एकत्र कर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि भारत आज भी गांधी का देश है। यह मोदी को हैरान से ज्यादा व्यथित करने वाला होता होगा कि दुनिया में वे जहां भी जाते हैं, गांधी जी उनका पीछा नहीं छोड़ते।
उन्हें वहां के चौक-चौराहों पर लगी गांधी प्रतिमाओं के सामने शीश नवाना होता है- सिर्फ फोटोबाजी के लिये नहीं वरन स्वयं को एक मानवीय समाज का हिस्सा बतलाने के लिये। मेजबान हों या भारत आने वाले विदेशी मेहमान, उनकी पीड़ा को यह कहकर बढ़ाते हैं कि भारत की पहचान गांधी से है।
दिलचस्प यह है कि भारत में राजनीति करने वाले गांधी विरोधियों को भी अपनी प्रासंगिकता साबित करने के लिये गांधी का जपनाम करना पड़ता है। गांधी को अपशब्द कहकर वे कुछ सनसनी फैला सकते हैं, मनोरंजन भी करते हैं परन्तु इससे वे अपनी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता खो बैठते हैं। वह इसलिये क्योंकि आज भी बापू आदर्शों व मूल्यों के अल्टीमेट मानक बनकर ऐसी आसमानी ऊंचाई पर विराजमान हैं कि उन्हें धकियाकर कोई व्यक्ति या विचारधारा सभ्य समाज में चल-फिर नहीं सकती।


