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देश का लोकतंत्र बचाने की सुप्रीम कोर्ट की बेचैनी बनाम धरातल का यथार्थ

सुप्रीम कोर्ट देश में हो रहे चुनावों पर उठने वाले प्रश्नों से बेहद चिंतित है

देश का लोकतंत्र बचाने की सुप्रीम कोर्ट की बेचैनी बनाम धरातल का यथार्थ
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- इंदू सिंह

सुप्रीम कोर्ट देश में हो रहे चुनावों पर उठने वाले प्रश्नों से बेहद चिंतित है। उसकी चिंता महज एक आयोग की अध्यक्ष या उसके सदस्यों की नियुक्ति तक सीमित नहीं है। उसकी चिंता इससे कहीं ज़्यादा व्यापक है। सुप्रीम कोर्ट देश में लोकतंत्र को बरकरार रखने के रास्ते में आने वाली हर बाधा को दूर करना चाहता है।

पहले, दो खबरें पढ़िए-

1. देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बेहद अहम और देश के चुनावी भविष्य की दिशा तय करने वाले फै़सले में कहा है कि अब केंद्रीय चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष (ऐसा न होने की स्थिति में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता)और सीजेआई की समिति को होगा।

2. देश के तीन उत्तर-पूर्वी राज्यों नगालैंड, मेघालय और त्रिपुरा में 2 मार्च को मतगणना के बाद नतीजे आ गए। यहां बात नगालैंड की करनी है, क्योंकि नगालैंड में भाजपा और सहयोगी दलों को बहुमत मिला है। वे दोबारा सरकार बनाने जा रहे हैं। इस राज्य में 27 फरवरी को मतदान हुआ था। इससे एक दिन पहले नगालैंड के कई गांवों में हुई बैठकों के बाद यह फ़ैसला लिया गया कि वोटिंग में सभी लोग वोट डालने नहीं जाएंगे। परिवार से केवल एक ही शख्स बाकी सभी के वोट डाल देगा। और 27 फरवरी को वाकई ऐसा ही हुआ।

अब हम बात करते हैं सर्वोच्च अदालत के फ़ैसले और उसके संभावित असर पर। पहली बात तो यह कि यह बेहद अहम फ़ैसला फरवरी 2025 के बाद ही लागू होगा, जब वर्तमान केंद्रीय चुनाव आयुक्त राजीव कुमार रिटायर होंगे। क्योंकि यह फ़ैसला वर्तमान चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को प्रभावित नहीं करता है। यानी, जब तक यह फ़ैसला लागू होगा तब तक बहुत से राज्यों के विधानसभा और 2024 का लोकसभा चुनाव हो चुका होगा। 2025 में दिल्ली, बिहार और झारखंड में चुनाव हैं। पर दिल्ली और झारखंड में फरवरी से पहले चुनाव होने हैं, यानी केवल बिहार ही ऐसा पहला राज्य होगा जहां नये केंद्रीय चुनाव आयुक्त के तहत चुनाव कराया जाएगा।

अब सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट को आखिर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर इतना अहम $फैसला क्यों करना पड़ा? वे कौन सी परिस्थितियां या प्रश्न थे जिनके उत्तर ढूंढने के लिए हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले की कुछ अहम टिप्पणियों को पढ़ना और समझना होगा। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चुनाव आयुक्तों की स्वतंत्रता, धन शक्ति के उदय और राजनीति में अपराधीकरण के अलावा भी बहुत अहम और तल्ख टिप्पणियां की हैं। इनमें कुछ टिप्पणियां ही इस पूरे मसले को जानने, समझने के लिए पर्याप्त होंगी।

कोर्ट ने कहा कि-

-धन बल की भूमिका और राजनीति के अपराधीकरण में भारी उछाल आया है। हालत यह है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग अपनी मूल भूमिका से अलग हो गया और पक्षपातपूर्ण हो गया है।

- कोई भी मौजूदा कानून स्थायी नहीं हो सकता, खासकर नियुक्तियों के मामले में कार्यपालिका के पूर्ण अधिकार को देखते हुए। यह भी कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों के पास नया कानून न तलाश करने का कारण होगा, जो साफ दिख रहा है। किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी में एक सेवा आयोग के माध्यम से सत्ता में बने रहने की अतृप्त इच्छा होगी।

- चुनाव आयोग को स्वतंत्र होना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि वह स्वतंत्र होने का दावा करे लेकिन काम अनुचित तरीके से करे। अगर किसी व्यक्ति के मन में सरकार के प्रति कृतज्ञता की भावना रहेगी तो वह कभी भी स्वतंत्र रूप से सोच नहीं सकता। जबकि एक स्वतंत्र व्यक्ति कभी भी सत्ता का गुलाम बनकर नहीं रह सकता।

- स्वतंत्रता आखिर क्या है? कभी भी योग्यता को भय से बांधकर नहीं रखा जा सकता। योग्यता को हमेशा स्वतंत्रता के पैमाने से ही आंका जाना चाहिए। लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक आम आदमी ईमानदार व्यक्ति की ओर ही देखेगा।

- एक चुनाव आयोग जो कानून के शासन की गारंटी नहीं देता, वह लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है। अगर वह अपनी शक्तियों के व्यापक स्पेक्ट्रम को अवैध रूप से या असंवैधानिक रूप से प्रयोग करता है तो इसका राजनीतिक दलों के नतीजों पर असर पड़ता है।

- केवल नतीजे तक पहुंचा देना कभी भी उसके लिए जिम्मेदार गलत साधनों को सही नहीं ठहरा सकता। लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब सभी हितकारण चुनाव प्रक्रिया की शुद्धता बनाए रखने के लिए काम करें।

- नियुक्ति की शक्तियों का दुरुपयोग किया जा सकता है। यह देश भर में बड़े पैमाने पर हो सकता है। राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों का भाग्य चुनाव आयोग के हाथों में है। ऐसे तमाम मामलों को नियंत्रित करने वाले महत्वपूर्ण निर्णय उनके द्वारा ही लिए जाते हैं।

- लोकतंत्र तभी प्राप्त किया जा सकता है जब सत्ताधारी दल इसे अक्षरश: कायम रखने का प्रयास करें।

-एक पर्याप्त और उदार लोकतंत्र की पहचान को ध्यान में रखना चाहिए। लोकतंत्र जटिल रूप से लोगों की शक्ति से जुड़ा हुआ है। मतपत्र की शक्ति सर्वोच्च है, जो सबसे शक्तिशाली दलों को भी अपदस्थ करने में सक्षम है।

कोर्ट के अहम फ़ैसले के ये नौ बिंदु या टिप्पणियां नौ रत्नों की तरह हैं। इनमें से हर एक टिप्पणी को मौजूदा हालत पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता के साथ ही चुनाव आयोग की शक्तियों और देश में लोकतंत्र बरकरार रखने की उसकी बेचैनी के संदर्भ में देखने की जरूरत है। खासकर कोर्ट का यह कहना कि देश के राजनीतिक दल ऐसे किसी नये कानून की तलाश जानबूझ कर नहीं कर रहे क्योंकि इससे मौजूदा व्यवस्था के चलते रहने से सत्ता में बने रहने की उनकी लालसा पूरी होती है। कोर्ट जहां यह बात बिना किसी लाग-लपेट के कहता है कि कानून के शासन की गारंटी नहीं देने वाला चुनाव आयोग लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है, वहीं वह बेहद भावनात्मक और अकादमिक ढंग से यह भी बताता है कि किसी भी योग्यता को इसी पैमाने से आंका जा सकता है कि वह कितना स्वतंत्र है। और अंत इस बात से कि मतपत्र ही वह सर्वोच्च शक्ति है जो सबसे शक्तिशाली दलों को भी अपदस्थ करने में सक्षम है।

ज़ाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट देश में हो रहे चुनावों पर उठने वाले प्रश्नों से बेहद चिंतित है। उसकी चिंता महज एक आयोग की अध्यक्ष या उसके सदस्यों की नियुक्ति तक सीमित नहीं है। उसकी चिंता इससे कहीं ज़्यादा व्यापक है। सुप्रीम कोर्ट देश में लोकतंत्र को बरकरार रखने के रास्ते में आने वाली हर बाधा को दूर करना चाहता है। वह इसके लिए राजनीतिक दलों को ही नहीं, सत्तारूढ़ दलों की कृतज्ञता के तले सही-गलत फैसले करने वाले आयोग को और अपनी मूल भूमिका से अलग होते जा रहे मीडिया को भी आड़े हाथों लेने से नहीं हिचकता।

सवाल यह है कि क्या वास्तव में वह हो पाएगा जो इस अहम फ़ैसले के पीछे सुप्रीम कोर्ट की मंशा है? चुनाव आयोग के कामकाज की पारदर्शिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 2018 में कई याचिकाएं दायर की गई थीं। कोर्ट ने इन तमाम याचिकाओं को क्लब कर पांच जजों की संविधान पीठ को रेफ़र कर दिया था। चार साल बाद 18 नवंबर 2022 को संविधान पीठ ने सुनवाई शुरू की थी। सुनवाई के दौरान भी संविधान पीठ ने सरकार से कई गंभीर सवाल किए थे। कोर्ट ने यह भी कह दिया था कि हर सरकार अपनी हां में हां मिलाने वाले व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त नियुक्त करती है। कोर्ट ने यह भी कहा था देश को टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की ज़रूरत है।

ऐसे में- जहां एक ओर नगालैंड जैसे राज्य में जीबी परंपरा के तहत एक ही व्यक्ति पूरे परिवार या गांव का वोट डाल सकता है, और सत्तारूढ़ गठबंधन वाली भाजपा या चुनाव आयोग को कोई आपत्ति नहीं होती, हिमाचल प्रदेश में चुनाव की तारीखें घोषित करने के बाद गुजरात में चुनाव तय करने के आयोग के फ़ैसले पर उठे सवालों पर वह कोई सटीक जवाब नहीं दे पाता, वहीं दूसरी ओर सत्तारूढ़ बड़े नेताओं के चुनावी दौरों में हेट स्पीच पर तमाम सबूतों के बावजूद वह कोई पाबंदी या रोकथाम नहीं लगा पाता, यह मानना कि महज सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले से देश की राजनीतिक सत्ता तक पहुंच बनाने वाली व्यवस्था को बदल दिया जाएगा, खुशफहमी से ज्यादा कुछ और नहीं हो सकता। यह जरूर है कि सुप्रीम कोर्ट ने देश में संविधान के मूल्यों की रक्षा के लिए इसी संविधान के तहत उसे दिए गए अधिकारों और कर्तव्यों का पालन करते हुए अपना दायित्व निभाया है। अब देश यह जानना चाहता है कि न्यायपालिका की इस पहल पर कार्यपालिका, विधायिका और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया का क्या रुख़ रहता है।


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