Top
Begin typing your search above and press return to search.

बांध तो नहीं रुका, लेकिन क्या आंदोलन भी असफल रहा

दुनिया भर में दशकों से विनाशकारी बुनियादी ढांचों और औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ जनांदोलन खड़े होते रहे हैं

बांध तो नहीं रुका, लेकिन क्या आंदोलन भी असफल रहा
X

- आशीष कोठारी

एक बांध के रूप में 'एसएसपी' अपने सभी व्यवधानों और दुष्प्रभावों के साथ आगे बढ़ा अपने इस उद्देश्य में आंदोलन विफ ल हो गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आंदोलन ही 'विफल' था। इसे इस तरह लेबल करना उपरोक्त सभी क्षेत्रों में इसके योगदानों को कम आंकना और अनदेखा करना है। दुनिया भर के अन्य लोगों के असंख्य संघर्षों के बारे में भी यही कहा जा सकता है, जो अपनी तात्कालिक खोज में सफ ल हो भी सकते हैं और नहीं भी।

दुनिया भर में दशकों से विनाशकारी बुनियादी ढांचों और औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ जनांदोलन खड़े होते रहे हैं। जब से आर्थिक विकास के अपवित्र देवता ने लगभग हर देश को अपनी गिरफ्त में लिया है, भूमि हड़पने के पुराने औपनिवेशिक चेहरे और 'बेदखली के जरिये संचय' ने अपना रूप बदल लिया है। अब यह 'विकास' के वेश में आ रहा है जो कि 'सभी के कल्याण' के लिए है, लेकिन हजारों जगहों पर जिन लोगों की भूमि और संसाधनों को खनन, एक्सप्रेस-वे, उद्योगों, बिजली स्टेशनों, शहरी विस्तार, हवाई अड्डों, खेल परिसरों और इसी तरह के अन्य कार्यों के नाम पर हड़पा जा रहा है,उन्होंने अपना अनवरत विरोध जारी रखा है।

1980 के दशक के मध्य से नर्मदा घाटी भारत के सबसे प्रतिष्ठित और विश्व स्तर पर प्रसिद्ध जनांदोलनों में से एक, 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' (एनबीए) का केंद्र रही है। पिछले लगभग 40 वर्षों से इस आंदोलन ने नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर बड़े बांधों की एक श्रृंखला के बारे में सवाल उठाए हैं और उन्हें रोकने की कोशिश की है। इस आंदोलन के अग्रदूत पहले ही 1970 के दशक से प्रस्तावित (या निर्माणाधीन) बड़े.बांधों के बारे में सवाल उठाने वाले समूहों के रूप में मौजूद थे। 1985 से इनकी एक अधिक व्यापक, सामूहिक आवाज उठने लगी थी। आंदोलन नर्मदा पर प्रस्तावित नर्मदासागर, ओंकारेश्वर और महेश्वर जैसे अन्य बड़े.बांधों तक भी फैलाए, लेकिन गुजरात में 'सरदार सरोवर बहुउद्देश्यीय परियोजना' (एसएसपी) पर सबसे पहले नजर गई।

'एसएसपी' के प्रतिकूल प्रभावों के खिलाफ 'एनबीए' ने हजारों लोगों को संगठित किया। हालांकि यह अंतत: निर्माण को रोकने में सफल नहीं हुआ पर इसने आज तक लोगों के पुनर्वास की विफ लताओं, निचले क्षेत्र में होने वाले प्रभावों और इसके सिवाय अन्य कई मुद्दों को उठाना जारी रखा है। परियोजना और आंदोलन पर सैकड़ों किताबें, शोधपत्र और दस्तावेज उपलब्ध हैं, कई फिल्में भी हैं। आंदोलन के सबसे उल्लेखनीय अभिलेखों में से एक है, प्रतिभागियों का मौखिक इतिहास, जिसे कई वर्षों तक 'एनबीए' कार्यकर्ता रहीं नंदिनी ओझा संकलित कर रही हैं।

मैं यहां बांधों और उनके खिलाफ विरोध के विशिष्ट पहलुओं की चर्चा नहीं करूंगा, बल्कि उन विविध आख्यानों पर बात करूंगा जिनसे आंदोलन ने जन्म लिया या फिर से उसे मजबूत किया। बांधों का निर्माण बंद किया गया या नहीं, इस तात्कालिक मुद्दे से परे जाकर जब कोई इन्हें समझता है तभी इस सवाल का पर्याप्त उत्तर मिल सकता है : नर्मदा पर बांधों के खिलाफ आंदोलन विफ ल हुआ या सफ ल? दुनिया भर में विनाशकारी परियोजनाओं के खिलाफ हजारों संघर्षों के बारे में भी यही सवाल पूछा जा सकता है, इसलिए जब मैं एक आंदोलन पर ध्यान केंद्रित करता हूं तो लगता है कि इन प्रतिबिंबों का व्यापक अर्थ है।

'एनबीए' ने 'एसएसपी' की एक वृहद् तस्वीर लोगों के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की और यह इसकी एक बड़ी उपलब्धि रही। भारत और दुनिया में ऐसा शायद ही कहीं हुआ हो। 1920 के दशक से शुरू होकर बांधों के खिलाफ कई जनान्दोलन हुए हैं। सबसे पहले यह महाराष्ट्र में हुआ, पर ये सभी एक या दो मुद्दों पर केन्द्रित थे, मसलन लोगों के विस्थापन और पर्यावरणीय विनाश पर। नर्मदा घाटी के आन्दोलन ने कई मुद्दों पर गौर किया। 'एसएसपी' पर बहस को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने में इस स्तर का अध्ययन और दस्तावेजीकरण निस्संदेह महत्वपूर्ण था। इसने भारत और विदेशों के अन्य हिस्सों में बड़े बांधों से संबंधित आलोचनाओं को प्रेरित किया।

उल्लेखनीय है कि इस आंदोलन ने कई अन्य आख्यानों को भी निर्मित या मजबूत किया जिनका राष्ट्रीय और वैश्विक महत्व रहा है। इसने भारत में मेगा.हाइड्रो और सिंचाई परियोजनाओं के खिलाफ विभिन्न लोगों के विरोध और आलोचनाओं को एकजुट करने और दुनिया भर के ऐसे अन्य संघर्षों में शामिल होने लायक बनाया। तब से भारत में कई प्रस्तावित बड़े बांधों को खत्म कर दिया गया है, हालांकि हाल के कुछ वर्षों में उनके निर्माण के लिए फिर से जोरदार कोशिश की जा रही है, विशेष रूप से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में।

महत्व इस बात का भी है कि इसने विश्वबैंक जैसी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय वित्तपोषक एजेंसियों को प्रेरित किया कि वह बांधों के पारिस्थितिक और सामाजिक प्रभावों के संबंध में सुरक्षा तंत्र स्थापित करने पर गंभीरता से विचार करे। 'एसएसपी' के मामले में विश्वबैंक को धन वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि 'एनबीए' और उसके समर्थकों ने बांध के प्रतिकूल प्रभावों के कई साक्ष्य पेश किए। 'इंटरनेशनल रिवर्स नेटवर्क' जैसे संगठनों के साथ मिलकर आंदोलन ने 'विश्व बांध आयोग' की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

'एनबीए' के गठन से कुछ साल पहले, 1983 में मैंने नर्मदा नदी के किनारे 50 दिनों की यात्रा में हिस्सा लिया था, जिसके अंत में हमने 'नर्मदा घाटी विकास परियोजना: विकास या विनाश' शीर्षक से एक रिपोर्ट निकाली थी। इस पर हमारा दृष्टिकोण निश्चित रूप से उन आर्थिक उपायों पर उठाये गए अतीत के सवालों से भी प्रभावित था जो भारत जैसे देश को अपनाने चाहिए। ये गांधी, टैगोर, गांधीवादी अर्थशास्त्री कुमारप्पा, आदिवासी.स्वदेशी कार्यकर्ताओं और अन्य प्रसिद्ध लोगों द्वारा उठाये गए सवाल थे।

1985 के बाद 'एनबीए' और इसके समर्थकों ने इसे एक प्रमुख राष्ट्रीय और वैश्विक मुद्दा बना दिया। उनका सवाल था: यदि किसी परियोजना से इस तरह के पारिस्थितिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवधान पैदा हों तो क्या यह 'विकास' के नाम के योग्य है? ऐसा विकास जो सबके हित के लिए होता है,् क्या ऐसा लेनदेन स्वीकार्य है, जहां कुछ लोग दूसरों के लाभ के लिए अपने घर और आजीविका को खो देते हैं? क्या ऐसी प्रक्रिया टिकाऊ है, अगर यह उन पारिस्थितिक बुनियादों को ही नष्ट कर देती है जिन पर अर्थव्यवस्था निर्मित हुई है?

केवल बांधों पर ही नहीं, बल्कि अन्य विनाशकारी 'विकास' परियोजनाओं पर आंदोलनों के एकजुट होने और अपनी संकीर्ण 'सीमाओं' से बाहर राष्ट्रीय या वैश्विक दृष्टिकोण की ओर जाने में मदद मिली है। जमीनी स्तर पर दर्जनों संघर्षों को एक मंच पर लाने के लिए 'जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय' (नेशनल एलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स, एनएपीएम)का गठन इसका कारगर उदाहरण है। 'एनएपीएम' विनाशकारी विकास को चुनौती देने के साथ-साथ कई क्षेत्रों में अधिनायकवाद, धार्मिक घृणा और प्रतिगामी नीतियों जैसे अन्य मुद्दों को लेकर भी लगभग तीन दशकों से सक्रिय है।

'संघर्ष और निर्माण' के अपने नारे के साथ, 'एनएपीएम' ने मुख्यधारा के विकास के लिए मौलिक, प्रणालीगत विकल्पों की आवश्यकता की ओर भी इशारा किया है। उस सबका विरोध किया है जो 'विकास' की नींव के साथ ही सूक्ष्म रूप से जुड़ा हुआ है एवं जिसमें पूंजीवाद, पितृसत्ता और जातिवाद वगैरह शामिल हैं। एनबीए ने स्वयं भी कुछ जमीनी विकल्पों के साथ प्रयोग किया है, जैसे कि सूक्ष्म-पनबिजली परियोजनाएं और अपनी 'जीवनशालाओं' के माध्यम से बच्चों को शिक्षा के अवसर। इस विषय को बाद में 'विकल्प संगम' जैसे राष्ट्रीय मंचों द्वारा भी उठाया गया।

एनबीए जैसे आंदोलन निर्णय लेने की राजनीति पर भी सवाल उठाते हैं: कौन तय करता है, किसके लिए और किस प्रक्रिया के द्वारा' क्या यह लोकतंत्र है, जब निर्णय दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में लिए जाते हैं और जिनमें शायद ही कभी उन लोगों को शामिल किया जाता है जो इन फैसलों से प्रभावित होते हैं। इस मुद्दे को उठाकर और लोगों को एक आंदोलन में भाग लेने का अनुभव देकर एनबीए ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लोकतंत्र की उस धारणा को चुनौती दी है जो शक्ति, ज्ञान, विशेषज्ञता और एजेंसी को राज्य और उसके अंगों के हाथों में रख देती है।

एक आंदोलन के व्यापक प्रभावों को, जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, कभी भी सटीक तरीके से मापा नहीं जा सकता। एनबीए ने विनाशकारी परियोजनाओं के खिलाफ और कितने आंदोलनों को प्रेरित किया होगा? कितने अन्य समुदायों को प्रतिरोध में खड़े होने और जीवन को प्रभावित करने वाले मामलों में आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित किया होगा? क्या हम यह जान सकते हैं कि इसका महत्व अब से कुछ वर्षों या दशकों बाद क्या हो सकता है? वैश्विक 'दक्षिण, में उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के शुरुआती दिनों में क्या कोई भविष्यवाणी कर सकता था कि एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्यास्त होगा?

दुखद है कि एक बांध के रूप में 'एसएसपी' अपने सभी व्यवधानों और दुष्प्रभावों के साथ आगे बढ़ा अपने इस उद्देश्य में आंदोलन विफ ल हो गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आंदोलन ही 'विफल' था। इसे इस तरह लेबल करना उपरोक्त सभी क्षेत्रों में इसके योगदानों को कम आंकना और अनदेखा करना है। दुनिया भर के अन्य लोगों के असंख्य संघर्षों के बारे में भी यही कहा जा सकता है, जो अपनी तात्कालिक खोज में सफ ल हो भी सकते हैं और नहीं भी. लेकिन ये विनाश और अन्याय की ताकतों को चुनौती देना और समानता, स्थिरता एवं न्याय के रास्ते पर चलना दूसरों के लिए आसान बनाते हैं।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं। कल्पवृक्ष संस्था से जुड़े हैं। )


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it