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2005 के आतंकी हमलों से भी ज्यादा भयावह है बांग्लादेश की मौजूदा अराजकता

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के पड़ोसी बांग्लादेश की आजादी के 53 साल के इतिहास में हिंसा और अराजकता कोई नई बात नहीं है। वहां दो बार तख्ता पलट हो चुका है

2005 के आतंकी हमलों से भी ज्यादा भयावह है बांग्लादेश की मौजूदा अराजकता
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नई दिल्ली। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के पड़ोसी बांग्लादेश की आजादी के 53 साल के इतिहास में हिंसा और अराजकता कोई नई बात नहीं है। वहां दो बार तख्ता पलट हो चुका है। इसके अलावा शेख हसीना से पहले एक और मौके पर प्रधानमंत्री (काजी जफर अहमद, दिसंबर 1990) को देश छोड़कर भागना पड़ा था।

मौजूदा समय में देश अराजकता के जिस दौर से गुजर रहा है, वह कम से कम इस सदी की सबसे खराब स्थिति है - 2005 के आतंकी हमलों से भी खराब, जब आधे घंटे के भीतर 300 स्थानों पर हुए बम विस्फोट ने बांग्लादेश को दहला दिया था।

करीब एक महीने से जारी आरक्षण विरोधी आंदोलन के हिंसात्मक होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना 5 अगस्त को पद से इस्तीफा देने के बाद अपना देश छोड़कर भारत चली आईं। लेकिन उनके इस्तीफे के बाद बाद भी देश में हिंसा समाप्त नहीं हुई। उल्टा इसमें और तेजी आ गई। अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं, को निशाना बनाया गया। उनके घरों और मंदिरों में तोड़फोड़ की गई। कई लोगों की जानें गईं और कई अन्य घायल हो गए।

अराजकता की इस स्थिति ने एक बार फिर 17 अगस्त 2005 की याद लोगों के जेहन में ताजा कर दी। उस दिन बांग्लादेश के 64 जिलों में से 63 में 300 स्थानों पर आधे घंटे के भीतर लगभग 500 बम विस्फोट हुए। राजधानी ढाका में सरकार के सचिवालय, सुप्रीम कोर्ट परिसर, प्रधानमंत्री कार्यालय, ढाका विश्वविद्यालय परिसर, ढाका शेरेटन होटल और जिया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास भी विस्फोट हुए। बम धमाकों में कम से कम 115 लोग घायल हो गए। इसके बाद पूरे देश में अराजकता फैल गई। आतंकवादी संगठन जमातुल मुजाहिदीन बांग्लादेश ने हमलों की जिम्मेदारी ली थी।

आज की स्थिति इसलिए खतरनाक है कि हिंसा का दौर आधे घंटे तक सीमित नहीं है। करीब दो महीने से यह जारी है। इसमें अराजकता फैलाने वाले चंद आतंकवादी नहीं, बल्कि देश के आम लोग हैं। देश के बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच जो दरार बढ़ी है, उसे पाटने में शायद दशकों का समय लगे।

यूं तो शेख हसीना की सरकार के खिलाफ लोकतंत्र समर्थक समूहों ने पिछले कुछ वर्षों में कई आंदोलन किए, लेकिन जिस आंदोलन ने उन्हें प्रधानमंत्री का पद और देश छोड़ने को विवश कर दिया उसकी शुरुआत जून में हुई। वर्ष 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के रिश्तेदारों को नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण को पुनः बहाल करने के फैसले से छात्रों को लगा कि उनका हक छीना जा रहा है।

उन्होंने आंदोलन शुरू कर दिया। धीरे-धीरे आरक्षण के विरोध में शुरू हुआ आंदोलन सरकार विरोधी हो गया। स्थानीय समाचार पत्र डेली स्टार की रिपोर्ट के अनुसार, 5 अगस्त तक आरक्षण और सरकार विरोधी हिंसा में कम से कम 93 लोगों की मौत हो गई थी। आखिरकार शेख हसीना को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।

प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बाद उसी रात छात्र नेता नाहिद इस्लाम ने देश में अंतरिम सरकार के गठन और नए सिरे से चुनाव की घोषणा की, लेकिन इससे हिंसा में कोई कमी नहीं आई। बांग्लादेश हिंदू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल और बांग्लादेश पूजा उद्दीपन परिषद द्वारा 9 अगस्त को जारी आंकड़ों के अनुसार, उस तारीख तक सरकार पतन के बाद 52 जिलों में अल्पसंख्यक समुदायों पर कम से कम 205 हमले हुए थे।

इसी बीच, 8 अगस्त को अंतरिम सरकार ने शपथ ग्रहण किया। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया। बांग्लादेश में नियम है कि प्रधानमंत्री का पद रिक्त होने की स्थिति में मुख्य सलाहकार के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनती है, जिसकी देखरेख में 90 दिन के भीतर चुनाव होते हैं।

स्थानीय मीडिया की मानें तो अराजकता के मौजूदा हालात में भ्रष्टाचार और बेरोजगारी बढ़ गई है। रोजमर्रा की जरूरत की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसे में अंतरिम सरकार पर न सिर्फ देश में चुनाव कराकर लोकतंत्र बहाल करने की जिम्मेदारी है, बल्कि उसके समक्ष मौजूदा हालात को काबू में करने और चुनाव के लिए देश में शांतिपूर्ण माहौल बनाने की बड़ी चुनौती भी है।


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