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संयुक्त विपक्ष की विश्वसनीयता का संकट भी बरकरार है

राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (राकांपा) सुप्रीमो शरद पवार का वह बयान जिसमें वे कहते हैं कि विवादास्पद कारोबारी गौतम अदानी पर हमला किया जाना निरर्थक है

संयुक्त विपक्ष की विश्वसनीयता का संकट भी बरकरार है
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- डॉ. दीपक पाचपोर

राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (राकांपा) सुप्रीमो शरद पवार का वह बयान जिसमें वे कहते हैं कि विवादास्पद कारोबारी गौतम अदानी पर हमला किया जाना निरर्थक है। इसकी बजाय देश की मूलभूत समस्याओं पर बात होनी चाहिये। ऐसे वक्त में जब नागरिकों के सामने यह साफ हो चला कि देश की ज्यादातर मौजूदा समस्याओं की जड़ में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है।

एक ओर तो विपक्षी दलों की मंशा है कि वे भारतीय जनता पार्टी की सत्ता के खिलाफ एकजुट होकर अगले साल होने वाले लोकसभा के चुनावों में अपनी सरकार बनायें, वहीं दूसरी ओर ऐसी मंशा रखने वाले या जिनसे ऐसा किये जाने की अपेक्षा है, उन नेताओं द्वारा ही एकता की राह में कांटे बोये जा रहे हैं। इससे भाजपा के खिलाफ विपक्ष की संयुक्त लड़ाई न केवल कमजोर व धूमिल पड़ती जा रही है, वरन प्रतिपक्ष की विश्वसनीयता भी संकट में आ रही है। लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर किस भरोसे पर विपक्ष का साथ दिया जाए। सच तो यह है कि विपक्ष को भी एक साझा ताकत बनने की भरोसेमंद कोशिशें करनी होंगी।

ताज़ा उदाहरण है राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (राकांपा) सुप्रीमो शरद पवार का वह बयान जिसमें वे कहते हैं कि विवादास्पद कारोबारी गौतम अदानी पर हमला किया जाना निरर्थक है। इसकी बजाय देश की मूलभूत समस्याओं पर बात होनी चाहिये। ऐसे वक्त में जब नागरिकों के सामने यह साफ हो चला कि देश की ज्यादातर मौजूदा समस्याओं की जड़ में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है, अदानी पर हमला न करने की सलाह देकर पवार ने एक तरह से उसी बेढंगे विकास के मॉडल को समर्थन दिया है जिसे 'गुजरात मॉडल' के नाम से 2014 के पहले प्रचारित व पेश किया गया था तथा 2014 में सत्ता पाने के पश्चात मोदी सरकार ने क्रियान्वित ही कर दिया है। इसी के परिणामस्वरूप देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि की समस्याएं हैं। एक-एक कर देश की तमाम बहुमूल्य परिसम्पत्तियां गिनती के पूंजीपति मित्रों के हाथों कौड़ियों के मोल दी जा रही हैं।

उद्योगों व व्यवसायों के एकाधिकार के खिलाफ कांग्रेस ने ही सबसे पहले आवाज उठाई। पिछले साल 7 सितम्बर को प्रारम्भ की गई अपनी 'भारत जोड़ो यात्रा' में राहुल गांधी इसकी तरफ देश का ध्यान लगातार खींचते रहे। खुद को तथा अपनी पार्टी को पूंजी एवं औद्योगीकरण का पक्षधर बतलाते हुए वे साफ करते रहे कि वे देश के लाभदायी शासकीय उपक्रमों को चुनिंदा हाथों में समेट देने के खिलाफ हैं। 30 जनवरी, 2023 को कश्मीर की राजधानी श्रीनगर पहुंचते हुए उन्होंने मोनोपोली के विरूद्ध अपनी लड़ाई को जिस बिन्दु पर ले जाकर छोड़ा था, उसे वे वहां से खींचकर संसद के भीतर तक ले आये थे। यात्रा की समाप्ति के बाद उन्होंने लोकसभा में अपना जो ऐतिहासिक भाषण दिया था, उसमें उन्होने देश-दुनिया के सामने मोदी और अदानी के रिश्ते को पूरी तरह से बेनकाब किया था। उसी बीच आई हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने भी उसी बात की पुष्टि की जिसे राहुल कई अन्य तरीकों से कह रहे थे। हिंडनबर्ग रिपोर्ट एक तरह से राहुल के आरोपों की पुष्टि ही थी।

भारत में लोकतंत्र की स्थिति पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दिये गये एक भाषण से बौखलाई भाजपा सरकार ने एक मानहानि के मामले में गुजरात की एक निचली अदालत द्वारा सुनाई गई सजा के बहाने से राहुल की सांसदी छीन ली- उन्हें अपनी बात कहने का मौका दिये बगैर तथा ऊपरी अदालत में अपील करने के पहले ही। सभी जानते हैं कि राहुल की सदस्यता जो रद्द की गई और आनन-फानन में सरकारी आवास खाली करने का उन्हें जो नोटिस दिया गया, उसके मूल में आखिरकार अदानी से जुड़े प्रश्न ही तो हैं जो वे अपनी पैदल यात्रा के दौरान अप्रत्यक्ष रूप से एवं लोकसभा में साफ व सीधे शब्दों में उठाते आये हैं।

मोदी व अदानी के बीच रिश्तों से सम्बन्धित सवाल और यह जानकारी मांगना कि अदानी के पास शेल कम्पनियों से आये 20 हजार करोड़ आखिर किसके हैं, बेहद प्रासंगिक है। दरअसल इसका जवाब देश के आर्थिक प्रबंधन का ही पर्दाफाश करेगा जिसमें मोदी, अदानी, केन्द्र सरकार एवं भाजपा बेनकाब हो रही है; और अगर कोई इस पर सवाल न करने की सलाह देता है तो यह स्फटिक सा साफ हो जाता है कि वह किसके पक्ष में खड़ा है। आज भारत जिस बिन्दु पर खड़ा है और जिस पर उसका भवितव्य निर्भर है, वह यही सवाल तो है कि 'आखिर मोदी और अदानी के बीच रिश्ता क्या है?'

राकांपा नेता के इस सवाल का जवाब जानना हो तो विषय की तह में जाना होगा। यह तो सभी जानते हैं कि पवार कार्पोरेट जगत के प्रतिनिधि माने जाते हैं लेकिन देश जब ऐसे नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है जहां विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे अदानी के खिलाफ बहती हवाओं के सहारे कांग्रेस के साथ खड़ा हो रहा है, तब पवार का यह कहना कि 'पहले टाटा और अंबानी के खिलाफ बातें की जाती थीं, आज अदानी के विरोध में बातें हो रही हैं, जो अच्छा नहीं है। इससे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा।' उनका यह कहना भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि 'देश के सामने महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याएं आदि अदानी से अधिक महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिन पर पहले बातें होनी ज़रूरी हैं।' दरअसल राकांपा उन दलों में से एक है जिसे विपक्ष में होने के बाद भी कारोबारियों से अच्छा खासा पैसा चुनावी फंड के रूप में मिलता है।

फिलहाल तो महाराष्ट्र में उनकी सरकार (यानी महाविकास आघाड़ी की, जिसमें उनकी पार्टी, कांग्रेस व उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना का गठबन्धन है) पर उनके पास पैसे की कोई किल्लत नहीं है। इतना ही नहीं, वे चुनावों के लिये बड़ी राशि का जुगाड़ करने में भी सक्षम हैं। यह तो ठीक है कि वे अदानी पर कुछ न बोलें, जैसे कि कई अन्य दल भी खामोश हैं, परन्तु इस बात को खुला कहकर वे अदानी के पक्ष में खड़े हो गये हैं, जो यह दर्शाता है कि वे खुद का उद्योग जगत से रिश्ता बतलाने में हिचकिचाते नहीं हैं।एक ओर तो वे राहुल की यात्रा का समर्थन कर चुके हैं और अदानी मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों से उनके सदस्य कांग्रेस के साथ खड़े दिखाई देते हैं, उनके साथ सदनों का बायकॉट करते हैं तथा हर तरह के प्रदर्शनों में साथ देते हैं, दूसरी तरफ उनके नेता अदानी के पक्ष में बात कर एक तरह से मोदी के खेमे में जा खड़े होते हैं।

पवार का यह कहना भी विपक्षी एकता के प्रयासों के खिलाफ जाता है कि अदानी घोटाले की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की बजाय कोर्ट की ओर से जांच कराई जानी चाहिये। इसका कारण उन्होंने यह बतलाया कि समिति में तो भाजपा का ही बहुमत होगा और अदानी को जेपीसी क्लीन चिट मिल जायेगी। पवार के इस स्टैंड पर पार्टी के प्रवक्ता संजय राऊत कहते हैं कि इससे विपक्षी एकता पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यहां मसला विपक्षी एकता का नहीं, बल्कि साथ-साथ खड़े होते और दिखने का है क्योंकि अब जनता की यह इच्छा और अपेक्षा है कि संयुक्त प्रतिपक्ष का चेहरा जल्दी साकार हो जो 2024 में मोदी का विकल्प बने। इस यात्रा के पहले तक विपक्षी गठबन्धन के नेतृत्व का जो सवाल उठता था, अब वह भी हल होता दिख रहा है पर ये जो नये मामले हो रहे हैं वह प्रतिपक्ष की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।

लोग आखिरकार कैसे भरोसा करें कि चुनाव जीतने के बाद ये विपक्षी दल कांग्रेस या किसी एक दल अथवा नेता के पीछे एकमुश्त खड़े रहेंगे और भाजपा सरकार या मोदी के बरक्स कोई विकल्प प्रस्तुत कर सकेंगे। इस परिस्थिति में लोगों के दिल से यह डर निकाला जाना भी मुश्किल है कि अगर गैर भाजपायी गठबन्धन की सरकार बनती भी है तो वह लम्बे समय तक नहीं चल सकेगी। जनता की इसी आशंका को तो भाजपा भुनाती है और बतलाती है कि टिकाऊ सरकार देना उसके विरोधियों के बस की बात नहीं है। लोगों का भरोसा तभी जीता जा सकेगा जब भाजपा की सरकार को हटाने का विश्वास दिलाने वाले नेता और पार्टियां पहले लोगों के सामने यह तो प्रदर्शित करें कि उनकी भाषा एक है। लोगों में बात उतरनी चाहिये कि वे सारे मिलकर एक सामूहिक विमर्श गढ़ रहे हैं और उसके बल पर एक साथ आगे बढ़ रहे हैं। ज़रूरी है कि विपक्ष भी साख अर्जित करे- स्वतंत्र इकाइयों के रूप में; और सामूहिक तौर पर भी।

(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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