देश जो 'सब' का था, अब 'कुछ' का होकर रह गया है
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा जनवरी की 22 तारीख़ को तमाम वीआईपियों की मौजूदगी में अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के जरिये देश में रामराज्य की स्थापना किये अभी एक महीना ही हुआ है

- डॉ. दीपक पाचपोर
ट्रेनों को लेकर जैसा सरकार व खासकर मोदी का नज़रिया है, वैसा ही रेलों में काम करने वालों का भी हो गया है। जैसे सुरक्षा पर्यवेक्षक ने एक किसान को मेट्रो ट्रेन में चढ़ने से रोका, वह रेलवे के इसी परिवर्तित नज़रिये का नतीज़ा है। अब तो लोग मानने लगे हैं कि सामान्य लोगों के लिये असुविधाजनक ट्रेनें हैं और मेट्रो, तेजस, वंदे भारत, बुलेट ट्रेनें विशिष्ट लोगों के लिये हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा जनवरी की 22 तारीख़ को तमाम वीआईपियों की मौजूदगी में अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के जरिये देश में रामराज्य की स्थापना किये अभी एक महीना ही हुआ है और उधर कर्नाटक के राजाजीनगर मेट्रो स्टेशन पर जो कुछ हुआ उसने बता दिया है कि देश अब किसका है। इस स्टेशन पर एक किसान को इसलिये मेट्रो ट्रेन में चढ़ने नहीं दिया गया क्योंकि उसने गंदे कपड़े पहन रखे थे और सिर पर एक गठरी थी। यह घटना बताती है कि जो देश कभी हर किसी का हुआ करता था अब थोड़े से लोगों का होकर रह गया है। कहने को तो बेंगलुरु मेट्रो रेल कार्पोरेशन लिमिटेड ने यह कहकर उक्त पर्यवेक्षक को नौकरी से बर्खास्त कर दिया है कि 'मेट्रो एक समावेशी सार्वजनिक परिवहन है।' हालांकि निगम ने उक्त यात्री से माफी मांग ली है पर यह घटना बतलाती है कि कई तरह की गैरबराबरियों वाले इस देश में किसी की माली हालत देखकर भेदभाव करने की प्रवृत्ति भी बढ़ चली है। समाज की यह बदलती मानसिकता इसलिये घातक है क्योंकि इससे एक और प्रकार के सामाजिक विभाजन की जमीन तैयार होती दिखती है।
अगर एक मोटा अंदाजा लगाएं तो यह पर्यवेक्षक सम्भवत: उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिसे जाहिर है कि मोटी तनख्वाह मिलती होगी। यह उस खाये-पिये-अघाये वर्ग का बंदा है जिसके पास होम लोन के जरिये अपना मकान होना चाहिये, अपने वाहन की किश्तें पटाने के लिये पैसे होंगे ही। पत्नी भी कमाती होगी, बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते होंगे। यह वह वर्ग है जिसके पास बैंक बैलेंस भी होगा, कर्मचारी प्राविडेंट फंड का पैसा जमा हो रहा होगा। सम्भव है कि शेयरों में भी ज़रूर कुछ निवेश कर रखा होगा। वैसे इसमें कोई बुराई नहीं है। होना भी चाहिये। ये सारे कयास ही हैं परन्तु जो बात साफ है वह यह कि उसने हाल के वर्षों में अपने जैसों या कुछ ऊपर-नीचे वाली स्थिति के लोगों से घृणा करना सीख लिया है। बेशक, यह मानसिकता पिछले 10 वर्षों की देन है। मोदी ने जनसामान्य को भी आडंबर और दिखावे की आदत लगा दी है। भव्यता एवं विलासिता में डूबे लोग अब इस देश को भाने लगे हैं। वे अब सादगी पसंद लोगों को देश के कर्णधार नहीं मानते बल्कि उनकी पसंद के लोग धन्ना सेठ, सिने कलाकार और लकदक ढंग से रहने वाले नेता हैं। यही वह वर्ग है जिसे कोरोना काल में सैकड़ों किलोमीटर धूप में भूखे-प्यासे पैदल चलने वाले मजदूरों व गरीबों की परेशानियां नहीं दिखी थीं बल्कि उन्हें इनकी गंदगी चिंतित करती थी। यह वर्ग मोदी का इसलिये मुरीद है क्योंकि वे किसानों के आंदोलन को कुचलना जानते हैं, श्रम कानूनों को कारखानेदारों और बड़े व्यवसायियों के पक्ष में बदल रहे हैं।
भारत को 5 ट्रिलियन इकानॉमी वाला देश बनने का बेसब्री से इंतज़ार करने वाला यह वर्ग मानता है कि गरीबों, किसानों, मजदूरों, महिलाओं को मिलने वाली सब्सिडी को खत्म कर देना चाहिये क्योंकि ये खैरात, मुफ्तखोरी और रेवड़ियां हैं। वे इस तरह की बातें अपने प्रेरणा स्रोत यानी नरेन्द्र मोदी के श्रीमुख से हमेशा सुनते आए हैं। इसी भरोसे पर उन्होंने मोदी को वोट दिया था कि वे ये सारे बेकार के खर्च बन्द कर देंगे। अलबत्ता उन्हें इस बात से कोई उज्र नहीं है कि बड़े फ्रॉडस्टर सरकारी बैंकों का पैसा लेकर भाग जाते हैं। उनके लिये यह भी कोई मसला नहीं है कि लोगों के पास रोजगार नहीं है। पेट्रोल-डीज़ल, गैस, उपभक्ता वस्तुओं के बढ़ते दाम उन्हें कतई परेशान नहीं करते। वे मानते हैं कि कीमतें बढ़ना समृद्धि की निशानी है। जब बात प्याज, लहसुन की बढ़ती कीमतों पर आ जाती है तो वे यह कहकर दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं- 'मैं तो प्याज नहीं खाता (ती) जी!'
मोदी ने दरअसल यही हिन्दुस्तान बनाया है। 85 करोड़ लोगों को 5 किलो राशन पर निर्भर करते मोदी का रहन-सहन देखें तो रईसजादों से कम नहीं है। वे दिन में तीन-चार बार कपड़े बदलते हैं. करोड़ों की कार और हवाई जहाज में घूमते हैं। महंगे चश्मे और पेन से सुसज्जित मोदी ने कभी कहा था कि 'वे ऐसा देश बनाएंगे, जिसमें हवाई चप्पल वाले हवाई जहाजों में घूमते हुए दिखेंगे।' ऐसा तो हो नहीं पाया, उल्टे अब हवाई चप्पल वालों को मेट्रो में भी चढ़ने नहीं दिया जा रहा है।
यह मामला ट्रेन का है, तो उसी की बात कर ली जाये। मोदी ने ट्रेन यात्राओं को इस कदर महंगा कर दिया है कि उससे यात्रा करने के पहले कोई सौ बार सोचता है। मोदी की दिलचस्पी ट्रेन में सुधार करने और लोगों की सहूलियतें बढ़ाने में नहीं वरन महंगी ट्रेनें चलाने में है। बुलेट ट्रेन, तेजस, वंदे भारत ट्रेनों का हाल देखा जा सकता है। रेलवे के सारे संसाधन यदि ऐसी ट्रेनों में लगा दिये जायें तो जाहिर है कि सामान्य ट्रेनों के लिये उसके पास पैसे नहीं रह जायेंगे। वैसे भी रेल प्रशासन की वरीयता अब पैसेंजर नहीं बल्कि मालवाही ट्रेनें हो गई हैं। कोयला लादकर चलने वाली ट्रेनों को पहले रास्ता दिया जाता है ताकि निजी पावर प्लांट बंद न हो जायें और उनके मालिकों को घाटा न हो। इसके चलते देश भर की ट्रेनें अक्सर विलम्ब से चलती हैं। पंद्रह-बीस मिनट देर से नहीं वरन अब तो घंटे-दो घंटे की लेटलतीफ़ी भी मामूली बात बनकर रह गई है। ट्रेनों को लेकर जैसा सरकार व खासकर मोदी का नज़रिया है, वैसा ही रेलों में काम करने वालों का भी हो गया है। जैसे सुरक्षा पर्यवेक्षक ने एक किसान को मेट्रो ट्रेन में चढ़ने से रोका, वह रेलवे के इसी परिवर्तित नज़रिये का नतीज़ा है। अब तो लोग मानने लगे हैं कि सामान्य लोगों के लिये असुविधाजनक ट्रेनें हैं और मेट्रो, तेजस, वंदे भारत, बुलेट ट्रेनें विशिष्ट लोगों के लिये हैं।
ऐसे में अगर कोई सुरक्षा पर्यवेक्षक एक किसान को गंदे कपड़े देखकर उसे मेट्रो में चढ़ने से रोकता है तो आश्चर्य ही क्या? यह कला तो आखिर मोदी ने ही सिखाई है- कपड़े देखकर किसी को पहचान लेना। ये कपड़े ही एक भारत के भीतर दूसरा भारत बना चुके हैं; और इसके निर्माता स्वयं मोदी हैं। मोदी के कार्यक्रमों को देखें और उनकी उठ-बैठ जिन लोगों के साथ है, वे सारे उस भव्य लोक में विचरण करने वाली आत्माओं की तरह हैं जिन्होंने देश में ऐसी मायानगरी रची है जिसे देखकर किसी को भी देश के सम्पन्न और खुशहाल होने का आभास हो सकता है।
यही वह चमक है जिसके पीछे 85 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का स्याह सच छिप जाता है। इस पर भी अगर वह नहीं छिपता तो मोदी उसे पर्दे या दीवार की आड़ लगाकर ऐसे छिपा देते हैं कि उन रास्तों से गुजरने वाले विदेशी मेहमानों को इस बात की भनक तक नहीं लग पाती कि इस देश में गरीब भी रहते हैं, किसान हैं, मजदूर हैं, भूखे लोग हैं। देश को सम्पन्न दिखलाने का उत्तरदायित्व अब सामूहिक हो गया है। सरकार के सारे संस्थान, विभाग और उनकी कृपा पर चलते सारे निजी उपक्रमों को भी देश के बारे में यही धारणा बनाने की जिम्मेदारी दे दी गई है कि वे सब मिलकर एक ऐसा देश प्रस्तुत करें जिसमें गरीबों के लिये कोई जगह नहीं है- मेट्रो तो दूर की बात है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


