नीट और नालंदा के बीच उलझा देश
एनडीए की सरकार गठित होने और नरेन्द्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के साथ ही उद्घाटनों का सिलसिला भी शुरु हो गया है

- सर्वमित्रा सुरजन
आज भले हम कहते रहें कि नालंदा आक्सफोर्ड से भी पुराना विश्वविद्यालय है। लेकिन ज्ञान का दरिया तो तभी तक जिंदा रहता है, जब तक वह निर्बाध, अविरल बहता रहे। आक्सफोर्ड हो या हार्वर्ड, ये पुराने विश्वविद्यालय अब तक विश्व में श्रेष्ठ इसलिए माने जाते हैं कि यहां शिक्षा को राजनीति की बिसात के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया। लेकिन भारत में अब ऐसा हो रहा है।
एनडीए की सरकार गठित होने और नरेन्द्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के साथ ही उद्घाटनों का सिलसिला भी शुरु हो गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने 19 जून को बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय के नए परिसर का उद्घाटन किया और यहां एक बोधि वृक्ष का पौधा भी रोपा। भारत की ऐतिहासिक धरोहरों में जिन नामों का हमेशा उल्लेख होता है, नालंदा उनमें से एक है। इतिहासकारों के मुताबिक साल 427 में गुप्त साम्राज्य के सम्राट कुमार गुप्त ने इसकी स्थापना की थी। 13वीं शताब्दी यानी 800 से अधिक वर्षों तक यहां विश्वविद्यालय संचालित होता रहा। यह दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय माना जाता है। नालंदा मगध काल में एक प्रसिद्ध बौद्ध महाविहार भी था। बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा शिक्षण केंद्र था। नालंदा विश्वविद्यालय में करीब 10 हजार छात्र पढ़ते थे, जिनके लिए 1500 अध्यापक हुआ करते थे। अधिकतर छात्र एशियाई देशों जैसे चीन, कोरिया , जापान, भूटान से आने वाले बौद्ध भिक्षु थे। जो औषधिविज्ञान, तर्कशास्त्र, गणित और बौद्ध सिद्धांतों के बारे में अध्ययन करते थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने 7वीं शताब्दी में नालंदा की यात्रा की थी। जब ह्वेन त्सांग 645 ईसवी में चीन लौटे तो वे अपने साथ नालंदा से 6 सौ से अधिक बौद्ध धर्मग्रंथों को लेकर गए थे। जिनमें से अधिकतर का उन्होंने चीनी में अनुवाद भी किया था। नालंदा में एक अति समृद्ध पुस्तकालय भी था। जब कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनापति बख्तियार खिलजी ने 12वीं सदी में नालंदा पर आक्रमण कर इसे तहस-नहस किया, तो कहा जाता है कि पुस्तकालय को आग लगा दी और यह आग कई महीनों तक धधकती रही। अब इस दावे में कितनी सच्चाई है, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि किसी आपदा को अतिरंजना के साथ पेश करना इंसानी फितरत है। लेकिन फिर भी यह तो तथ्य है ही कि एक ऐतिहासिक विश्वविद्यालय राजनीति का शिकार होकर खंडहर में बदल गया।
आज भले हम कहते रहें कि नालंदा आक्सफोर्ड से भी पुराना विश्वविद्यालय है। लेकिन ज्ञान का दरिया तो तभी तक जिंदा रहता है, जब तक वह निर्बाध, अविरल बहता रहे। आक्सफोर्ड हो या हार्वर्ड, ये पुराने विश्वविद्यालय अब तक विश्व में श्रेष्ठ इसलिए माने जाते हैं कि यहां शिक्षा को राजनीति की बिसात के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया। लेकिन भारत में अब ऐसा हो रहा है। इसलिए नालंदा विश्वविद्यालय के पुन: उद्घाटन पर खुशियां तो अवश्य मनाई जानी चाहिए, लेकिन इसके साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में उभर चुकी विसंगतियों से मुंह फेर लेंगे तो ये खुशियां भी चंद दिनों की मेहमान बनकर रह जाएंगी।
प्रधानमंत्री मोदी नालंदा को किस तरह राजनीति के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, इसकी मिसाल उनके भाषण में ही मिल जाती है, जब उन्होंने कहा कि मुझे तीसरे कार्यकाल की शपथ ग्रहण करने के बाद पहले 10 दिनों में ही नालंदा आने का अवसर मिला है। ये मेरा सौभाग्य तो है साथ ही मैं इसे भारत की विकास यात्रा के एक शुभ संकेत के रूप में देखता हूं। श्री मोदी ने कहा कि नालंदा एक पहचान है, एक सम्मान है। नालंदा एक मूल्य है, मंत्र है, गौरव है, गाथा है। नालंदा इस सत्य का उद्घोष है कि आग की लपटों में पुस्तकें भले जल जाएं, लेकिन आग की लपटें ज्ञान को नहीं मिटा सकतीं। ये नया कैंपस, विश्व को भारत के सामर्थ्य का परिचय देगा। नालंदा बताएगा कि जो राष्ट्र, मजबूत मानवीय मूल्यों पर खड़े होते हैं, वो राष्ट्र इतिहास को पुनर्जीवित करके बेहतर भविष्य की नींव रखना जानते हैं।
इस भाषण में मूल्य, मंत्र, इतिहास, भविष्य, गौरव, गाथा, भारत का सामर्थ्य जैसे शब्दों को भली-भांति फेंटा गया है, लेकिन इसके बावजूद यह समझ नहीं आया कि किन मानवीय मूल्यों की बात श्री मोदी कर रहे हैं। नालंदा विश्वविद्यालय का नया परिसर कितने हजार करोड़ में बना और यहां कितने सभागार हैं, कितनी जमीन पर बागीचा है, ये सारी बातें दोयम हैं। पहला सवाल तो यह है कि आखिर इस विश्वविद्यालय में क्या केंद्र सरकार उस स्तर की शिक्षा विद्यार्थियों को उपलब्ध करा पाएगी, जिसके लिए नालंदा का नाम दुनिया भर में फैला था। क्या यहां के छात्र खुलकर तर्क-वितर्क कर पाएंगे, क्या यहां उस पोंगापंथ पर लगाम कसी जाएगी, जो इस समय अधिकतर उच्च शिक्षण संस्थानों में बौद्धिकता के नाम पर बढ़ चुका है।
देश के अनेक नामी विश्वविद्यालयों को पिछले 10 सालों में कई कठिनाइयों से गुजरना पड़ा है और यहां हुई राजनैतिक नियुक्तियों के कारण शिक्षकों और छात्रों दोनों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नाम आते ही अब जेहन में विवाद शब्द आ जाता है, क्योंकि यहां कभी छात्रों पर टुकड़े-टुकड़े गैंग का ठप्पा लगाया गया, कभी नकाबपोशों ने यहां हमला किया, कभी मेस में आमिष और निरामिष भोजन पर संघर्ष हुआ तो कभी यहां के छात्रों के उन्मुक्त व्यवहार को चर्चा का विषय बनाया गया। इन मुद्दों के आगे पढ़ाई का माहौल, छात्रों को मिलने वाली सुविधाएं, संसाधन, छात्रवृत्ति, शोध की व्यवस्था, स्नातकोत्तर के लिए कम होती सीटें, स्थायी अध्यापकों की जगह तदर्थ नियुक्तियां, ऐसे कई जरूरी सवाल दरकिनार हो गए। कमोबेश यही स्थिति बाकी विश्वविद्यालयों की भी हो चुकी हैं। सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान जामिया मिलिया इस्लामिया विवि के पुस्तकालय में घुसकर किस तरह छात्रों के साथ मारपीट की गई थी, वो दृश्य लोगों को याद रखना चाहिए। अलीगढ़ मुस्लिम विवि से लेकर हैदराबाद और जाधवपुर विवि तक उच्च शिक्षा केंद्र विवादों के अड्डे बनते रहे। आईआईटी, आईआईएम जैसे नामी संस्थानों में हाल ऐसा ही हो गया है।
इसके अतिरिक्त परीक्षा के पेपर लीक का मुद्दा हो या व्यापमं और नीट जैसे घोटाले, शिक्षा के क्षेत्र में व्यापार और मुनाफे के नाम पर की जा रही धांधलियां रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं। अभी जिस बिहार में नरेन्द्र मोदी नालंदा विवि का उद्घाटन करने पहुंचे, उसी बिहार में पटना विवि केन्द्रीय विवि का दर्जा पाने की राह एक अरसे से देख रहा है। अगर इसे केन्द्रीय विवि बना दिया जाता तो बिहार के हजारों छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए दूसरे राज्यों में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार ऐसी महत्वपूर्ण बातों को अक्सर नजरंदाज कर देती है।
इस पूरे चुनाव में पेपर लीक एक बड़ा मुद्दा बना और कांग्रेस ने इसमें बाकायदा युवाओं को न्याय दिलाने की बात कही थी। लेकिन भाजपा ने इसे कभी मुद्दा नहीं माना और संयोग ऐसा था कि जिस दिन चुनावी नतीजे आए, उसी दिन एनआईआईटी यानी नीट के नतीजे भी आए, जिसमें बड़ी धांधली का खुलासा हुआ। परीक्षा से पहले ही कुछ बच्चों को पेपर मिल गए थे, एक ही केंद्र से एक जैसे अंक कई बच्चों को हासिल हुए। जब इस धांधली पर सवाल उठे तो नए शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने बिना जांच के ही फैसला सुना दिया कि कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है। जहां नीट आयोजित कराने वाली नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) से शीर्ष अदालत ने कई तीखे सवाल किए। साथ ही कहा कि अगर नीट परीक्षा में 0.001 फीसदी भी लापरवाही हुई है तो उससे निपटा जाना चाहिए। कांग्रेस नीट में हुई धांधली को लेकर 21 जून को देशव्यापी विरोध प्रदर्शन करने जा रही है।
विपक्ष में बैठी कांग्रेस के लिए इस तरह के कदम उठाना स्वाभाविक है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार इस बारे में क्या करेगी। मध्यप्रदेश में हुए व्यापमं घोटाले में न्याय अब तक नहीं हुआ है, बल्कि इस प्रक्रिया में हुई कई संदिग्ध मौतों के बाद धीरे-धीरे इस पर चर्चा होना ही बंद हो गई। किसी हादसे या घोटाले के बाद अगर सत्ताधारी दल को फिर से जीत मिल जाए तो इसका मतलब ये नहीं है कि इंसाफ भी मिल गया है। लेकिन अब ऐसी ही रवायत चल पड़ी है। नीट में सुप्रीम कोर्ट के दखल के बावजूद परीक्षाओं में धांधली होना खत्म हो जाएगा, यह दावा नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अब तक नीट मामले को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की है। नालंदा पहुंच कर ज्ञान और इतिहास की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले श्री मोदी जेएनयू से लेकर रोहित वेमुला और व्यापमं से लेकर नीट तक अगर दो वाक्यों का बयान दे सकें और देश को यह आश्वस्ति दें कि इतिहास में जिन राजनैतिक कारणों से नालंदा जैसे उच्च शिक्षा केंद्र को नष्ट कर दिया गया, वैसा वे अपने शासनकाल में किसी विश्वविद्यालय के साथ नहीं होने देंगे। शिक्षा को राजनीति और व्यापार का केंद्र नहीं बनने देंगे, तभी इस बात पर यकीन किया जा सकेगा कि श्री मोदी ने वाकई नालंदा को मंत्र, गौरव और गाथा माना है। वर्ना 2013 में श्री मोदी नालंदा के साथ तक्षशिला को भी बिहार का गौरव बता ही चुके हैं।


