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सतपुड़ा के बदलते गांव और किसानी

आजकल की शहरी चमक-दमक और तामझाम की दुनिया में हमारे गांव और खेती-किसानी की बातें पीछे छूट गई हैं

सतपुड़ा के बदलते गांव और किसानी
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- बाबा मायाराम

आजकल की शहरी चमक-दमक और तामझाम की दुनिया में हमारे गांव और खेती-किसानी की बातें पीछे छूट गई हैं। लेकिन मैं तो गांव का हूं, और जहां भी जाता हूं, वह साथ रहता है। असल में हम जहां खड़े होते हैं, वहीं से देश-दुनिया को देखते हैं, वही हमारा नजरिया बन जाता है। इस लिहाज गांव महत्वपूर्ण है। आज के इस कॉलम में गांवके अनुभव साझा करना चाहूंगा, जिससे हमें पुराने गांवों की झलक मिल सके, जो अब काफी बदल गए हैं।

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ( अब नर्मदापुरम) जिले में मेरा गांव है। इस गांव में रहकर ही मैंने हाईस्कूल तक की शिक्षा पूरी की। प्राथमिक स्कूल गांव में था। माध्यमिक स्कूल ढाई किलोमीटर औऱ हाईस्कूल 7 किलोमीटर दूर था। माध्यमिक स्कूल पैदल जाता था और हाईस्कूल जाने के लिए साइकिल थी।

यह चार दशक पुरानी बात है। उस समय न तो गांवों में ज्यादा मोटर साइकिलें हुआ करती थीं, और न ही ट्रेक्टर। वह जमाना टीवी-चैनलों का भी नहीं था। पक्के (सीमेंट-कंक्रीट) मकान भी कम थे। मिट्टी के मकान ही थे। गांव में सड़कें नहीं थीं और ना ही नल। गांव में कुएं हुआ करते थे,पनघट पर भीड़ होती थी, बाल्टियों की खट-पट होती थी।

हमारे गांव में अलग-अलग जातियों के मोहल्ले थे। अधिकांश लोगों की आजीविका खेती और पशुपालन पर आधारित थी। लेकिन बड़ी संख्या मजदूरों की थी, जो खेतों में मजदूरी करते थे। मेरे पिता भी एक छोटे किसान थे, हालांकि मैंने खुद खेत में काम नहीं किया, पर थोड़ी बहुत उनकी मदद जरूर करता था।

अगर हम इस जिले को भौगोलिक दृष्टि से दो भागों में बांटे तो एक सतपुड़ा की जंगल पट्टी है और दूसरा है नर्मदा का कछार। सतपुड़ा की जंगल पट्टी में मुख्य रूप से आदिवासी निवास करते हैं। नर्मदा कछार में कृषक जातियां निवास करती हैं। हालांकि कई मिश्रित गांव भी हैं। हमारा गांव मिश्रित था,और मैदानी क्षेत्र में है। हालांकि वहां से सतपुड़ा पहाड़ ज्यादा दूर नहीं है।

मैं छुटपन से ही किसानों के बीच रहा। उनके बीच पला-बढ़ा, उठा बैठा, बोला बतियाया। आड़ी-टेढ़ी पगडंडियों से गुजरा। खेत-खलिहानों में गया। उनके दुख-दर्द को सुना। वे कैसे रहते हैं, खेतों में कब जाते हैं, वहां क्या करते हैं, क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं। क्या बोलते बताते हैं, क्या सोचते हैं,यह सब सुना समझा है। इसलिए बाद में मैंने लेखन में कृषि को प्रमुखता दी।

मेरे पिता किसान थे, और वह खुद रोज खेत जाया करते थे। फसल होती थी, तब तो खेत जाना होता था, लेकिन जब खेत खाली रहते थे, तब भी खेत जाते थे। मेरे पूछने पर एक दिन उन्होंने बताया था कि वे खेत से बात करते हैं। यानी खेत जाने से उन्हें समझ आता था कि खेत में क्या काम करना है। अगर मेड़ बनानी है तो वह काम करते थे, खेत को फसल को तैयार करना होता था, तो वह काम करते थे। खेत से उनका गहरा आत्मिक लगाव था।

जब वे खेत में जाते थे, तो आसपड़ोस के किसान भी आ जाते थे। वे आपस में मिल बैठकर खेती-किसानी के अलावा, दुख-दर्द भी आपस में साझा करते थे। वे क्या सोचते हैं, क्या उनके सपने हैं, क्या करना चाहते हैं, सब कुछ बतियाते थे। पेड़ के नीचे या गलियों में आराम से बैठे देखकर अच्छा लगता था, क्योंकि उन्हें किसी बात की जल्दबाजी नहीं होती थी। उनकी जिंदगी धीरे-धीरे चलती थी। आज की जिंदगी सबसे तेज, सबसे आगे के मंत्र से संचालित है। जबकि धीरे चलना भी एक मूल्य की तरह है, जिसमें गांव जीते थे। इस समय दुनिया के कई देशों में स्लो मूवमेंट चल रहा है। यह एक सांस्कृतिक पहल है जिसमें आधुनिक जीवन की गति को कम करने की वकालत की गई है।

अगर किसान हल-बक्खर चलाते थे, तो बैलों का ख्याल रखा जाता था। बहुत देर होने या थकान महसूस करने पर मेड़ पर बैठ जाते थे, जिससे किसान के साथ बैलों को भी आराम मिल जाता था। खेत तैयार होने पर उनमें बीज छिड़कते थे, कुछ दिन में वे उग आते थे। हरा-भरा खेत देखकर मन भी हरा हो जाता था।

ठंड के दिनों में गेंहू में सिंचाई करनी होती थी, तो जागना पड़ता था। बीच-बीच में कच्ची नाली फूटी तो नहीं है, यह देखने जाना पड़ता था। अलाव के सहारे रात काटनी होती थी। यह सब उनके काम थे।

सुबह-सवेरे खेतों में चिड़ियों का झुंड धमकता था, कलरव होता था। आसपास के पेड़ों पर उनका घोंसला होता था। हम लोग उन्हें घास के तिनके चोंच में ला-लाकर घोंसला बनाते हुए देखते थे। पीली, भूरी चिड़ियाएं वहां आती थीं, और फुर्र से उड़ जाती थीं। उनके छोटे बच्चे भी वहां होते थे। हालांकि ज्वार के खेतों में किसान पक्षियों से परेशान भी रहते थे। वे उन्हें भगाने के लिए बिजूका भी लगाते थे। जबकि कुछ उन्हें चुगने के लिए पेड़ों पर फसलों की बालियां टांग देते थे। यानी उस जमाने की खेती में मनुष्य की भूख मिटाने के साथ जीव-जगत के पालन का विचार निहित था। ंसला होताा झं पर झुंड दिखता था। गोबर र मेड़ पर बैं,

मार्च के महीने में गेहूं कटाई होती थी। उन दिनों हमारा अस्थाई घर खेत में ही बन जाता था। रात में वहीं रहते थे। रहने के लिए ढबुआ (घास-फूस का छोटा सा घर) बनाया जाता था। रात में कटाई होती थी। खुले आसमान में तारे देखना, और बुजुर्गों से उनकी कहानी सुनना। गांवों में तारों को पहचानना, तारों टूटना, बिखरना और उससे मनुष्य के जीवन को जोड़कर देखना, सुंदर कल्पना होती थी। यहकिसानों का अपना तरीका होता था। तारों के स्थानीय नाम थे। हिन्नी (हिरण), खटोला ( चारपाई), यानी इस तरह दिखने वाले तारे।

रात में चंद्रमा की रोशनी में कटाई होती थी, तब बहुत ही सुंदर वातावरण होता था। हसिए से फसल कटाई की खर्र-खर्र आवाज आती थी। कभी कभी सियार की आवाजें सुनाई देती थीं।

उन्हीं दिनों महुआ बिनाई का काम होता था। सुबह-सवेरे महुआ बीनने जाते और सूरज निकलने से पहले घर आ जाते। आंगन में महुआ की खुशबू से वातावरणगुलजार होता था। अगर खेत में चना बोया होता था, तो हरे चने को भूनकर खाने में बड़ा मजा आता था। इसे होउरा कहते थे। होउरा खाने के लिए मेहमान, मित्र व परिचित खेत पर पहुंच जाते थे।

उस जमाने में किसान के घर का देसी बीज होता था यानी उसकी मुट्ठी में बीज होता था। पशुपालन होता था तो गोबर खाद होती थी, उसके घर के बैल होते थे, जिसे वह हल में जोतता था। खेत में किसान खुद मेहनत करता था। यानी इस खेती में लागत लगभग शून्य होती थी। मिट्टी की उर्वरक शक्ति भी बनी रहती थी।

उस समय खेती के कामों में लोग एक-दूसरे की मदद करते थे। अगर कोई बुजुर्ग हैं, अकेला है, या किसी के पास जुताई के लिए बैल नहीं है, तो पड़ोसी उनकी मदद करते थे। बारी-बारी से एक दूसरे का काम करने की अच्छी परंपरा थी। गांवों में लोग शाम के शाम बैठते थे, बतियाते थे। अगर कोई जरूरतमंद होता था, तो गांव के लोग हर संभव मदद करते थे।

आज आधुनिक रासायनिक खेती हो रही है। बैलों की जगह ट्रेक्टर से खेती हो रही है। संकर बीजों से हो रही है। संकर बीजों से होने वाली खेती ज्यादा पानी, ज्यादा रासायनिक खाद, ज्यादा कीटनाशक मांगती है। इससे लागत बढ़ जाती है और मिट्टी-पानी और पर्यावरण का प्रदूषण होता है। किसान कर्ज में डूब जाते हैं। और खुदकुशी भी करते हैं।

इसलिए हमें देसी बीजों वाली प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ना चाहिए। जिसमें बीज, खाद किसान का हो। जैव कीटनाशक वे खुद बना सकते हैं। खेतों के आसपास फलदार पेड़ लगाने चाहिए, जिससे मिट्टी पानी का संरक्षण हो,और कुछ आमदनी भी हो। देसी बीज स्वाद व पौष्टिकता में बेजोड़ भी होते हैं। खेती की लागत कम होती है, इससे जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण भी होता है।लेकिन क्या हम इस दिशा में बढ़ने को तैयार हैं?


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