उप्र में भाजपा की घमासान से खुली विकास की कलई
भारतीय जनता पार्टी की पराजय के कुछ संकेत कम से कम दो प्रमुख राज्यों- उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से मिल रहे हैं जहां भाजपा को लोकसभा चुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ा था

- लेखा रत्तनानी
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के बीच जबरन अलगाव ने चुनावों में कड़वाहट पैदा की है। यूपी के विपरीत जहां चुनाव के विश्लेषक खुशी-खुशी भाजपा की जीत का अनुमान लगा रहे थे। महाराष्ट्र में चुनाव से पहले ही पर्यवेक्षकों को यह स्पष्ट हो गया था कि भाजपा को बड़ा झटका लगेगा। वास्तव में यही हुआ।
भारतीय जनता पार्टी की पराजय के कुछ संकेत कम से कम दो प्रमुख राज्यों- उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से मिल रहे हैं जहां भाजपा को लोकसभा चुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ा था और जिसके कारण नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार अल्पमत सरकार का नेतृत्व करना पड़ा है, जो पार्टी द्वारा चलाए गए '400 पार' के अभियान से काफी कमतर है।
उत्तर प्रदेश में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने एक ऐसा बयान दिया है जिसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ विद्रोह नहीं तो कम से कम एक कदम तो माना ही जा रहा है। सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में मौर्य ने कहा कि 'संगठन सरकार से बड़ा है और पार्टी के कार्यकर्ता भाजपा का गौरव हैं।' ऐसा कहते हुए उन्होंने योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली और नौकरशाहों पर अत्यधिक निर्भरता के साथ उनके द्वारा प्रशासन चलाने को निशाने पर लिया है। नतीजतन, तर्क यह है कि पार्टी कार्यकर्ताओं को यह महसूस हो रहा है कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है या उनका काम नहीं हो रहा है और अधिकारी वर्ग हावी है- एक ऐसी शैली जिसे सीधे तौर पर आदित्यनाथ के काम करने की शैली और राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्य को नियंत्रित करने के तरीके के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर साझा किए गए एक वीडियो क्लिप में मौर्य ने एक सार्वजनिक बैठक में जोरदार तालियों के बीच कहा-'संगठन सरकार से बड़ा था, है और रहेगा। मैं खुद को पहले भाजपा का कार्यकर्ता और उसके बाद उप मुख्यमंत्री मानता हूं।'
मौर्य ने राज्य भाजपा प्रमुख भूपेंद्र सिंह चौधरी से मुलाकात की और फिर दोनों ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से भेंट की जिसके बाद चौधरी और प्रधानमंत्री के बीच बैठक हुई। ये सभी बैठकें एक के बाद एक हुईं। बयानों और बैठकों से एक स्तर पर योगी आदित्यनाथ के सरकार चलाने के तरीके से गंभीर असंतोष का संकेत मिलता है और दूसरी ओर यह इस चिंता का परिणाम है कि चुनाव में हार एक बार की बात नहीं है बल्कि पार्टी की छवि में गहरी गिरावट का संकेत है। फिर भी आदित्यनाथ को हटाना आसान नहीं होगा जो कुछ वर्गों के बीच बेहद लोकप्रिय भी हैं और जिसका जवाब अब एक सरल सा मुद्दा है- क्या यह लोकप्रियता केवल कागजों पर है या मुख्यमंत्री को उनकी वास्तविकता से बड़ा दिखाने के लिए वर्षों से बढ़ाई जा रही है? लोकसभा चुनाव ऐसा ही संकेत देते हैं- भाजपा ने 2019 के चुनावों में 62 से कम इस बार 33 सीटें जीतीं। इसलिए यूपी में 10 विधानसभा सीटों के लिए आगामी उपचुनाव एक कठिन लड़ाई होगी और यह यूपी और देश भर में इसके नतीजों को निर्धारित कर सकती है। यहां की प्रमुख सीटों में अखिलेश यादव का करहल निर्वाचन क्षेत्र और मिल्कीपुर (अयोध्या में) शामिल हैं जहां से सपा विधायक अवधेश प्रसाद ने फैजाबाद से आश्चर्यजनक जीत हासिल कर भाजपा को चित कर दिया। अयोध्या शहर फैजाबाद निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के बीच जबरन अलगाव ने चुनावों में कड़वाहट पैदा की है। यूपी के विपरीत जहां चुनाव के विश्लेषक खुशी-खुशी भाजपा की जीत का अनुमान लगा रहे थे। महाराष्ट्र में चुनाव से पहले ही पर्यवेक्षकों को यह स्पष्ट हो गया था कि भाजपा को बड़ा झटका लगेगा। वास्तव में यही हुआ। भाजपा-शिवसेना (शिंदे गुट)-नेशनल कांग्रेस पार्टी (अजित पवार गुट) के गठबंधन ने कुल 17 सीटें जीतीं जो 2019 के चुनावों में 48 में से जीती गईं 41 से कम हैं।
भाजपा ने इस बार 28 सीटों पर चुनाव लड़कर केवल नौ सीटें जीतीं वहीं कांग्रेस ने 17 सीटों पर लड़कर 13 सीटें जीतीं। भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ी पत्रिका 'विवेक' ने अब एक विश्लेषण पेश किया है जिसमें कहा गया है कि एकनाथ शिंदे, जो मुख्य शिवसेना पार्टी से अलग हो गए थे लेकिन जिन्हें 'असली' शिवसेना घोषित किया गया था, लोगों को स्वीकार्य थे। इसने कहा कि समस्या शरद पवार के भतीजे अजित पवार की अस्वीकार्यता से उत्पन्न हुई जिन पर पहले भाजपा ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और फिर उन्हें एक प्रमुख सहयोगी के रूप में भाजपा में शामिल कर लिया। एनसीपी के अजित पवार गुट को अब भाजपा में शामिल करने की समझदारी पर संदेह है। महाराष्ट्र में अजित पवार गुट के विधायकों के शरद पवार के पास वापस आने की अटकलें लगाई जा रही हैं। इस संकट के बीच यह विश्लेषण कितना सही है कि यह अजित पवार थे, न कि संपूर्ण सुव्यवस्थित ऑपरेशन जिसने उद्धव ठाकरे की (जो कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से सत्ता में थे) विधिवत निर्वाचित सरकार को गिरा दिया, जिसे लोगों द्वारा अस्वीकार्य माना जाता है?
कई मायनों में ये कुछ ऐसे सवाल उठाने की कोशिशें हैं जो समस्या कि जड़ तक नहीं पहुंचतीं और जो कि भाजपा का नैतिक दिवालियापन है। यह बात स्पष्ट हो गई है कि भाजपा की छवि एक ऐसी पार्टी के रूप में है जो किसी भी कीमत पर जीतने की होड़ में है, फिर चाहे वह धन-बल हो, हिंदुत्व की राजनीति हो या विपक्षी नेताओं को दबाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जांच एजेंसियां हों। यह आम नागरिक के सामने साफ है और भाजपा का यह मानना है कि वह नैरेटिव को फिक्स कर सकती है, हेडलाइन हासिल कर सकती है या स्टोरी को अपने पक्ष में मोड़ सकती है, ऐसा लगता है कि यह इस विश्वास और अनुमान से उपजा है कि वह हर समय सभी लोगों को मूर्ख बना सकती है। 2024 के चुनाव परिणामों ने पार्टी को बता दिया है कि वह बच नहीं सकती। फिर भी भाजपा आज भी सुनने से इनकार करती है; उसके चतुर तर्क और संदिग्ध रणनीति जारी है।
वास्तविकता यह है कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा द्वारा खेली गई सांप्रदायिक राजनीति ने उस तरह का लाभ देना बंद कर दिया है जैसा पहले देती थी। जहां राम मंदिर का जल्दबाजी में उद्घाटन किया गया था, उस फैजाबाद में हार भाजपा के लिए केवल बड़ी पराजय का रूपक नहीं है; यह उन सभी बातों पर तमाचा है जिनका भाजपा ने अपने कार्यकाल के दौरान समर्थन किया और जिन्हें आगे बढ़ाया- धर्म और राजनीति को मिलाने के उसके विचारों से लेकर विकास के उसके विचार तक, जिसने गरीबों को विकास की मुख्यधारा से बाहर धकेलकर एक नई किस्म की चकाचौंध और एक कथित महानता को अपनाया जिसके बारे में उसे लगा कि बाहरी लोगों और धनी वर्गों के आने से अयोध्या में उसका आगमन होगा। यह निश्चित रूप से गरीब विरोधी दृष्टिकोण व्यापक हो गया है और इसे भाजपा के अलावा हर कोई इसी रूप में देखता है। पार्टी ने भारत के 60 प्रतिशत लोगों को मुफ्त खाद्यान्न वितरण के साथ इस विमर्श को गढ़ने की कोशिश की है कि यह एक ऐसा दान है जो शीर्ष से नीचे उतरते विकास मॉडल को उजागर करता है। उसे ही बढ़ावा देने का उस पर आरोप है और जो भारत के लिए एक स्थायी विकास की कहानी नहीं बना सकता है।
(लेखक द बिलियन प्रेस की प्रबंध संपादक हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


