पेरिस ओलिम्पिक का खट्टा-मीठा समापन
फ्रांस की राजधानी पेरिस में 26 जुलाई को प्रारम्भ हुए 33वें ओलिम्पिक खेलों का समापन रविवार को हुआ

फ्रांस की राजधानी पेरिस में 26 जुलाई को प्रारम्भ हुए 33वें ओलिम्पिक खेलों का समापन रविवार को हुआ। 126 पदकों के साथ अमेरिका (40 स्वर्ण) प्रथम, चीन दूसरे तथा जापान तीसरे क्रमांक पर रहा। 140 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत ने पिछले टोक्यो ओलिम्पिक में कुल 6 मेडल पाये थे, लेकिन उसमें एक गोल्ड था। इस बार भी उसे कुल जमा 6 ही मिले- एक रजत और 5 कांस्य। उसका क्रमांक 71 रहा। छोटे-बड़े 62 देश ऐसे हैं जिन्हें कम से कम एक स्वर्ण पदक अवश्य मिला है। मनु भाकर एकमेव ऐसी खिलाड़ी रहीं जिन्होंने दो पदक पाये। एकमात्र रजत नीरज चोपड़ा को मिला जिन्होंने पिछली प्रतियोगिता में स्वर्ण जीता था। नीरज इस बार अपने परम्परागत प्रतिस्पर्धी अरशद नदीम (पाकिस्तान) से आगे भाला फेंक नहीं पाये। भारत के प्रदर्शन ने फिर साबित कर दिया कि खेल शक्ति बनने के लिये देश का आकार या जनसंख्या जिम्मेदार नहीं बल्कि सरकारों का रवैया, समाज का नज़रिया, खिलाड़ियों को मिलने वाला समर्थन व सम्मान, संसाधनों व सुविधाओं की उपलब्धता जैसे तथ्य मुख्य कारक होते हैं। पदक तालिका में शीर्ष पर खड़े अमेरिका की जनसंख्या भारत के मध्य वर्ग के बराबर भी नहीं है, तो वहीं दूसरे क्रमांक पर भारत से आकार में काफी छोटा जापान है। चीन तीसरे स्थान पर है जो भारत की ही तरह बड़ी आबादी तथा विशाल भूभाग वाला देश है।
जज़्बा- बस यही मायने रखता है। फिर चाहे वह देश का हो या खिलाड़ियों का। भारत में खिलाड़ियों के पास जज़्बा और काबिलियत तो है, लेकिन सरकारें निराश करती है। खेलों को गम्भीरता से लेने वाले राज्यों की संख्या गिनाने के लिये एक हाथ की उंगलियां भी काफी हैं। शेष औपचारिकता निभाते हैं और इस क्षेत्र को भी अपनी सियासत का अखाड़ा मानते हैं। सत्ता से जुड़े लोग खेल संगठनों पर काबिज हैं। जिस संगठन की सरकार से जितनी निकटता होगी वह सरकार से उतना ही अनुदान खींच लाता है शासन से सहूलियतें जुटाई जाती हैं, अध्ययन के नाम पर विदेशी दौरे होते हैं, प्रतियोगिताओं में खिलाड़ियों के अनुपात में बड़ा सा अधिकारियों का दल होता है। टूर्नामेंट के प्रदर्शनों का विश्लेषण नहीं होता, न ही खर्चों की समीक्षा होती है। ओलिम्पिक हों या कोई और स्पर्धा, लौटने पर खराब प्रदर्शन के लिये थोड़ी-बहुत शिकायतें होती हैं या आलोचना होती है, वह भी खिलाड़ियों की। सरकारें, खेल संगठन एवं अधिकारीगण बच निकलते हैं। ऐसे राज्य जो ढंग के दो खिलाड़ी भी पैदा नहीं करते, वे खेल मंत्रालय से करोड़ों रूपये उठा लाते हैं। जिन कथित पिछड़े राज्यों में खिलाड़ियों को विकसित करने की असीम सम्भावना होती है वहां के खिलाड़ी और संगठन पाई-पाई को तरसते हैं।
खैर, ये वे ही पुरानी बातें हैं जो पिछले हर ओलिम्पिक के बाद भारत में कही और दोहराई जाती हैं। इस बार के ओलिम्पिक ने तो यह बताया है कि लोगों में सरकार अगर भेद-भाव और नफ़रत के बीज बो दे तो उसकी कंटीली शाखाएं हर जगह पर उग आती हैं। इसके कारण खेल का क्षेत्र कैसा विषाक्त बन जाता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण पेरिस ओलिम्पिक भारत को दिखा गया। देश का प्रतिनिधित्व करने वाली विनेश फोगाट ने एक ही दिन में कुश्ती के तीन मुकाबले जीत लिये थे और स्वर्ण पदक पहुंच में था। अंतिम मुकाबले के पहले उनका वजन 100 ग्राम अधिक पाया गया। बाहर हो गईं।
ये वही विनेश हैं जिन्होंने कुश्ती महासंघ के तत्कालीन अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ इस आरोप के साथ मोर्चा खोला था कि ब्रजभूषण द्वारा उनके समेत कई महिला पहलवानों का उत्पीड़न किया गया है। इसे लेकर देश भर के पहलवानों एवं महिला सम्मान के पक्ष में खड़े लोगों ने दिल्ली और कई जगहों पर प्रदर्शन किये थे। दिल्ली में इनके साथ पुलिस ज्यादतियां भी हुईं। विनेश के साथ साक्षी मलिक, बजरंग पुनिया आदि विशेष प्रताड़ित किये गये। ब्रजभूषण को उनके गोड्डा लोकसभा क्षेत्र से इसी प्रकरण के चलते इस बार टिकट नहीं दिया गया था, लेकिन उनके पुत्र करण भूषण सिंह जीत आये। अपने खिलाफ़ चले आंदोलन की रत्ती भर परवाह न करते हुए ब्रजभूषण पहले भी कह चुके थे- 'दबदबा है और दबदबा रहेगा।' 55 किलो केटेगरी में खेलने वाली विनेश को क्यों 50 किलोग्राम श्रेणी में उतारा गया और कैसे दल के पास खान-पान विशेषज्ञों के रहते उनका वजन बढ़ा, इसका जवाब भी उसी दबदबे में छिपा हुआ हो सकता है। उसकी ओर विनेश ने पहले ही अंदेशा जताया था कि 'उनके साथ कुछ भी हो सकता है'। घोर निराशा में विनेश ने संन्यास की यह कहकर घोषणा कर दी- 'मैं हार गई, कुश्ती जीत गयी।' पेरिस ओलिम्पिक के दौरान हुए इस घटनाक्रम ने भारत से उसकी एक शानदार पहलवान को छीन लिया। ब्रजभूषण के समर्थक और नफ़रतियों की बांछें खिल गईं तथा वे अपनी ही खिलाड़ी के खिलाफ हो गये। घृणा जो न कराये सो थोड़ा!
वैसे नफ़रत व वर्चस्व भाव से हुई इस घटिया हरकत के बीच प्रेम व खेल भावना की ठंडी बयार भी पेरिस से चलकर भारत और पाकिस्तान तक पहुंची है। नीरज की मां सरोज देवी ने अपने बेटे के रजत को ही गोल्ड बताया और कहा कि 'गोल्ड जिसका है वह भी हमारा बेटा है।' ऐसे ही सरहद पार बैठी अरशद की मां रज़िया परवीन ने नीरज की जीत के लिये यह कहकर दुआएं की थीं 'वह अरशद का भाई व मित्र होने के नाते उनका बेटा है।' देश हाल के वर्षों में काफी कुछ गंवा चुका है लेकिन दो कथित दुश्मन देशों के खिलाड़ियों की प्रतिस्पर्धा में कटुता की बजाये उठी गर्मजोशी जब दो मांओं के दिलों से आशीषें बरसाने वाली घटना बनी, तो लगा कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। भारत के लिये पेरिस ओलिम्पिक का यही प्रतिफल है- कुछ खट्टा है, कुछ मीठा है।


