Top
Begin typing your search above and press return to search.

सरदार सरोवर की जन्मगाथा

शुरुआत तो हुई 1959 में जब महाराष्ट्र्र और गुजरात एक होकर बॉम्बे सरकार थी

सरदार सरोवर की जन्मगाथा
X

- मेधा पाटकर

नर्मदा 1312 किलोमीटर लंबी बहती नदी और किनारे बसे पहाड़, जंगल ही नहीं, गांव- नगर, लाखों परिवार, उनकी पीढ़ियों की जीवनगाथा और चलती आजीविका...खेती, मजदूरी, वनोपज, मत्स्य व्यवसाय, या कोई कारीगरी की जटिलता और घाटी के संसाधनों पर निर्भरता, विशेष हकीकत रही। इस पर बड़े बांध से आने वाली डूब के और अन्य असरों के अध्ययनों के बिना ही फैसला आया, यह हकीकत स्पष्ट होती है।

शुरुआत तो हुई 1959 में जब महाराष्ट्र्र और गुजरात एक होकर बॉम्बे सरकार थी। नर्मदा पर 'नवागाम बांध', पहले दौर में 162 फीट ही ऊंचा बनाने का प्रस्ताव हुआ और उसे बढ़ाकर दूसरे दौर में 300 फीट तक ले जाने का! जल संसाधन और विद्युत मंत्रालय ने 320 फिट तक बढ़ाकर सौराष्ट्र और कच्छ तक सिंचाई पहुंचाने का प्रस्ताव, सलाहकार समिति की सिफारिश पर मंजूर किया। पहले दौर के निर्माण प्रस्ताव के बाद दूसरे दौर में 625 मेगावाट बिजली निर्माण भी संभव माना था।
1 मई 1960 को महाराष्ट्र- गुजरात स्वतंत्र राज्य बनने के बाद 1963 में केंद्रीय मंत्री डॉ. के. एल. राव ने 425 फिट का नवागाम बांध और पूरा लाभ गुजरात को तथा 850 पूर्ण जलाशय स्तर का पुनासा बांध (आज का इंदिरा सागर!) और उससे लाभों का बंटवारा मध्यप्रदेश और गुजरात में 2:1 मंजूर करवाया; 'भोपाल अनुबंध' के रूप में। मध्यप्रदेश शासन ने बाद में इसे नामंजूर करके विवाद उठाया और खारिज करवाया। इसके बाद शुरू हुआ आंतरराज्य विवाद, जिसके निराकरण के लिए इंदिरा गांधी ने गठित किया ट्रिब्यूनल, जो 1969 से 1979 तक चला। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र, दोनों राज्यों ने 10 साल तक गुजरात में नर्मदा पर बड़ा बांध बनाने का विरोध दर्ज किया! मध्यप्रदेश में चला सर्वदलीय निमाड़ बचाओ आंदोलन!

दिसंबर 1979 में आंतरराज्य नर्मदा ट्रिब्यूनल याने जल विवाद न्यायाधिकरण का फैसला आया, जो परियोजना के विविध पहलू और असरों के अध्ययन पूरे करे बिना, विवाद के निराकरण का निर्णय था। 10 सालों के कार्यकाल में न्यायाधिकरण के सदस्यों ने नर्मदा घाटी की मुलाकात ली, वह मात्र शूलपाणीश्वर, हापेश्वर और कोटेश्वर मंदिरों तक सीमित थी, न ही किसी विस्थापित होने वाले गांव या परिवार की। महाकाय योजना को दी मंजूरी और साहूकारी भी बिना अध्ययन!

नर्मदा 1312 किलोमीटर लंबी बहती नदी और किनारे बसे पहाड़, जंगल ही नहीं, गांव- नगर, लाखों परिवार, उनकी पीढ़ियों की जीवनगाथा और चलती आजीविका...खेती, मजदूरी, वनोपज, मत्स्य व्यवसाय, या कोई कारीगरी की जटिलता और घाटी के संसाधनों पर निर्भरता, विशेष हकीकत रही। इस पर बड़े बांध से आने वाली डूब के और अन्य असरों के अध्ययनों के बिना ही फैसला आया, यह हकीकत स्पष्ट होती है।

राष्ट्रीय स्तर पर 1993 में ही, विस्थापितों के अधिकार डुबाते हुए धकेले जाते बांध के विरोध में 1985 से शुरू हुए सतत सत्याग्रह, उपवास आदि के बाद नर्मदा आंदोलन से एक विशेष चुनौती दी गई, जलसमाधि घोषित होकर! उसके पहले 1988 का धरना और रैलियां, 1989 में 80 किलोमीटर चले आदिवासी और वाहनों से पहुंचे मध्यप्रदेश के निमाड़वासियों की हजारों की संख्या में बांधस्थल पर गिरफ्तारी हुई थी। 1990 में बाबा आमटे जी के साथ दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास पर सत्याग्रह और बहुगुणाजी, सुगथा कुमारी जैसे की उपस्थिति में चर्चा; मुंबई के 8 दिन के उपवास के बाद शरद पवार जी का बांध स्थल पर पहुंचकर गुजरात और महाराष्ट्र के अधिकारियों सहित बैठक और पुनर्वास के बिना बांध आगे न बढ़ने देने की घोषणा... सब हो चुका था। 1990 में ही 5000 विस्थापितों का पैदल जनविकास मार्च और उस पर हुए दमन के साथ 21 दिनों का उपवास देश और दुनिया से सहयोग पा चुका था! फिर भी डूब का खतरा, पहाड़ी आदिवासियों पर छाते हुए जब जल समाधि का निर्णय लिया गया, तभी योजना आयोग के उपाध्यक्ष जयंतराव पाटिल जी की अध्यक्षता में बना 'पांच सदस्यीय समूह' जो जल संसाधन मंत्रालय के प्रमुख सचिव रहे रामस्वामी अय्यर, अर्थशास्त्री एल. सी. जैन, वसंत गोवारीकर, कुलंदै स्वामी जैसे आंदोलन और शासन से प्रस्तावित मान्यवरों का था। दोनों पक्षों की सुनवाई और प्रस्तुतियों के बाद उनका भी निष्कर्ष रहा, सरदार सरोवर के नियोजन में अधूरापन और लाभों के गलत दावों का 100 साल में 75 नहीं, मात्र 61 साल ही भर सकता है जलाशय पूर्ण और शायद मिल सकते हैं, अपेक्षित लाभ; यह कहते हुए पर्यावरणीय और सामाजिक हानिपूर्ति याने पुनर्वास के भी अधूरे नियोजन पर कड़े सवाल उठाने वाली उनकी रिपोर्ट शासकों को स्पष्ट चेतावनी देती रही!

गुजरात के आग्रह पर, बांध को आगे बढ़ाने का निर्णय जब भारतीय शासकों ने लिया, तब विस्थापितों का आंदोलन सर्वोच्च अदालत तक पहुंच गया और 1994 से 2000 तक चली सुनवाई, भूतपूर्व विधिमंत्री शांतिभूषण और अधिवक्ता प्रशांत भूषण के द्वारा, केंद्र शासन के तमाम वरिष्ठ अधिवक्ताओं के आमने सामने! याचिका प्रस्तुत होने के बाद भी बांध की उंचाई 69 मीटर से 80 मीटर तक बढ़ाने का निर्णय शासन ने, 'अनैतिक' मानी गई प्रक्रिया से जाहिर करने पर, डूबग्रस्त होने के खतरे को चुनौती दी, आंदोलनकारियों के 26 दिनों के उपवास से। इसी दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में 16 दिसंबर 1994 के रोज मध्यप्रदेश विधानसभा में सर्वदलीय प्रस्ताव पारित हुआ, सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ने न देने का! जब सर्वोच्च अदालत में सर्व समावेशक याचिका में सुनवाई हुई तब मई 1995 से 1999 तक रोका गया सरदार सरोवर का कार्य, 80 मीटर पर।

नर्मदा जैसी सालभर अविरल बहने वाली नदी और उसकी 41 उपनदियों की घाटी में बर्गी, तवा, सुक्ता जैसे 30 बड़े और 135 मझौले बांधो के तथा 3000 छोटे बांधों के निर्माण का 'नर्मदा घाटी विकास' का प्लान ब्राजील की अमेजॉन या फ्रांस की लाइर नदी घाटी के जैसी विशाल योजना तो थी ही! लेकिन 3000 छोटे बांधों को भूल सी गई थी शासन! जो बांध बने थे, उनके विस्थापितों से तथा लाभक्षेत्र के जलजमाव, नहर व्यवस्थापन जैसे सवालों के ऊपर उठी थी क्षेत्रीय आवाज.. फिर भी इंदिरा सागर, सरदार सरोवर इन दो महाकाय बांधों को बढ़ावा देने की प्रक्रिया में 1979 से 1985 तक विस्थापितों की पूर्ण संख्या का ही नहीं, सामाजिक- आर्थिक- सांस्कृतिक धरोहर और अधिकारों का भी शोध नहीं हुआ महाराष्ट्र ने 1990, 1992 से लेकर 2004 तक कई आदेश निकाले! वनगावों में वनजमीन कसते आए आदिवासियों को हक मिला पुनर्वास का। 'टापू' में आते आदिवासी फलियों में रहते आदिवासियों का भी पुनर्वास हुआ। लेकिन आज तक जारी है, संघर्ष और संवाद भी! करीबन 200 परिवारों को आधा-अधूरा हक मिला है।

जिन्हें नहीं मिली पूरी या सही भूमि, वे मूलगांव में नदी किनारे है, साल-साल डूब भुगतते हुए, डटे रहते! कुछ आदिवासी बुजुर्ग गुजर गये, हक मिलने के पहले... कुछ फंसे हुए हैं, गुजरात में आबंटित काश्त के लिए अनुपयोगी या अ-सिंचित जमीन पाकर! महाराष्ट्र का पहला मतदार जिस गांव में है, उस 'मणिबेली' के नाम से दुनिया के 2000 संगठनों ने पारित किया था प्रस्ताव, माद्रिद, स्पेन में विश्व बैंक की 50 साल पूर्ति पर उन्हें चुनौती देते हुए। आज भी मणिबेली में जो बचे हैं परिवार, वे भी 1993-94 में डूब भुगते थे और आज भी है, पहाड़ की चोटियों पर रहकर, पानी, बिजली, रास्तों की समस्या भुगतते!

मध्यप्रदेश में जो अन्याय भुगत रहे हैं, ऐसे कई आदिवासी, दलित, सभी समुदायों के प्रभावित, 1994 से पहाड़ी क्षेत्र में, तो मैदानी इलाके में 2000 से डूबग्रस्त होकर भी पुनर्वसित नहीं हैं। डूब की भूमि के बदले भूमि न दे पाने पर 60 लाख रुपए (5 एकड़ के बदले) देने के सुप्रीम कोर्ट के 2017 के आदेश के पालन के लिए सैकड़ों रुके हैं, विधवा, एकल महिलायें भी!

गुजरात में विवाद निराकरण ही उद्देश्य होते हुए, ट्रिब्यूनल का फैसला, उसमे निर्देशित पुनर्वास के प्रावधान भी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र के लिए रहे हैं, गुजरात के लिए नहीं! आखिर विश्व बैंक के दबाव से गुजरात को पारित करने पड़े कई आदेश, जिससे गुजरात में पुनर्वसित, गुजरात के या महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के (जिन्हें स्वेच्छा निर्णय का अधिकार है) विस्थापितों को भी ट्रिब्यूनल आदेश जैसे और अन्य अधिकार भी मंजूर हुए। उन्हें प्राप्त करने में भी आई समस्याएं-आबंटित भूमि, भूखंड या सुविधाओं संबंधी- जो आज तक भुगत रहे हैं, सैकड़ों आदिवासी! तीनों राज्यों में भूतपूर्व न्यायाधीशों को सदस्य बनाकर सर्वोच्च अदालत में आंदोलन की याचिका पर सुनवाई के दौरान जो गठित हुआ, वह शिकायत निवारण प्राधिकरण आज कैसा कमजोर साबित हो चुका है।

आज भी कभी नर्मदा घाटी के 7 बांध रद्द करना, फिर वर्षों बाद मंजूर घोषित करना हो रहा है। घाटी के ऊपरी बांधों को पर्यावरणीय शोध और मंजूरी के बिना आगे धकेलना जारी है। अनुसूचित जनजाति क्षेत्र में 'पेसा' कानून का उल्लंघन करके जारी है!

यह सब कुछ कानून, नीति के साथ जुड़ा अधिकार कुचलकर जब आगे बढ़ता है, तब देशभर के उजाड़े गये करोड़ों लोगों की (जिनमें 1985 के गृह मंत्रालय के अहवाल अनुसार 80 प्रतिशत से अधिक आदिवासी ही थे) जिंदगी बर्बाद होते देखने- जानने वाले तो चुप नहीं बैठ सकते! सरदार सरोवर के किसी भी प्रभावित को तात्कालिक या कायमी डूब से विस्थापित नहीं होने देना, और डूब के कम से कम 6 महीना पहले पुनर्वास पूरा करना, ऐसे कानूनी आदेश को हर न्यायिक आदेश में दोहराने पर भी सर्वोच्च न्यायालय की खुली अवमानना करने वालों पर कौन उठायेगा न्याय का डंडा ताकि बचेगा विकास के दायरे में भी संविधान का फंडा?

करोड़ों की पूंजी और अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा लगाकर, आशा रखते हैं राजनेताओं से मतदाता और कई कार्यकर्ता भी, 'जनप्रतिनिधित्व' में! प्रत्यक्ष में कौन से सवाल छुड़वा सकते हैं, विधानसभा और लोकसभा में भी? विस्थापितों का त्याग चाहने वाले उन्हें नहीं मानते 'पूंजी' निवेशक! अपना जल, जंगल, जमीन देने वाले, किसी खदानों के लिए अपनी धरा के नीचे सम्हाली खनिज संपदा को दान करने वाले, प्राकृतिक पूंजी का और परियोजना पर दिन-रात पसीना बहाने वाले श्रमपूंजी का निवेश ही करते हैं। मात्र वित्तीय पूंजी या हवाई माध्यमों से तकनीकी ज्ञान की पूंजी लगाने वालों को ही मानते हैं विकास नियोजक, विकाससाधक! कोई प्रश्न उठाते ही 'विकास- विरोधी' से लेकर 'अर्बन नक्सल' तक जाहिर करना, अब विकास को मंत्र बनाकर चल रही राजनीति के तहत चुनावी खेल होता है। उसे जीत-हार तक पहुंचाना हो, तो जरूरी है खुली सार्वजनिक बहस!
हमने कई बार दिया न्यौता,
जिसे नहीं स्वीकारता, कोई
सत्य छुपाने वाला नेता!


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it