देश को एक ही फ्रेम में फिट करने की मनमानी
वक्फ़ के नाम पर लाखों हेक्टेयर ज़मीन पूरे देश में है

- वर्षां भम्भाणी मिर्जा
'वक्फ़ के नाम पर लाखों हेक्टेयर ज़मीन पूरे देश में है। आज ईमानदारी से उसका उपयोग हुआ होता तो मेरे मुसलमान नौजवानों को साइकिल के पंक्चर बनाकर ज़िन्दगी नहीं गुज़ारनी पड़ती।' यह वाक्य प्रधानमंत्री के भाषण का वह हिस्सा है जो उन्होंने हरियाणा के हिसार में हवाई अड्डे के शिलान्यास के समय डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती के दिन 14 अप्रैल को दिया था। यह पहला मौका था जब वक्फ़ को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ बोले।
लगता है कि देश पर राज करने वालों ने अपने लिए एक फ्रेम बनवा ली है और फिर देश को हर हाल में उसी फ्रेम में फिट करने की ज़िद है, बिना इस बात की परवाह किये कि उनकी इस कोशिश में उसका मूल तत्व ही फ्रेम से छिटक रहा है, कट रहा है, टूट रहा है। यकायक यह कोशिश और तेज़ हो गई है। जैसे किसी राजा को यकीन दिला दिया गया हो गया हो कि ऐसा ना हुआ तो अनर्थ हो जाएगा। बेचैनी इन दिनों इस कदर बढ़ी है कि नागरिकों में डर बैठाया जा रहा है, खेमे बनाए जा रहे हैं। बस एक ही कोशिश कि बांटों बांटो और बांट दो! देश के कुछ हिस्से हिंसा की चपेट में हैं, निर्दोष नागरिक मर रहे हैं लेकिन चिंता बस फ्रेम की है। यह चिंता इतनी सघन और स्वनिर्मित है कि देश की जनता को मूल खतरों से आगाह ही नहीं किया जा रहा है। दुनिया की तमाम उथल-पुथल के बीच आर्थिक खतरों और मंदी की आशंका से देश को मज़बूत करने की बजाय वह अफीम दी जा रही है, जिसमें देश सब दर्द भूलकर बस नारे लगाने लगता है। नेताओं को यह लंद-फंद अब रास आ गया है। यह झूठ है तो फिर क्यों एक तरफ़ तो हवाई अड्डे का शिलान्यास होता है और दूसरी ओर वह बात छेड़ दी जाती है जिस पर जब बहस हुई तो सदन के नेता और नेता प्रतिपक्ष दोनों गायब थे।
'वक्फ़ के नाम पर लाखों हेक्टेयर ज़मीन पूरे देश में है। आज ईमानदारी से उसका उपयोग हुआ होता तो मेरे मुसलमान नौजवानों को साइकिल के पंक्चर बनाकर ज़िन्दगी नहीं गुज़ारनी पड़ती।' यह वाक्य प्रधानमंत्री के भाषण का वह हिस्सा है जो उन्होंने हरियाणा के हिसार में हवाई अड्डे के शिलान्यास के समय डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती के दिन 14 अप्रैल को दिया था। यह पहला मौका था जब वक्फ़ को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ बोले। वक्फ़ संशोधन बिल दोनों सदनों में पारित होकर राष्ट्रपति की मंज़ूरी भी पा गया लेकिन प्रधानमंत्री ने सदन की बहस में बोलना ज़रूरी नहीं समझा। यह अजीब ही रहा कि इस मुद्दे पर न तो सदन के नेता और न ही नेता प्रतिपक्ष ने संसद में अपनी बात कही।
अब जब यह बयान आया है तब ज़ाहिर है कि सभी विपक्षी दल इसकी तीखी आलोचना कर रहे हैं। उसका ज़िक्र यहां न भी किया जाए क्या तब भी एक महत्पूर्ण बिल संशोधन पर बात करते हुए देश के प्रधानमंत्री को अल्पसंख्यक समुदाय को यूं पंक्चर जोड़ने वाला कह देना क्या पद की गरिमा के अनुकूल कहा जाएगा? तब क्या कचरा,गटर साफ़ करने वाले,कंद-मूल खाने वाले जंगलवासी जैसे सम्बोधन भी समुदायों को इस बड़े पद से दिए जाएंगे? अव्वल तो किसी भी समाज के बारे में केवल एक काम के दायरे में लेकर बात करना कतई मुनासिब नहीं है। दूसरे, पंक्चर बनाने में बुराई ही क्या है? जैसे कि प्रधानमंत्री चाय बेचने का ज़िक्र भी गर्व से करते हैं क्योंकि वह भी एक काम है। सच है कि कोई भी काम छोटा नहीं होता। बेशक काम न करना ज़रूर शर्म का पर्याय होना चाहिए। यूं 'पंक्चरवाले' का ज़िक्र कतिपय नेता और सोशल मीडिया पर कुछ लोग एक समुदाय को ट्रोल करने के लिए करते हैं।
यह शब्दावली गुजरात में 2002 के दंगों के बाद भी तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस्तेमाल की थी। उन्होंने कहा था- प्रदेश की आबादी बढ़ रही है, ग़रीब तक धन नहीं पहुंच रहा है इसलिये वे पंक्चर बनाने के काम में लगे हैं। 2019 में कर्नाटक के भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्या ने भी सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) का विरोध करने वालों को अशिक्षित और पंक्चर जोड़ने वाला बताया था। ऐसा ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस 2024 में कह चुके हैं कि वोट बैंक की राजनीति में कांग्रेस ने मुसलमानों को पंक्चर वाला बना दिया। पंक्चर बनाने को लेकर भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से अपनी बात इसी तरह रखती रही है। सवाल कांग्रेस से भी होने चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति चाय बेचते हुए देश के सबसे बड़े पद पर पहुंच सकता है तो पंक्चर बनाने वाला क्यों नहीं पहुंचा?
आखिर कौन इस तुष्टिकरण का लाभार्थी बना है? इसे मान भी लिया जाए तो अब तक ग्यारह सालों में क्यों भाजपा सरकार हालात को नहीं बदल पाई? क्या वाक़ई अब इस संशोधित बिल के बाद सरकार रॉबिनहुड की भूमिका में आ जाएगी जो वक्फ़ की हुई संपत्ति को दोबारा अपने हिसाब से पंक्चर बनाने वालों को वक्फ़ करेगी। इस संशोधित बिल पर दोनों सदनों में बहस के बाद अब देश के सर्वोच्च न्यायालय में बेहद गंभीर लेकिन रोचक बहस जारी है।
कोर्ट ने कहा है कि संसद में पास कानून पर स्टे नहीं देते पर ये केस अपवाद है। सवाल पूछ लिए गए हैं कि 'बोर्ड के सदस्य को पांच साल से इस्लाम धर्म का अनुयायी होना चाहिए' की क्या परिभाषा होगी; वक्फ़ बोर्ड में हिन्दू सदस्य होंगे तो क्या हिन्दू धार्मिक बोर्ड में भी मुस्लिम सदस्य होंगे; कलेक्टर को सर्वोच्च अथॉरिटी कैसे बनाया जा सकता है? बहरहाल बहस में इसके जवाब मिलेंगे। फ़िलहाल तो यही सपना दिखाया जा रहा है कि इस तीसरे कार्यकाल में गाड़ियों के पंक्चर बनाने वाले खुद गाड़ियां बनाने-बेचने लगेंगे।
इधर संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती शायद पूर्व कानून मंत्री और वर्तमान में केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरन रिजिजू को परेशान कर रही है। वे दोनों सदनों में बड़ी तैयारी से बहस में आए थे। तब उन्होंने यह भी बताया था कि किस तरह पुराने संसद भवन को भी वक्फ़ संपत्ति बताया जाता है और सेना के बाद वक्फ़ के पास तीसरी सबसे ज्यादा सम्पत्तियां हैं। हालांकि उनके इस दावे को भी लगातार चुनौती मिल रही है। साथ ही उन्होंने महिलाओं को भी बोर्ड में रखने की बात कही थी। नया मोड़ यह है कि मंत्रीजी ने कहा है कि उन्हें पूरा विश्वास है कि सुप्रीम कोर्ट विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेगा। कानूनविद इसे धमकी के दायरे में रख रहे हैं। वे कहते हैं कि किसी भी लोकतांत्रिक गणराज्य की यही शक्ति होती है कि जब भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों को चुनौती मिले वह न्याय का रुख कर सकें। न्यापालिका और विधायिका में टसल और बहस की गुंजाइश हमेशा रहती है लेकिन यदि इसे ख़त्म करने की कोशिश हुई तो आप सीधे आपातकाल को न्योता देंगे।
वैसे अतीत में भी किरन रिजिजू की जुबां से ऐसे-ऐसे तीर निकले हैं जिसके बाद उन्हें क़ानून मंत्री के पद से हटना पड़ा था। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में रिजिजू ने जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम को संविधान के लिए 'एलियन' यानी अजनबी बताया था, रिटायर्ड जजों को देश विरोधी गैंग करार दिया था और उन्हें धमकी दे डाली थी कि जो लोग देश विरोधी काम कर रहे हैं उन्हें कीमत चुकानी होगी। रिजिजू ने कहा कि- जज यह ना कहें कि सरकार नियुक्ति से जुड़े फैसलों की फाइल पर बैठी रहती है, फिर फाइल सरकार को न भेजें। खुद को नियुक्त करें। खुद सारा शो चलाएं।
मंत्री ने यह भी कहा था कि जजों ने संविधान को हाईजैक कर लिया है। रिजिजू के एक बयान से ऐसा भी ज़ाहिर हुआ था कि वे लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भों के समन्वय को ही नहीं समझना चाह रहे हैं। उन्होंने कहा था- 'जज एक बार बनते हैं। उन्हें चुनाव नहीं लड़ना पड़ता। जनता उन्हें बदल नहीं सकती। जिस तरह जज काम करते हैं, इन्साफ करते हैं, जनता उनके फैसलों को देख रही है।' अभियान तो उप राष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने भी चलाया था कि जजों की नियुक्ति का अधिकार और शक्ति चुनी हुई सरकार के पास होनी चाहिए।
धनकड़ का सीधा तर्क था कि लोकतंत्र में जज भी सरकार तय करे, कॉलेजियम नहीं। जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि- अगर यह सिस्टम सही नहीं है तो सरकार नया कानून लाए। इस पृष्ठभूमि में रिजिजू की इस बात को कैसे लिया जाए जो उन्होंने सुनवाई से ठीक पहले एक चैनल को साक्षात्कार में कही- 'हमें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। अगर कल को सरकार न्याय-व्यवस्था में दखल दे तो यह ठीक नहीं होगा। सभी शक्तियों के अधिकार सुपरिभाषित हैं।' बहरहाल सरकार ने अपना संदेश भेज दिया है कि उसे अपने फैसले को किस फ्रेम में फिट करना है। वक्फ़ का शेष हिसाब अब वक्त देगा।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)


