देश की सभी मीडिया कंपनियों का 'मनी रूट' बता दीजिए!
अगस्त 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद, तिब्बत ने ब्रिटिश अधिग्रहण का विरोध किया

- पुष्परंजन
पत्रकारों पर यूएपीए लगाना सचमुच भयावह है। सुप्रीम कोर्ट क्या स्टैंड लेता है, इस पर पूरी दुनिया की नज़र है। उस पर मुहर हम भी नहीं लगाते कि मीडिया में सब कुछ साफ -सुथरा चल रहा है, लेकिन संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और बीजेपी के कितने नेता चीन गये? उनके खातों में कितने पैसे चीन-हांगकांग से आये, सरकार इतना भर बता दे!
अगस्त 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद, तिब्बत ने ब्रिटिश अधिग्रहण का विरोध किया। दो माह बाद, अक्टूबर 1947 में तिब्बत ने मांग की, कि भारत लद्दाख, सिक्किम और दार्जिलिंग वापस कर दे। पटेल ने उसे अनसुना कर दिया। अक्टूबर 1950 में, चीनी सैनिकों ने चामडो में तिब्बती सेना को हरा दिया। जब भारत ने विरोध किया तो चीन ने उसके विरोध को दरकिनार कर दिया। इससे भारत और चीन में दरार की शुरूआत हो गई।
उप प्रधानमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने तिब्बत की समस्या पर चिंता व्यक्त करते हुए नेहरू को एक पत्र लिखा। पटेल के विचार मायने रखते थे। वह महात्मा गांधी के करीबी सहयोगी और मित्र थे। पटेल के नेतृत्व में, भारत ने 500 से अधिक रियासतों को आत्मसात कर लिया था, जिनमें स्वतंत्रता-पूर्व भारत का 40 प्रतिशत क्षेत्र और 22 फ ीसद आबादी शामिल थी। इसने पटेल जैसे परम शक्तिशाली उप प्रधानमंत्री को 'भारत के लौह पुरुष' की उपाधि दी थी। दुर्भाग्यवश पटेल की जो विश्वप्रसिद्ध मूर्ति गुजरात में लगी, वो मेड इन चाइना है। जो लोग नरेंद्र मोदी द्वारा सरदार पटेल की मेड इन चाइना मूर्ति लगाने के फैसले को नमन करते हैं, उसे विवेक शून्य मानसिकता से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता।
1962 से लेकर 70 के दशक तक चीन से जो हमारे संबंध बिगड़े, उसे 1978 में सुधारने का सबसे पहला प्रयास तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। अटलजी बतौर विदेश मंत्री 22 फ रवरी 1979 को पेइचिंग गए। चीन ने सिक्किम और भूटान दोनों पर अपना रुख नरम कर लिया। लेकिन चीन अपने स्वभाव से बाज़ नहीं आया। 1986 में तब तनाव भड़क गया,जब भारतीय सैनिकों को सुमदोरोंग चू घाटी पर चीनी कब्जे का सामना करना पड़ा। चीन से दोस्ती-दुश्मनी का सिलसिला चलता रहा।
1988 में जब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीन का दौरा किया, दोनों पक्षों ने बेहतर संबंध स्थापित किए, जो 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद और बेहतर हुए। 1993 में, भारत और चीन ने सीमा समझौते पर हस्ताक्षर किए। अगले दो दशकों तक भारत और चीन किसी भी बड़े टकराव से बचते रहे। 1996 में, दोनों पक्ष वास्तविक नियंत्रण रेखा से दो किलोमीटर के भीतर बंदूकों या विस्फोटकों के इस्तेमाल नहीं करने पर भी सहमत हुए। नेताओं ने एक-दूसरे के देशों का दौरा किया, व्यापार बढ़ाया और आपसी सहयोग समझौतों पर हस्ताक्षर किए।
ठीक से देखा जाए तो चीनी राष्ट्रवाद हान आबादी की वजह से मज़बूत होता रहा है, चुनांचे हान और हिंदू राष्ट्रवाद के बीच दशकों पहले से एक संवाद शुरू हुआ। हिंदू नेताओं ने जिस उत्साह के साथ चीन के दौरे किये, उसके मूल में हान राष्ट्रवाद को समझने और उसके अनुरूप हिंदू राष्ट्रवाद को जीवट बनाने की उत्कंठा थी। शायद बढ़ता आर्थिक दबाव भी चीन के नए राष्ट्रवाद में योगदान देता रहा है। वहां की लीडरशिप ने चीनी उद्यमियों को निवेश में आगे बढ़ने की अनुमति दी। दूसरा, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ाया गया, जिससे दूरसंचार, ब्रॉडबैंड, सड़क, रेल, बंदरगाह, बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण के साथ-साथ अधोसंरचना में भारी निवेश किया। तीसरा, माइक्रो-इकोनॉमी को आगे बढ़ाने के वास्ते स्टार्टअप को शी सरकार ने खुलकर मदद दी।
पिछले दस वर्षों में पूरी दुनिया के साथ-साथ चीन ने जिस तरह भारत में पांव पसारे, उसे लेकर बड़ा सवाल बनता है। सवाल यह कि भारत ने क्या चीनी अर्थव्यवस्था को सुधारने की ज़िम्मेदारी ले ली थी? चीन के सामान्य सीमा शुल्क प्रशासन द्वारा 7 सितंबर, 2023 को जारी डाटा ही देख लीजिए। आंकड़ों के अनुसार, 2023 के पहले आठ महीनों के दौरान चीन और भारत के बीच व्यापार 619.69 बिलियन युआन (84.49 बिलियन डॉलर) तक पहुंच गया, जो साल-दर-साल 5.2 प्रतिशत अधिक है। चीन-भारत क्रास बॉर्डर व्यापार 2022 में चरम पर रहा है। 905 अरब यूआन का व्यापार तब जब चीनी माल के बहिष्कार का आह्वान किया गया था। यह व्यापार हर साल 5.2 प्रतिशत की दर से बढ़ता गया है। कौन बताएगा इसके पीछे का अर्थशास्त्र?
इस अर्थशास्त्र से अलहदा राजनीति के गलियारों में चीनी फंडिंग को लेकर आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे हैं, जिसमें अब मीडिया भी शामिल हो चुका है। चीनी फंडिंग के आरोप पहले कांग्रेस पर लगे, जवाब में कांग्रेस ने बीजेपी पर सवाल चिपका दिया कि चीनी कंपनी हुआवेई ने पार्टी फंड में कितना पैसा दिया था, इसकी जानकारी सार्वजनिक करें। क्या 2019 चुनाव के वास्ते चीन से पैसा आया था? ऐसे तमाम सवाल कांग्रेस के प्रेस कांफ्रेंस से निकल मुख्यधारा की मीडिया में घूमते रहे। सीनाजोरी का सिलसिला सत्ता पक्ष से चलता रहा, मगर सवाल का उत्तर सत्ता के गलियारे में अब भी प्रतीक्षारत है। ऐसे प्रकरण पर सबसे दिलचस्प है दिल्ली स्थित चीनी दूतावास की चुप्पी।
जब मीडिया को कुचलने की बात होती है, आपातकाल का जिन्न बोतल से बाहर निकल आता है। मगर, जिन पुराने पत्रकारों ने देखा है, वो भी स्वीकारते हैं कि आपातकाल में मीडिया को दूसरे ढंग से दबोचा जाता था। अखबारों पर पहरा, विचारों पर गिद्ध दृष्टि गये ज़माने की बात नहीं है। मगर इसमें जो तड़का लगा है, वो है टैक्स हीवेन या दुनिया के दूसरे लोकेशन से आया पैसा। चीन यदि भूल से भी मनी रूट में है, उस मीडिया कंपनी की ख़ैर नहीं। सीरिया, तुर्की या अरब अमीरात से भी आये तो भी उनकी ख़ैर नहीं जो सरकार के आलोचक हैं। मगर, बात यह है कि सरकार एक व्हाइट पेपर जारी क्यों नहीं करती जिसमें देश के सभी मीडिया समूह के लिए आये पैसे का डिटेल हो?
प्रवर्तन निदेशालय ने मीडिया दिग्गज राघव बहल के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज किया था। राघव बहल एक भारतीय व्यवसायी, टीवर समूहों में निवेशक रहे हैं। वह नेटवर्क18 ग्रुप के संस्थापक और प्रबंध निदेशक थे। राधव बहल बाद में द क्ंिवट डिज़िटल प्लेटफार्म के प्रोमोटर भी बने। अगस्त 2023 तक का अपडेट यह है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मनी लॉन्ड्रिंग जांच के सिलसिले में विदेश जाने पर जो रोक लगाई थी अदालत ने उसे ख़ारिज़ कर बिज़नेस मीटिंग के लिए बाहर जाने की अनुमति दे दी। द क्विंट पर मुश्कें कसने का कि़स्सा राघव बहल से ही शुरू हो जाता है। जो शाहे वक्त को सलाम करते हैं, उनका पैसा सफेद, बाकियों का पैसा देश की छवि ख़राब करने में लगा है, इस तरह की नैरेटिव गढ़ दी गई।
प्रवर्तन निदेशालय ने पत्रकार राणा अयूब के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज किया था। प्रवर्तन निदेशालय ने पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को भी मनी लॉन्ड्रिंग के केस में दबोच लिया था, जो अब जमानत पर रिहा हैं। प्रवर्तन निदेशालय ने स्वतंत्र पत्रकार राजीव शर्मा को मनी लॉन्ड्रिंग मामले में गिरफ्तार किया था।
इसलिए न्यूज क्लिक की फं डिंग को लेकर केस का अकेला मामला नहीं है। मीडिया कंपनियों के विरूद्व मनी लॉन्ड्रिंग के केस, छापामारी, गिरफ्तारी के बहुत सारे उदाहरण मिल जाएंगे। जो आज सत्ता की आरती उतार रहे हैं, उनमें दो प्रमुख चेहरे ऐसे भी हैं, जो तिहाड़ रिटर्न हैं। सोशल मीडिया में उनमें से एक तिहाड़ी नाम से मशहूर है। लेकिन ये मनी लॉन्ड्रिंग नहीं ठगी और ब्लैकमेलिंग की वजह से बदनाम हुए हैं।
बताया जाता है कि न्यूज क्लिक का टोटल मामला फं डिंग को लेकर है। मगर सवाल यह है पोर्टल के प्रबंधकों ने कहां से पैसा लिया, उसकी जानकारी किसी पत्रकार या सब-एडिटर या टेक्निकल कर्मचारी को कैसे हो सकती है? बात कर्मचारियों तक नहीं रही। बल्कि वेबसाइट पर लिखने वाले फ्रीलांसरों तक को नहीं बख्शा गया। खुद दिल्ली पुलिस ने कोर्ट को बताया कि 46 संदिग्धों से पूछताछ की गई, और उनमें से कईयों को आगे भी इसके लिए तैयार रहने को कहा गया है।
क्या यह न्याय की उचित प्रक्रिया है? इस छापेमारी से यह बताने की कोशिश की गई है कि जो पत्रकार सत्ता के विरूद्ध आक्रामक हैं, उन्हें भी मनी लॉन्ड्रिंग जैसे मामले में लपेटा जाएगा। एक और सच यह है कि इस छापेमारी कांड से पत्रकार बिरादरी दो टुकड़ों में बंटी दीखती है, और एक तीसरा हिस्सा है, जो तटस्थ होने का अभिनय कर रहा है। समय लिखेगा उनका भी अपराध।
4 अक्टूबर को पत्रकारों के विभिन्न संगठनों की ओर से एक संयुक्त पत्र भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को लिखा गया है। इस पत्र में कहा गया है कि मीडिया के खिलाफ सरकार की दमनकारी कार्रवाइयां हद से ज़्यादा बढ़ गई हैं। प्रधान न्यायाघीश से अपील की गई है कि वह मीडिया के विरूद्ध जांच एजेंसियों के बढ़ते दमनकारी उपयोग को समाप्त करने के लिए फ ौरन हस्तक्षेप करें।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को जिन पत्रकार संगठनों ने यह साझा पत्र लिखा है, उसमें डिजीपब न्यूज इंडिया फाउंडेशन, इंडियन वूमेन प्रेस कॉर्प्स, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, नई दिल्ली फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स, नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, चंडीगढ़ प्रेस क्लब, नेशनल अलायंस ऑफ जर्नलिस्ट्स, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स, केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स, बृहन्मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स, फ्री स्पीच कलेक्टिव, मुंबई, मुंबई प्रेस क्लब, अरुणाचल प्रदेश यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट, प्रेस एसोसिएशन ऑफ इंडिया, गुवाहाटी प्रेस क्लब शामिल हैं। संगठनों के साझा पत्र में लिखा गया कि तीन अक्टूबर, 2023 को, दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने पत्रकारों, संपादकों, लेखकों समेत 46 पेशेवरों के घरों पर छापा मारा है। दो टॉप बॉस गिरफ्तार हैं। तो क्या संपूर्ण सोशल मीडिया को डराने की कवायद है यह?
पत्रकारों पर यूएपीए लगाना सचमुच भयावह है। सुप्रीम कोर्ट क्या स्टैंड लेता है, इस पर पूरी दुनिया की नज़र है। उस पर मुहर हम भी नहीं लगाते कि मीडिया में सब कुछ साफ -सुथरा चल रहा है, लेकिन संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और बीजेपी के कितने नेता चीन गये? उनके खातों में कितने पैसे चीन-हांगकांग से आये, सरकार इतना भर बता दे!
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