लोकतंत्र को नया मोड़ देता तेजस्वी का भाषण
रोमांचक क्रिकेट मैच में जब दोनों टीमों के बीच बराबरी की टक्कर होती है और हार-जीत का फैसला आखिरी गेंद पर ही होता है

- सर्वमित्रा सुरजन
आज सियासत से लेकर बौद्धिक जगत में तेजस्वी यादव के भाषण की चर्चा हो रही है। यह सही समय है कि भाजपा, जदयू और सत्ता, संपत्ति या आभिजात्य के अहंकार में डूबे तमाम लोग आत्ममंथन करें कि आखिर अपनी शक्ति और सामर्थ्य का वे कैसा उपयोग कर रहे हैं और देखें कि किस तरह तेजस्वी यादव, राहुल गांधी और हेमंत सोरेन जैसे लोग लोकतंत्र के दरिया को नया मोड़ देने में जुटे हुए हैं।
रोमांचक क्रिकेट मैच में जब दोनों टीमों के बीच बराबरी की टक्कर होती है और हार-जीत का फैसला आखिरी गेंद पर ही होता है, तो अक्सर ऐसे मैच की रिपोर्टिंग के शीर्षक में लिखा जाता है- इस टीम ने जीता मैच, उस टीम ने दिल। ठीक ऐसा ही रोमांचकारी अहसास सोमवार 12 फरवरी को बिहार विधानसभा में नीतीश सरकार के फ्लोर टेस्ट के दौरान हुआ। विश्वासमत में जीत तो नीतीश कुमार ने हासिल की, लेकिन तेजस्वी यादव ने दिल जीत लिया। इस वक्त जब नफरत और बदले की भावना को राजनीति का पर्याय बना दिया गया है। जब विरोधियों के लिए सम्मान का कोई भाव नहीं बचा है। विपक्षियों पर सत्तापक्ष जितनी हिकारत आक्रमण करे उतना उसे ताकतवर माना जाने लगा है। तब तेजस्वी यादव के विधानसभा में दिए भाषण को सुनना एक सुखद अहसास जगा गया। नई उम्मीदें जाग गईं कि अगर तेजस्वी यादव जैसे कुछ और युवा नेता पूरे देश में विभाजनकारी, सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ बिना डरे, पूरी शालीनता के साथ, तथ्यों सहित अपनी बात रखने लगें तो लोकतंत्र को बचाया जा सकता है।
भारतीय राजनीति के इतिहास में कुछ राजनेताओं के भाषण सुनहरे पन्नों पर अंकित हो चुके हैं। शुरुआत 14-15 अगस्त 1947 की अर्द्धरात्रि को नेहरूजी के दिए भाषण से की जा सकती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि- आधी रात के समय, जब दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा। एक क्षण आता है, जो इतिहास में शायद ही कभी आता है, जब हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाते हैं, जब एक युग समाप्त होता है, और जब लंबे समय से दबी हुई एक राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है। इस क्षण में हम कुछ गर्व के साथ भारत और उसके लोगों की सेवा तथा मानवता के इससे भी बड़े उद्देश्य के प्रति समर्पण की शपथ लें। आज हम दुर्भाग्य के एक दौर को समाप्त कर रहे हैं और भारत फिर से खुद को खोज रहा है।
1 जून 1996 को 13 दिन सरकार चलाने के बाद जब बाजपेयी सरकार अल्पमत में आ गई तो अटलबिहारी बाजपेयी ने बड़ी शालीनता के साथ बहुमत के सामने नतमस्तक होने की बात कही थी। बाजपेयीजी एक प्रखर वक्ता थे, लेकिन अपने इस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने लोकतंत्र के लिए बड़ा संदेश दिया था कि 'सरकारें आएंगी-जाएंगी मगर ये देश और उसका लोकतंत्र रहना चाहिए। मैं अपना इस्तीफा देने के लिए राष्ट्रपति के पास जा रहा हूं। मोदीकाल में जब कई राज्यों में हार या अल्पमत में होने के बावजूद भाजपा ने सत्ता हड़पने के प्रयास खुलकर किए तो बाजपेयीजी की ये पंक्तियां याद आईं, हालांकि उनकी ही पार्टी के लोग अब लोकतंत्र के इस सिद्धांत को भुला चुके हैं।
30 जनवरी 2023 को भारत जोड़ो यात्रा का श्रीनगर में समापन करते हुए राहुल गांधी ने जो भाषण दिया, वह भी ऐतिहासिक भाषणों में शुमार किया जाना चाहिए। राहुल गांधी बहुत अच्छे वक्ता नहीं हैं, उनके भाषणों में अक्सर दोहराव होता है, शब्दों के सही चयन में उन्हें कई बार दिक्कतें आती हैं, मगर उनकी भावनाएं लोगों तक प्रेषित हो जाती हैं, क्योंकि वे दिल से बोलते हैं, बिना लाग-लपेट के बोलते हैं। नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान और डरो मत, ये दो नारे राहुल गांधी लगातार जनता के बीच बुलंद करते आ रहे हैं। और श्रीनगर में उन्होंने इन्हीं नारों को साकार करते हुए कहा था कि- मैं जम्मू से कश्मीर जा रहा था तब मेरी सुरक्षा की बात हो रही थी। मुझसे कहा गया कि पैदल चलने पर आप पर ग्रेनेड फेंका जाएगा। मैंने कहा 4 दिन चलूंगा, बदल दो इस टी-शर्ट का रंग, लाल कर दो। सफेद टी शर्ट के लाल हो जाने की कल्पना मात्र से भय की लहर दौड़ जाती है, क्योंकि इस देश ने हिंसा और नफरत का लंबा दौर देखा है। राहुल गांधी ने अपनी दादी और पिता को इसी तरह खोया है, इसलिए उन्होंने अपने भाषण में ये भी कहा था कि अपनों को खोने वालों के दिल में क्या होता है, जब फोन आता है तो कैसा लगता है, वो मैं समझता हूं, मेरी बहन समझती है।
1963 में संसद में राममनोहर लोहिया ने जब कांग्रेस सरकार की आलोचना करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू को उन पर हो रहे खर्चों और एक आम भारतीय के रोजाना खर्च की तुलना करते हुए जो भाषण दिया था, वह तीन आना बनाम पंद्रह आना के नाम से विख्यात है ही, इसी तरह 1971 में बांग्लादेश की आजादी के बाद इंदिरा गांधी ने लोकसभा में जो भाषण दिया, उसकी गिनती भी ऐतिहासिक भाषणों में शुमार होती है।
इन तमाम भाषणों में खास बात ये रही कि इनसे राजनीति के वृहत्तर उद्देश्यों के लिए दृष्टिकोण नजर आया। मैं, मेरा, मैंने से ऊपर उठकर लोकतंत्र का उदारवादी पक्ष इन भाषणों में मजबूती से उभऱा। इनके बरक्स अगर पिछले 10 सालों में नरेन्द मोदी के तमाम भाषणों को रखें, तो एक भी भाषण उल्लेखनीय नहीं मिलेगा। क्योंकि श्री मोदी के हर भाषण में एक ओर अहंकार झलकता है और दूसरी ओर अपने विरोधियों के लिए तिरस्कार। और इस वक्त अपवादस्वरूप एकाध भाजपा नेता को छोड़ दें, तो लगभग सारे नेता, सरकार के तमाम मंत्री इसी तरह हिकारत और घृणा के भाव से भाषण या बयान देते हैं, मानो उनसे असहमति जतलाकर, उनकी नीतियों का समर्थन न करके कोई भारी पाप कर रहा है। इन नेताओं का अनुसरण करते हुए अब पत्रकारों ने भी यही शैली अपना ली है। खबरों के विश्लेषण में पक्षपाती तो वे नजर आते ही हैं, सरकार का विरोध करने वालों के लिए उनकी तल्खी भी खुलकर दिखती है।
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के लिए आज तक चैनल के पत्रकार सुधीर चौधरी ने इसी तल्ख भावना के साथ टिप्पणी की थी कि सीएम पद जाने के बाद हालात बदल गए हैं। अब उन्हें जंगल में आदिवासी की तरह रहना पड़ेगा। जैसा वे 30-40 साल पहले रहा करते थे। उनके लिए यह काफी मुश्किल होगा। इस से नाराज एक आदिवासी समूह ने एससी एसटी एक्ट के तहत सुधीर चौधरी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। हालांकि सुधीर चौधरी ने सोशल मीडिया पर इसके लिए माफी भी मांग ली थी। 5 फरवरी को जब झारखंड विधानसभा में चंपाई सोरेन को विश्वासमत की परीक्षा से गुजरना पड़ा था, तब हेमंत सोरेन ने भी शानदार भाषण दिया था और इस टिप्पणी का जवाब भी दे दिया था कि हम जंगल से बाहर आ गए, इनके बराबर बैठ गए, तो इनके कपड़े मैले होने लगते हैं। ये हमें अछूत देखते हैं, और इन्हीं विडंबना को तोड़ने के लिए हमने एक प्रयास किया था।
हेमंत सोरेन का यह भाषण भी ऐतिहासिक है, क्योंकि उन्होंने हर दबाव के सामने तनकर खड़े होने की हिम्मत क्या होती है, इसकी व्याख्या अपने भाषण में की। एक सप्ताह बाद बिहार में तेजस्वी यादव उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते नजर आए। हालांकि झारखंड की तरह बिहार में भाजपा को हराया नहीं जा सका, लेकिन तेजस्वी यादव ने अपने भाषण में पूरे सम्मान के साथ नीतीश कुमार, समूची जदयू और राजद छोड़कर एनडीए का साथ देने वाले अपने तीनों साथियों को बता दिया कि वे कितनी बड़ी गलती कर चुके हैं।
लालू यादव की तरह ठेठ अंदाज में तेजस्वी यादव ने भरी सभा में ऐलान कर दिया कि सांप्रदायिक शक्तियों को हटाने की मुहिम से नीतीश कुमार भले पीछे हट गए हैं, लेकिन उनके भतीजे यानी तेजस्वी इसके खिलाफ झंडा बुलंद करते रहेंगे। राजा दशरथ, राम का वनवास और कैकेयी के उदाहरण भी उन्होंने बखूबी दिए कि बुरी शक्तियां हर युग में मौजूद रहती हैं, उन्हें पहचानना जरूरी है। तेजस्वी यादव जितनी देर बोलते रहे, नीतीश कुमार असहज लगे। ऐसा लगा कि तेजस्वी सीधे उनके मर्म पर चोट कर रहे हैं और वे समझ रहे हैं कि तेजस्वी गलत नहीं हैं। नीतीश कुमार की पलटी और मोदी की गारंटी पर व्यंग्यकारों की तरह तेजस्वी ने चोट की।
दो साल पहले बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर तेजस्वी यादव ने चार मिनट का भाषण दिया था, और तब उनके कुछ जगहों पर अटकने की खबरों को मीडिया ने मजाक बनाते हुए परोसा था। तब भाजपा प्रवक्ता अरविंद सिंह ने कहा था कि तेजस्वी यादव लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ सके। बिहार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे साफ दिख रहा कि वो अशिक्षित हैं। उनको पढ़ाई करने की जरूरत है। वहीं जदयू प्रवक्ता अभिषेक झा ने कहा था कि आज साबित हो गया कि तेजस्वी यादव की राजनीति अनुकंपा के आधार पर है। उनकी खूबी यही है कि लालू के पुत्र हैं। उनकी विरासत संभालने की कोशिश कर रहे हैं। भाषण पढ़ते समय लड़खड़ाना दिखाता है कि उनके अंदर आत्मबल की कमी है।
आज सियासत से लेकर बौद्धिक जगत में तेजस्वी यादव के भाषण की चर्चा हो रही है। यह सही समय है कि भाजपा, जदयू और सत्ता, संपत्ति या आभिजात्य के अहंकार में डूबे तमाम लोग आत्ममंथन करें कि आखिर अपनी शक्ति और सामर्थ्य का वे कैसा उपयोग कर रहे हैं और देखें कि किस तरह तेजस्वी यादव, राहुल गांधी और हेमंत सोरेन जैसे लोग लोकतंत्र के दरिया को नया मोड़ देने में जुटे हुए हैं।


