शबरी की रसोई में चाय
युग बदल चुका है। आत्मीय रिश्तों की जगह बनावटी रिश्तों ने ले ली है

- सुधाकर आशावादी
युग बदल चुका है। आत्मीय रिश्तों की जगह बनावटी रिश्तों ने ले ली है। निस्वार्थ भाव की कल्पना बेमानी है। स्वार्थ कुशल व्यापारी की भूमिका में है। उसे उन श्रद्धा और प्रेम के प्रसंग भी भुनाने में कोई शर्म महसूस नही होती, जिनके आधार पर सदियों से भक्ति और श्रद्धा को आदर्श माना जाता रहा है। एक कड़वा सच यह भी है कि उनका घटिया माल भी बिकता हाथों हाथ, आते जो बाजार में लुभावने नामों के साथ। विज्ञापन युग की यही विशेषता है, कि जैसे भी हो, आकर्षक विज्ञापन करके भीड़ जुटाओ और मुनाफा कमाओ। आज कल भोजन पदार्थो की बिक्री के लिए ढाबा, होटल, भोजनालय, रेस्टोरेंट जैसे नाम रखने का चलन कम हो गया है।
इनकी जगह रसोई जैसे घरेलू और आत्मीय प्रतीत होने वाले शब्द को प्राथमिकता दी जाने लगी है। कोई अपने भोजनालय का नाम माँ की रसोई रख रहा है, कोई दादी की रसोई, कोई चाची की रसोई रख रहा है, कोई मौसी की । रसोई से पहले दादी, अम्मा, मौसी, चाची का नाम अपनेपन का एहसास कराता ही है। इसी का लाभ चतुर व्यापारी उठाने में पीछे नही रहते।
राम जी के वनवास के समय राम जी की बाट जोह कर उनके लिए बेर एकत्र करने वाली शबरी ने कभी नहीं विचारा होगा, कि विज्ञापन युग में उसकी आस्था को भी भुनाया जाएगा। उनके नाम से भंडारा करके मीठे फल बांटने की जगह उनके नाम पर रसोई खोल दी जाएगी, जिसका नाम सुनकर आस्था के सैलाब से संग भक्त उस रसोई के दर्शन तो करेंगे, मगर उसमें बैठकर चाय पीने की कल्पना साकार नहीं कर सकेंगे।
चाय की कीमत सुनकर ही वे वहाँ से नजर बचाकर किसी चाय की टपरी या चाय के ठेले की ओर जाने हेतु विवश होंगे। अलबत्ता शबरी के नाम से प्रभावित होकर मोबाईल के माध्यम से धन खर्च करने वाले कुछ लोग उस रसोई में जाएंगें, चाय के साथ टोस्ट भी खाएंगे, फिर चाय का बिल संचार माध्यमों से अपना प्रचार करके अपनी शेखी बघारेंगे, कि शबरी के नाम पर अब बेर नहीं, चाय मिलती है, वह भी मुफ्त में नहीं मिलती। चाय पीने के लिए आम आदमी की चाय के मुकाबले चार पांच गुने पैसे चुकाकर आम से ख़ास आदमी बनना पड़ता है।
खास आदमी कभी कंजूस नही होता, उसे खास बने रहने के लिए छोटी छोटी बातों को नजरअंदाज करना पड़ता है। खास आदमी की पहचान ही दिखावा करने से होती है, सो वह महंगी चाय पीता है और चाय परोसने वाले बेयरे की टिप भी देता है। उसे चाय तो मिलती है, मगर शबरी जैसी आत्मीयता नहीं मिलती। कारण स्पष्ट है कि न वह शबरी रही, जो जंगल में स्नेह भाव से आवभगत किया करती थी, न वे राम जी जैसे नायक रहे, जो भाव के भूखे थे और सामाजिक समरसता के प्रतीक थे। न विज्ञापन का दौर था और न सेल्फी लेकर आत्म- मुग्धता प्रदर्शित करने की होड़ थी।
समय के साथ साथ परिवर्तन तो होते ही हैं, फिर भी जिससे जितना हो रहा है, वह कर रहा है, अपने प्रिय राम को मीठे बेर खिलाने के लिए बेरों की मिठास परख कर बेर परोसने वाली शबरी के भाव विज्ञापन की दुनिया में लुप्त हो गए, सिर्फ शबरी का नाम लेकर ग्राहकों को आकर्षित करने की चाल सफल हो गई। अब शबरी की रसोई में बेर भले ही नदारद हों, मगर चाय अवश्य मिलती है, वह भी टैक्स फ्री नही, बल्कि टैक्स सहित।


