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इलाहाबाद ​​​​​​​ में खत्म हो रहे झूले, बिसार दी गई कजरी

प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी

इलाहाबाद ​​​​​​​ में खत्म हो रहे झूले, बिसार दी गई कजरी
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इलाहाबाद । प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर उन्हें जीवंत करने वाली लाेकगीतो की रानी ‘कजरी’ आधुनिक परंपरा की चकाचौंध में बिसरा दी गयी है।

सावन शुरू होते ही पेड़ों की डाल पर पड़ने वाले झूले और महिलाओं द्वारा गाई जाने वाली कजरी अब आधुनिक परंपरा और जीवन शैली में विलुप्त सी हो गई है। एक दशक पहले तक सावन शुरू होते ही गांवों में कजरी की जो जुगलबंदी होती थी, वह अब कहीं नजर नहीं आती है। घर की महिलाएं और युवतियां भी कजरी गाते हुए झूले पर नजर आती थीं, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है।

सावन के शुरूआत से ही कजरी के बोल और झूले गांव-गांव की पहचान बन जाते थे। “झूला पड़ै कदंब की डाली, झूलैं कृष्ण मुरारी ना” के बोल से शुरू होने वाली कजरी दोपहर से शाम तक झूले पर चलती रहती थी। कजरी के गायन में पुरुष भी पीछे नही थे। दिन ढलने के बाद गांव में कजरी गायन की मंडलियां जुटती थीं। देर रात तक कजरी का दौर चलता था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में कजरी की खासी धूम हुआ करती थी, लेकिन अब इसको जानने वाले लोग गिने चुने रह गये हैं।


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