स्वर्णा की शोधपरक जीवनी
हाल ही में सुप्रसिद्ध कवि और लेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन स्वर्णकुमारी देवी यानी स्वर्णा की शोधपरक जीवनी प्रकाशित हुई है

- रोहित कौशिक
हाल ही में सुप्रसिद्ध कवि और लेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन स्वर्णकुमारी देवी यानी स्वर्णा की शोधपरक जीवनी प्रकाशित हुई है। इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक के लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा इतिहास के अनछुए पहलुओं पर काम करने के लिए जाने जाते हैं। इस पुस्तक में भी राजगोपाल सिंह वर्मा ने ऐसे कई रहस्य उद्घाटित किए हैं, जिन्हें पढ़कर हमें नई जानकारी तो मिलती ही है, आश्चर्य भी होता है। यह उस दौर की कहानी है जब स्त्रियां स्वतंत्र रूप से सोचने-समझने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। उस समय स्वर्णकुमारी देवी ने स्त्रियों को यह हिम्मत प्रदान करने की भरपूर कोशिश की। ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि उनका दृष्टिकोण काफी हद तक वैज्ञानिक था और वे अपने समय से आगे की दृष्टि रखती थीं। ऐसा नहीं है कि यह महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए उन्होंने पुरानी परम्परा की सभी बेड़ियां तोड़ डाली हों।
जहां जरूरी लगा उन्होंने परम्परा तोड़ी लेकिन इसके साथ ही जहां उन्हें महसूस हुआ कि पुरानी परम्परा के सहारे ज्यादा अच्छी तरह से आगे बढ़ा जा सकता है, वहां वे पुरानी परम्परा के सहारे कर्तव्य-पथ पर अग्रसर रहीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि भारतीय इतिहास में स्वर्णकुमारी देवी की उपेक्षा की गई और उन पर गंभीरता से काम नहीं हुआ। यह कमी काफी हद तक राजगोपाल सिंह वर्मा ने पूरी की है।
28 अगस्त 1856 को कलकत्ता में जन्मी स्वर्णकुमारी देवी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखा। ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते हुए उन्होंने समाज सुधार के कई कार्य किए। बंगाल की महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किए। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना के समय दल की सदस्या बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। स्वर्णकुमारी के पिता देवेन्द्रनाथ ने उन्हें आगे बढ़ाने में भरपूर योगदान दिया। दरअसल यह पुस्तक स्वर्णकुमारी के साथ ही उनके पूरे परिवार के व्यवहार और प्रवृत्ति पर भी बात करती है। स्वर्णकुमारी का परिवार उस दौर में भी इस अर्थ में प्रगतिशील था कि वहां स्त्री-पुरुष को बराबर का दर्जा प्राप्त था। इसके बावजूद परम्परा के अनुसार 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया। हालांकि उस समय स्वर्णकुमारी की प्राथमिकताओं में विवाह नहीं था।
दूसरी तरफ बंगाल में बाल विवाह को लेकर भी चर्चा तेज होने लगी थी। स्वर्णकुमारी के पति जानकीदास घोषाल भी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना के समय से ही संगठन से जुड़े थे। इस किताब में स्वर्णकुमारी की छोटी बेटी सरला देवी के सम्बन्ध में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। सरला देवी ने गांधी जी के साथ पूरे भारत की यात्राएं कीं। गांधी और सरला के बीच सम्बन्धों को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं भी हुईं। सरला देवी के विचार टैगोर परिवार के अन्य लोगों से बिल्कुल अलग थे। रोचक बात यह है कि गांधी के सम्पर्क में आने के बावजूद उनका मानना था कि आक्रामक और हिंसक आन्दोलन के माध्यम से ही अंग्रेजों को टक्कर दी जा सकती है। 1876 में स्वर्णकुमारी के उपन्यास 'दीपनिर्वाण' की काफी चर्चा हुई। इस उपन्यास ने जनता में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने का काम किया। उस समय औपनिवेशिक शासन के खिलाफ ऐसा साहसिक लेखन नहीं हो रहा था। 'भारती' पत्रिका के संपादन और प्रकाशन में स्वर्णकुमारी का सबसे ज्यादा योगदान रहा। उन्होंने अनेक वर्षों तक 'भारती' का संपादन किया। इस दौरान 'भारती' में उन्होंने सामाजिक कुरीतियों और विज्ञान पर केन्द्रित अनेक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित किए। स्वर्णकुमारी ने उपन्यास, नाटक, व्यंग्य, कविता और निबन्ध विधा में लगभग 25 पुस्तकें लिखीं।
स्वर्णकुमारी का वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह सिद्ध करता है कि वह उस दौर में भी जनता विशेषत: महिलाओं को अंधविश्वास से दूर कर उनकी वास्तविक प्रगति देखना चाहती थीं। 1882 में उनके वैज्ञानिक निबन्धों की पुस्तक 'पृथ्वी' प्रकाशित हुई। महिलाओं के उन्नयन के लिए 'सखी समिति' के माध्यम से उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। कई बार किसी मुद्दे पर स्वर्णकुमारी और रवीन्द्रनाथ टैगोर का दृष्टिकोण भिन्न होता था और वे एक दूसरे से असहमत होते हुए टिप्पणी या लेख लिखते थे। 1908 में बंगाल विभिन्न तरह की उथल-पुथल से गुजर रहा था । दूसरी तरफ क्रान्तिकारी हत्याओं और डकैतियों के माध्यम से अपने आन्दोलन को मजबूत करने का सपना देख रहे थे लेकिन स्वर्णकुमारी को हिंसा का रास्ता पसंद नहीं था। स्वर्णा स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन के दौरान महिलाओं की स्थिति पर लगातार बोलती रहीं। वह यह अच्छी तरह जानती थीं कि महिलाएं इस आन्दोलन में भाग लेने के साथ ही दोहरी जिम्मेदारियां निभा रही हैं। उनका मानना था कि हम अंग्रेजों से स्वतंत्रता लेने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन हमारे घरों में ही महिलाओं को पूरी स्वतंत्रता नहीं है।
राजगोपाल सिंह वर्मा ने इस किताब के माध्यम से यह बताने का प्रयास भी किया है कि स्वर्णकुमारी को अपने ही परिवार से वैसा प्रोत्साहन नहीं मिला, जैसा मिलना चाहिए था। मुख्यत: उनके भाई रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया। गौरतलब है कि स्वर्णा ने 'गाथा' शीर्षक से प्रकाशित अपना कविता संग्रह रवीन्द्रनाथ टैगोर को समर्पित किया लेकिन रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी कोई पुस्तक या अन्य लेखन बहन स्वर्णकुमारी को समर्पित किया हो, ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती।
रवीन्द्रनाथ टैगोर, स्वर्णा के उपन्यास 'एन अनफिनिश्ड सान्ग' के प्रकाशन से भी खुश नहीं थे क्योंकि उनका मानना था कि इस कृति में प्रमाणिकता नहीं है। जबकि सच्चाई यह थी कि कृति को पाठकों को बहुत स्नेह मिला था और इसको लिखने में स्वर्णा ने काफी मेहनत की थी। हालांकि स्वर्णकुमारी ने सामाजिक मान्यताओं को पूरी तरह से नहीं नकारा लेकिन वे सच्चे अर्थों में महिलाओं का उत्थान चाहती थीं। उन्होंने उस दौर में विधवा स्त्रियों को न केवल पुनर्विवाह की सलाह दी बल्कि उन्हें अधिक शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की कोशिश भी की। राजगोपाल सिंह वर्मा इस पुस्तक के माध्यम से यह सवाल भी उठाते हैं कि राष्ट्रवादी इतिहास और स्त्रीवादी आन्दोलनों में स्वर्णकुमारी देवी का नाम उपेक्षित क्यों रहा ? यह महत्त्वपूर्ण और शोधपरक जीवनी इतने रोचक ढंग से लिखी गई है कि पढ़ते हुए बोझिलता महसूस नहीं होती है और पाठक प्रवाह के साथ इसे पढ़ता चला जाता है। स्वर्णकुमारी देवी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर गंभीर तथा श्रमसाध्य शोध के लिए राजगोपाल सिंह वर्मा निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं।


