सुनील भाई, जिन्होंने गांधी को जिया
समाज में जीवन मूल्य इतने गिर गए हों, कोई बिना लोभ-लालच के काम न करता हो, तब सुनील भाई के जीवन को देखकर प्रेरणा ली जा सकती है

- बाबा मायाराम
समाज में जीवन मूल्य इतने गिर गए हों, कोई बिना लोभ-लालच के काम न करता हो, तब सुनील भाई के जीवन को देखकर प्रेरणा ली जा सकती है। उनके जीवन को देखकर किसी भी देशप्रेमी का दिल उछल सकता है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी के लिए कहा था कि आनेवाली पीढ़ियां शायद मुश्किल से ही यह विश्वास करेंगी कि गांधी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा। सुनील भाई के लिए भी यह वाक्य सटीक बैठता है।
सुनील भाई का जब स्मरण करता हूं तो बहुत सी छवियां मेरे मानस पटल पर उभरती हैं। कभी यात्राओं में साथ, कभी सभाओं में, कभी बैठकों में कार्यकर्ताओं में जनसाधारण की बातें ध्यान से सुनना और भी बहुत कुछ। आज मैं इस कॉलम में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) जिले के आदर्शवादी समाजवादी कार्यकर्ता सुनील भाई की कहानी बताना चाहूंगा, जिन्होंने करीब तीन दशक गांव में रहकर उनके हक, अधिकार और बराबरी के लिए न केवल लगातार संघर्ष किया, बल्कि रचनात्मक कामों की मिसाल पेश की।
अब जब मैं सुनील भाई पर लिखने बैठा हूं, सोच रहा हूं- क्यों जरूरी है उन पर लिखना। थोड़ी झिझक भी है। यह इसलिए नहीं कि लिखना मुश्किल है। यह तो मेरा काम है। लिखने-पढ़ने का अभ्यास है और इसमें मेरी दिलचस्पी है। झिझक इसलिए है कि उनके बारे में क्या ऊपरी ही बातें दोहराऊं, जो पहले कही जा चुकी हैं।
मसलन, वे एक मध्यवर्गीय परिवार से थे। बहुत मेधावी थे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके थे। पिछले 30 सालों से होशंगाबाद जिले के आदिवासी गांव में रहते थे। किसान आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ते थे। इसके लिए उन्होंने कई बार पुलिस के डंडे भी खाए और जेल भी गए। आदिवासियों की मछुआ सहकारिता का सफल प्रयोग किया। समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय नेता थे।
उनकी सरल सी दिखने वाली जीवनशैली कितनी कठिन थी, यह भी बताऊं। सुबह बहुत जल्दी जागना। पानी भरने से लेकर कपड़े धोने, रोटियां बनाने से लेकर बर्तन साफ करने, झाड़ू लगाने से लेकर सामान को सुघड़ता से रखने और पालथी मारकर सुंदर लिपि में लिखने से लेकर लिफाफे में गोंद लगाना और फिर पोस्ट करना। पहले वे जहां भी फुरसत मिले पोस्टकार्ड और चिट्ठियां भी खूब लिखते थे।
इटारसी के पास केसला से पहले जंगल में बांसलाखेड़ा में जब रहते थे तो नदी पार कर जाना पड़ता था। बारिश में खासी दिक्कत होती थी। वहां से केसला तक पैदल या कभी साइकिल से आना और राशन व सब्जियों का वजन भी साथ होता था। छोटी-मोटी जरूरतों के लिए केसला आना पड़ता था। बारिश में नदी में बाढ़ होती थी, तब बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। वह बहुत रमणीक स्थान था, जंगल और नदी से घिरा हुआ।
वर्ष 1985 में ही आदिवासियों, ग्रामीणों व किसानों के साथ मिलकर किसान आदिवासी संगठन का गठन किया गया था। आगे बढ़ने से पहले इस इलाके के बारे में बताना उचित होगा। होशंगाबाद ( नर्मदापुरम) जिले का यह इलाका आदिवासी बहुल है। गोंड और कोरकू आदिवासी यहां के बाशिन्दे हैं। इस इलाके में पानी की समस्या तो थी ही, विस्थापितों की आजीविका की समस्या भी थी। यहां कई परियोजनाओं से लोगों का विस्थापन हुआ है। सुनील भाई, के आने से पूर्व ही इटारसी का समाजवादी युवक राजनारायण केसला में रह रहा था, और संगठन के माध्यम से आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहा था। बाद में सड़क हादसे में राजनारायण का 26 अप्रैल 1990 को निधन हो गया।
बाद में राजनारायण की स्मृति में केसला में किसान आदिवासी संगठन का कार्यालय बना। केसला, सुखतवा के साप्ताहिक बाजारों में सुनील भाई और उनके साथियों को पर्चे बांटते देखा जा सकता था। सुनील भाई इन बाजारों में आदिवासियों की समस्याएं सुनते थे और संगठन के माध्यम से उनका क्या हल हो सकता है, सुझाते थे। यह सिलसिला लगातार चलता रहा।
वर्ष 1996 में तवा नदी में मछली का अधिकार मिला और यहां सरकारीकरण और निजीकरण से अलहदा सहकारीकरण का अच्छा, सफल और अनूठा प्रयोग हुआ। लेकिन जब यह मछली का अधिकार ले लिया गया तब इस इलाके के आदिवासियों व ग्रामीणों ने सद्बुद्धि सत्याग्रह चलाया था, जिसकी व्यापक चर्चा हुई थी। तो सुनील भाई ने एक तरफ अन्याय के खिलाफ सत्याग्रह को लड़ने का हथियार बनाया, वहीं दूसरी तरफ उनका जीवन सादगीपूर्ण, सरल और श्रम आधारित था। उनका रास्ता गांधी का था। उन्होंने लोहिया के सूत्र वोट, जेल और फावड़ा के साथ संगठन व विचार निर्माण पर जोर दिया था।
लेकिन यहां मैं उनके रचनात्मक व उत्पादक कामों की चर्चा करना चाहूंगा। उन्होंने एक आदिवासी गांव में बहुत ही साधारण जीवनशैली में जीवन व्यतीत किया। एक साधारण ग्रामीण की तरह जीवन जिया। सुबह-शाम उनके घर पर गांव के कई साथी जुटते थे। बाद में फागराम जुड़े और कई बार जनपद, जिला व विधानसभा चुनाव भी लड़ा, हालांकि इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। जनपद और जिला पंचायत में निर्वाचित भी हुए। अब वे ही संगठन की अग्रणी पंक्ति में हैं।
कई बार मैंने सुनील भाई को गांव के लोगों के साथ मिलकर खाना खाते देखा था। जब लम्बे आंदोलन चलते थे तो गांव के लोग घर से मक्के की रोटी, महुआ का भुरका, भुना चून ( आटा), मिर्ची की चटनी और कांदा ( प्याज) लाते थे। सुनील भाई गांव वालों के साथ ही खाना खाते थे, चाहे वह दो-दिन का बासा भी हो। उन्होंने एक सादगी व आदर्शपूर्ण जीवन जिया। सुनील भाई के ठोस विचार केसला की ठोस जमीन, गहरी खोज और अनुभव से निकले थे। वे लगातार इस नजरिये से लिखते रहे हैं। विचार शून्य में नहीं बनते जीवन की स्थितियों का इसमें योगदान होता है।
जब वर्ष 2012 के आसपास सामयिक वार्ता पत्रिका दिल्ली से इटारसी आई तब हमारा मिलना-जुलना नियमित हो गया। मैं वार्ता के संपादन में उनका सहयोगी था। सामयिक घटनाओं पर लगातार बातचीत होती रही। उनके विचार और स्पष्टता से जानने को मिले। कुछ लोग पूछते हैं कि सुनील भाई होते तो आज की घटनाओं पर क्या कहते, क्या लिखते। देश-दुनिया में हो रहे बदलाव पर वे क्या कहते। कैसे विश्लेषण करते। सवाल कठिन है, और इसका जवाब देना मेरे लिए मुश्किल है।
लेकिन उनके साथ काम करने के दौरान मैंने यह जाना कि सुनील भाई के सोचने का एक ढंग था, घटनाओं को उनका अपना देखने का नजरिया था। वार्ता में वे नए लेखकों से संवाद बनाना पसंद करते थे, उन्हें लिखने के लिए प्रेरित करते थे। अगर अंग्रेजी का कोई लेख आता तो स्वयं उसका अनुवाद करते। कई बार अगर कोई लेख थोड़ा जटिल होता तो वे उसको रीराइट करते। हम लोग हर अंक के लिए योजना बनाते। किस मुद्दे पर अंक केंद्रित करना है, इस पर सोचते। अंक निकलने के बाद सुनील भाई उस पर जगह-जगह गोष्ठियां करते। नए-नए सदस्यों को वार्ता से जोड़ते। इस तरह यह सिलसिला चलता रहता।
सुनील भाई, समाजवादी विचारों से ओत-प्रोत थे। वे द्रष्टा थे, एक नेता थे। लेकिन अपने विचारों पर दृढ़ होते हुए भी दूसरों की राय को तरजीह देते थे। संवाद, चर्चा और विचार-विमर्श को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। समस्याओं का हल सामूहिक निर्णय प्रक्रिया के द्वारा निकालने पर बल देते थे। संगठन के कामों के लिए हमेशा चंदा एकत्र करने पर जोर देते थे और कार्यक्रम होने के तत्काल बाद उसका सार्वजनिक रूप से हिसाब पेश कर देते थे। यानी साध्य और साधन की शुचिता पर जोर देते थे।
किसान आदिवासी संगठन से शुरू होकर यह जिले के पिपरिया-बनखेड़ी क्षेत्र में किसान मजदूर संगठन के माध्यम से आगे बढ़ा। बैतूल, हरदा, खंडवा में श्रमिक आदिवासी संगठन के रूप में फैला। पिपरिया में समाजवादी विचार से प्रेरित युवाओं का समूह काफी सक्रिय हुआ करता था, जिनके अनूठे रचनात्मक कामों को लोग अब भी याद करते हैं। जन सहयोग से समता अध्ययन केन्द्र चलाना भी उनमें से एक है। ये संगठनों की अपनी स्वतंत्र पहचान है, पर आपस में भाईचारा है। समाजवादी जनपरिषद से इनका जुड़ाव है। समाजवादी चिंतक किशन पटनायक व समाजवादी विचार प्रेरणास्रोत रहे हैं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि सुनील भाई साधारण जीवन जीते हुए भी असाधारण थे। एक बात और उनसे सीखी जा सकती है कि कभी भी अकेले पड़ने से डरना नहीं चाहिए, चाहे जैसी भी कठिन परिस्थितियां आएं। उनके भविष्य के आर-पार देखने की दृष्टि थी, जिससे वे सदैव ही नई परिस्थितियों में नई राह पकड़ते थे। वह पूरी तरह जनता के थे, उनके बीच रहते थे, उनके लिए लड़ते थे।
जब समाज में जीवन मूल्य इतने गिर गए हों, कोई बिना लोभ-लालच के काम न करता हो, तब सुनील भाई के जीवन को देखकर प्रेरणा ली जा सकती है। उनके जीवन को देखकर किसी भी देशप्रेमी का दिल उछल सकता है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी के लिए कहा था कि आनेवाली पीढ़ियां शायद मुश्किल से ही यह विश्वास करेंगी कि गांधी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा। सुनील भाई के लिए भी यह वाक्य सटीक बैठता है। अब सुनील भाई नहीं हैं, उनका निधन 21 अप्रैल,2014 को हो गया, पर उनके विचार सदैव प्रेरणा देते रहेंगे।


