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सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी थे सुंदरलाल टांकभौरे

इतिहास संदेश एक रिसर्च जर्नल पत्रिका थी। बड़े महत्वपूर्ण एवं नपे-तुले लेख ही प्रकाशित किये जाते थे।

सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी थे सुंदरलाल टांकभौरे
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-संजीव खुदशाह
इतिहास संदेश एक रिसर्च जर्नल पत्रिका थी। बड़े महत्वपूर्ण एवं नपे-तुले लेख ही प्रकाशित किये जाते थे। उन्हीं की प्रेरणा से मंैने 'सुदर्शन समाज का इतिहास' नाम से लेख लिखा जो काफी चर्चित हुआ। यही लेख बाद में देशबन्धु अखबार के संडे अंक की कवर स्टोरी बना। ज्यादातर लोगों ने इस लेख की प्रशंसा की। कुछ लोगों ने आपत्ति भी किया कि जिनकी रोजी-रोटी इस लेख से खतरे में आ गई थी।

मुझे याद है सन् 2006 में पहली बार नेकडोर के एक कार्यक्रम के दौरान नई दिल्ली में उनसे मुलाकात हुई। उन्हीं दिनों मेरी किताब 'सफाई कामगार' समुदाय प्रकाशित हुई थी एवं काफी चर्चा में थी। वहां देश भर से दलित लेखक एक्टीविस्ट आये हुए थे। कार्यक्रम के बीच-बीच में एक दूसरे से मुलाकात, परिचय का दौर चलता। ऐसे ही एक सेशन के बाद सुन्दरलाल टांकभौरे से मेरी मुलाकात हुई। वे बिहार के मोतीलाल आनंद के साथ थे। उन्होंने पूछा- आप कौन है? कहां से आये हैं? तो मैंने जवाब दिया 'जी मैं संजीव खुदशाह बिलासपुर से आया हूं।' वे दोनों एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। फिर मोतीलाल आनंद ने कहा 'क्या आपका कोई आई कार्ड या परिचय पत्र है?' उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि 'सफाई कामगार' समुदाय जैसी गंभीर किताब का लेखक मैं ही हूं। उस समय मैं काफी यंग था। मैंने अपना परिचय पत्र दिखाया तो उन्हें यकीन हुआ कि मै ही संजीव खुदशाह हूं। हम बड़े खुश हुए एक दूसरे से मिल कर और एक किनारे जा कर बातें करने लगे।


हालांकि टांकभौरे जी के नाम से मैं पहले से ही परिचित था क्योंकि उनकी पत्नी प्रसिद्ध दलित साहित्यकार सुशीला टांकभौरे मेरी किताब सफाई 'कामगार समुदाय' के लोकार्पण कार्यक्रम में रायपुर आ चुकी थीं। टांकभौरे जी पहले तो किताब की बात करने लगे फिर सामाजिक मुद्दों पर आ गये। कहने लगे हमारा समाज अम्बेडकरी आंदोलन से दूर है। उन्हें आंदोलन से जोड़ने के लिए कुछ करना होगा। इस तरह सुन्दरलाल टांकभौरे और मोतीलाल आनंद से परिचय बढ़ता गया।


तीन दिन तक हुए इस कार्यक्रम में एक सेशन सफाई कामगारों पर था जिसमें वक्ता के रूप में एडवोकेट भगवान दास, सुन्दरलाल टांकभौरे समेत इन पंक्तियों के लेखक भी शामिल हुए। इसी कार्यक्रम में मैंने देखा इतनी उम्र हो जाने के बावजूद उनके अंदर दलित समाज के लिए कुछ करने का जज़्बा जोर मार रहा था। वे प्रतिदिन शाम को विभिन्न लोगों के साथ बैठकर बात करते, संगठित होने की बात करते। मुझे साथ जरूर रखते। वे कहते यंग व्यक्ति को समाज के काम के लिए आगे आना चाहिए। कई बैठकों के बाद राकेश बहादुर के यहां कालका हरियाणा में बैठक लेकर एक नया संगठन बनाने का निर्णय हुआ जो सफाई कामगारों के हितों के लिए काम करेगी।
इस प्रकार सुन्दरलाल टांकभौरे जी के साथ मुलाकात का दौर शुरू हो गया। बुजुर्ग हो जाने के कारण बोलते-बोलते वे भूल जाते, विषयांतर हो जाता जिसका बाद में वे खेद व्यक्त करते। उनका डिफेंस कालोनी में रमणिका गुप्ता के साथ परिचय हुआ।


टांकभौरे जी सफाई कामगार समाज की जागृति के लिए हमेशा चिंतित रहते थे। कुछ न कुछ योजना बनाते रहते थे। उन्होंने अपनी पत्नी लेखिका सुशीला टांकभौरे के साथ मिलकर 'जाग बिरादर' नाम की मासिक पत्रिका भी आरंभ की थी। जो वाल्मीकि सुदर्शन मखियार आदि सफाई कामगार समाज पर केन्द्रित होती थी।
काफी समय बाद नागपुर विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में जाना हुआ तो ज्ञात हुआ कि वे अंबेडकर थाट में पीएचडी कर रहे हैं। हालांकि उनकी पीएचडी पूरी नहीं हो पाई। लेकिन ये देख कर आश्चर्य होता है कि एक 70-80 साल के बुजुर्ग इस उम्र में भी पढ़ाई कर रहे हैं। वे वामन मेश्राम वाले बामसेफ से अंत तक जुड़े रहे। एक बार वे रायपुर में बामसेफ से जुड़े कार्यक्रम में आये थे। उन्होंने वामन मेश्राम से मेरी मुलाकात करवाई थी। इसी समय उन्होंने बताया कि वे इतिहास संदेश नाम से पत्रिका निकाल रहे हैं। मुझे भी इससे जोड़ने की बात कही।
वे लगातार प्रेरित करते कि मैं इतिहास संदेश के लिए लेख लिखूं। कई लेख मंैने लिखे भी। वे लेख का विषय तो बताते ही साथ-साथ उनका संदर्भ सामग्री भी उपलब्ध कराते या बताते कि कहां मिलेगी। इतिहास संदेश एक रिसर्च जर्नल पत्रिका थी। बड़े महत्वपूर्ण एवं नपे-तुले लेख ही प्रकाशित किये जाते थे। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने 'सुदर्शन समाज का इतिहास' नाम से लेख लिखा जो काफी चर्चित हुआ। यही लेख बाद में देशबन्धु अखबार के संडे अंक की कवर स्टोरी बना। ज्यादातर लोगों ने इस लेख की प्रशंसा की। कुछ लोगों ने आपत्ति भी किया कि जिनकी रोजी-रोटी इस लेख से खतरे में आ गई थी। टांकभौंरे जी का कहना था कि समाज के लोगों ने तो अंबेडकर तक को जलील करने से नहीं छोड़ा तो हम आम किस खेत की मूली हैं। समाज सुधार के लिए यदि उन्हें कड़वी गोली की जरूरत पड़े तो भी उसे पिलाना चाहिए। वे कहते थे कि यदि समाज की तारीफ पाना है तो उनके बहाव में बहते चले जाओ। गलत को सही कहो तो वे खुश रहेंगे। लेकिन यदि समाज को मिशन की ओर ले जाना है तो कुछ खरते उठाने होंगे।
इसी बीच उनकी पत्नी सुशीला टाकभौंरे की आत्मकथा 'शिकंजे का दर्द' प्रकाशित इुई जिसमें सुशीला जी ने अपने पति पर कई आरोप लगाए थे। इसके बाद दोनों पति पत्नी की तल्खी जगजाहिर हो गई। लेकिन सुंदरलाल जी कभी अपनी पत्नी पर आरोप प्रत्यारोप करते या सफाई देते नहीं देखा गया। आत्मकथा की चर्चा के बाद सुंदरलाल जी काफी असहज हो जाते थे। बावजूद इसके उन्होंने लेखन, पढ़ाई, संपादन का काम नहीं छोड़ा, और जोश से करते रहे। यूट्यूब चैनल डी एम ए इंडिया को दिये गये एक साक्षात्कार में बताते हैं कि उन्होंने जाग बिरादर नाम की पत्रिका का पुन: प्रकाशन शुरू किया है। जिसके संपादन एवं सहयोग की जिम्मेदारी नागपुर के हरीश जानोरकर को दी है।
किन्हीं कारणों से इतिहास संदेश का प्रकाशन रुक गया था। इस पत्रिका में लिखी गई उनकी सम्पादकीय बेहद महत्वपूर्ण होती थी। प्रूफ से लेकर संयोजन तक उत्कृष्ट होते थे जो इसे नई ऊंचाइयों तक ले गये।
आज वे हमारे बीच नहीं हैं एक जीवट एवं सुलझे हुए व्यक्ति को हमने खो दिया। उनके जाने के बाद उनका अधूरा काम वैसा ही पड़ा हुआ है। उन्होंने बताया कि वे कुछ किताबों पर काम कर रहे हैं। वह भी अधूरी होगी। उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके कामों को प्रकाशित किया जाय आगे बढ़ाया जाय।
विनम्र श्रद्धांजलि


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