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बुनियादी जरूरतों के बिना मेडिकल स्टूडेंट कैसे बनें डॉक्टर?

मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे छात्र व्यवस्थाओं से खुश नहीं हैं. उन्हें अपने काम की जगह ‘टॉक्सिक' लगती है

बुनियादी जरूरतों के बिना मेडिकल स्टूडेंट कैसे बनें डॉक्टर?
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मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे छात्र व्यवस्थाओं से खुश नहीं हैं. उन्हें अपने काम की जगह ‘टॉक्सिक' लगती है. हाल ही में जारी एक रिपोर्ट इन कॉलेजों में लैब, दवाई और प्रशिक्षित प्रोफेसरों की कमी को दिखाती है.

भारत में मेडिकल कॉलेजों में शिक्षा की व्यवस्था, इंफ्रास्ट्रक्चर और छात्रों की मानसिक स्थिति को लेकर गंभीर चिंताएं सामने आई हैं. एक सर्वे से इसका पता चला है. फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया मेडिकल एसोसिएशन (फाइमा) की ओर से किए एक सर्वे में देश के 40 फीसदी मेडिकल स्टूडेंट्स ने अपने कॉलेज में काम के माहौल को ‘टॉक्सिक' बताया है. जबकि 55 फीसदी स्टूडेंट्स ने स्टाफ की कमी की शिकायत की है. इस सर्वे में 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 2000 से अधिक मेडिकल स्टूडेंट, टीचर और प्रोफेसरों को शामिल किया गया. इनमें 90 फीसदी प्रतिभागी सरकारी अस्पताल और मेडिकल संस्थानों के हैं.

मेडिकल छात्रों ने कॉलेजों में खराब इंफ्रास्ट्रक्चर को पढ़ाई में बाधा का मुख्य कारण बताया है. लगभग 89 फीसदी प्रतिभागियों को लगता है कि कॉलेजों की बिल्डिंग, लैब और बाकी सुविधाएं अच्छी नहीं हैं. वहीं सिर्फ 54.3 फीसदी स्टूडेंट्स को रेगुलर क्लास मिलती है. मेडिकल क्षेत्र में पढ़ाई के साथ-साथ प्रैक्टिकल अनुभव की अहमियत भी होती है. फिर भी केवल 44 प्रतिशत कॉलेजों में स्किल्स लैब उपलब्ध हैं. जबकि 69 फीसदी स्टूडेंट्स का कहना है कि उन्हें लैब और मशीनों की सुविधा संतोषजनक लगती है.

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सरकारी कॉलेजों और अस्पतालों में इलाज कराने आने वाले मरीजों की संख्या ज्यादा होती है. इसलिए इन कॉलेजों में पढ़ रहे छात्रों को काफी अनुभव हो जाता है. उन पर काम का बोझ भी बहुत ज्यादा होता है. इन प्रतिष्ठित कॉलेजों से पढ़कर निकलने के बाद माना जाता है कि अब ये छात्र बिना सीनियर की मदद के खुद से मरीजों का इलाज कर सकेंगे. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इन कॉलेजों में से निकलने वाले सिर्फ 57 फीसदी स्टूडेंट ही खुद को डॉक्टर बनकर अकेले काम करने के लिए तैयार मानते हैं.

कहां है भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था?

हाल ही में देश के गृह मंत्री अमित शाह ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि सरकार ‘समग्र स्वास्थ्य प्रणाली' विकसित करने पर काम कर रही है. उन्होंने बताया था कि साल 2014 में स्वास्थ्य बजट 37 हजार करोड़ रुपये था जो अब 1.27 लाख करोड़ रुपये हो गया है. अमित शाह ने यह भी कहा था कि मोदी सरकार के कार्यकाल में लगभग 65 हजार करोड़ रुपये स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर में खर्च किए गए हैं.

भारत स्वास्थ्य के क्षेत्र पर अपनी कुल जीडीपी का लगभग 3.8 प्रतिशत खर्च करता है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के कम से कम 5 प्रतिशत के सुझाव से यह बहुत कम है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल 31 जनवरी को संसद में जो आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 पेश किया था, उसमें उन्होंने भारत के स्वास्थ्य खर्च को लेकर एक सकारात्मक तस्वीर पेश की थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार ने 2024-25 में स्वास्थ्य पर कुल 6 लाख करोड़ रुपए का खर्चा किया. यह साल 2020-21 में किए 3.2 लाख करोड़ रूपए का दुगना है.

काम के बोझ तले दबे स्वास्थ्यकर्मी और डॉक्टर

कोविड महामारी के समय भारत की स्वास्थ्य प्रणाली की कमजोरियां पूरी दुनिया के सामने आईं. इस पर बात हुई कि देश के कई हिस्सों में अस्पतालों में जरूरी उपकरण, डॉक्टरों की कमी और बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं का अभाव कितना गंभीर है. फिर भी ग्रामीण और छोटे शहरों में हालात अब भी बेहद खराब बने हुए हैं. फिलहाल एक भारतीय डॉक्टर पर 1500 मरीजों का भार है. जबकि डब्लूएचओ के सुझाए मानक के अनुसार एक डॉक्टर अधिकतम 1000 मरीजों को ही देख सकता है.

इसी तरह नर्सों की स्थिति भी चिंताजनक है. भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट खुद बताती है कि सरकारी अस्पतालों, खासकर तालुक, जिला और मेडिकल कॉलेजों में डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिकल स्टाफ की भारी कमी है. दवाइयों की उपलब्धता में भी कमी पाई गई है. फाइमा के सर्वे में भी यही बातें सामने आई हैं.

इस सर्वे के चीफ कोऑर्डिनेटर डॉ सजल बंसल बताते हैं कि नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) इन कॉलेजों में नियम पालन ना किए जाने को लेकर पहले ही चेतावनी दे चुका है. सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पतालों में स्टाफ की कमी के चलते एमबीबीएस और रेजिडेंट डॉक्टरों को उनका भी काम करना पड़ता है. डॉक्टर हफ्ते में 100 से 120 घंटे काम करते हैं. जबकि पिछले साल एनएमसी के टास्क फोर्स ने सुझाव दिया था कि रेजिडेंट डॉक्टर से हफ्ते में 74 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता.

अस्पतालों में सबसे जरूरी बुनियादी सुविधाएं भी पूरी नहीं होतीं. उदाहरण के लिए अस्पतालों में मरीजों को ले जाने के लिए पर्याप्त स्ट्रेचर नहीं हैं. दिल्ली के आरएमएल जैसे बड़े सरकारी अस्पतालों में भी अक्सर पैरासिटामोल जैसी सामान्य और जरूरी दवाइयां नहीं मिलतीं. जिसकी वजह से इन एमबीबीएस छात्रों और पीजी कर रहे डॉक्टरों को इलाज करने में देरी और परेशानी होती है.

सिर्फ मेडिकल कॉलेज बढ़ने से फायदा नहीं

जानकार कहते हैं कि सरकार भले ही मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ा रही हो पर उनकी गुणवत्ता नहीं बढ़ रही. साल 2024 के आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल 766 मेडिकल कॉलेज हैं. इनमें से 423 सरकारी और 343 निजी हैं. निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. हाल ही में अडानी ग्रुप ने मायो क्लिनिक (अमेरिका) के साथ साझेदारी में 6 हजार करोड़ रूपए का निवेश किया है. इसके तहत मुंबई और अहमदाबाद में 1000 बेड का मल्टी‑स्पेशलिटी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज बनाया जाएगा.

डॉ सजल बंसल डीडब्लू से कहते हैं, "निजी अस्पतालों की स्थिति सरकारी अस्पतालों से भी खराब है. सरकारी मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र कठिन प्रवेश परीक्षा पास करके आते हैं. जबकि निजी कॉलेजों में अक्सर ऐसा सख्त मापदंड नहीं होता. उनके प्रोफेसर भी ज्यादा प्रशिक्षित नहीं होते. इसलिए मरीज उन पर विश्वास नहीं करते. फिर वहां इलाज महंगा होने की वजह से कम मरीज आते हैं, जिससे रेजिडेंट डॉक्टर और मेडिकल छात्र पर्याप्त प्रैक्टिकल अनुभव नहीं प्राप्त कर पाते. इसका सीधा नुकसान गरीब और मध्यम वर्ग की जनता को होता है क्योंकि इन मेडिकल कॉलेजों से कम योग्य डॉक्टर बाहर निकल रहे हैं.”

तो क्या जरुरी है?

फाइमा का मानना है कि सरकारी कॉलेजों में स्थिति बेहतर है लेकिन उनकी अलग समस्याएं हैं. इन कॉलेजों में अच्छी फैकल्टी और रिसर्च सुविधाएं तो हैं लेकिन इनमें पढ़ने वाले छात्रों पर दबाव बहुत ज्यादा है. इसलिए सरकारी मेडिकल कॉलेजों में आत्महत्या करने वाले छात्रों का आंकड़ा भी चिंताजनक है. एनएमसी के अनुसार पिछले पांच वर्षों में कम से कम 122 मेडिकल स्टूडेंट्स ने आत्महत्या की है. इनमें 64 एमबीबीएस और 58 पोस्टग्रेजुएट स्टूडेंट शामिल हैं.

फाइमा के सह-अध्यक्ष डॉ. वी. विग्नेश डीडब्लू से कहते हैं, "डॉक्टरों को अधिक समय तक बिना सोए ड्यूटी करनी पड़ रही है. उन्हें अपने सीनियर से सपोर्ट नहीं मिल रहा. अस्पतालों में उनके सोने और टॉयलेट की व्यवस्था नहीं होती. उनके लिए मेंटल काउंसिलर नहीं रखा जाता जिनसे वो अपनी मानसिक स्थिति के बारे में बात कर सकें. असल जरूरत नए मेडिकल कॉलेज खोलने की नहीं बल्कि मौजूदा कॉलेजों में योग्य और अनुभवी शिक्षकों की नियुक्ति और इन संस्थानों के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने की है ताकि इन कॉलेजों से अच्छे डॉक्टर निकलें.”

फिलहाल फाइमा ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और एनएमसी से तुरंत हस्तक्षेप की मांग की है. मौजूदा हालात को देखते हुए देश की मेडिकल शिक्षा व्यवस्था में जल्द और ठोस सुधार आवश्यक हैं. इसके तहत बुनियादी ढांचे को मजबूत करना, पर्याप्त शिक्षकों और स्टाफ की नियुक्ति, छात्रों पर बढ़ते क्लेरिकल काम का बोझ कम करना और समय पर स्टाइपेंड सुनिश्चित करना बेहद जरुरी है.


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