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समाज की महीन बुनावट को समझातीं कहानियाँ

तस्वीर जो दिखती नहीं' सुपरिचित कथाकार-उपन्यासकार कविता वर्मा का तीसरा कहानी संग्रह है

समाज की महीन बुनावट को समझातीं कहानियाँ
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- मालिनी गौतम

'तस्वीर जो दिखती नहीं' सुपरिचित कथाकार-उपन्यासकार कविता वर्मा का तीसरा कहानी संग्रह है। बोधि प्रकाशन से आये इस संग्रह में उनकी तेरह कहानियां संकलित हैं। यूँ तो गद्य की कोई भी किताब पढ़ने में मुझे अच्छा-खासा वक्त लग जाता है, लेकिन कविता वर्मा की ये कहानियाँ सिर्फ दो ही बैठकों में अपने आपको पढ़वा गयीं। इन कहानियों को पढ़कर मन में एक तरफ चुप-सी लग गई तो दूसरी तरफ़ उस चुप को भेदते हुए न जानें कितने ही प्रश्नों का कोलाहल सिर उठाने लगा। मैं कुछ देर रहना चाहती थी चुपचाप इन कहानियों के पात्रों के साथ। मैं बतियाना चाहती थी 'शीशमहल' की टीना, 'सूखे पत्तों के शोर में दबी बात' की प्रिया, 'तस्वीर जो दिखती नहीं' की वंशिका, 'भ्रम' की मेघना, 'दो औरतें' की सुनंदा, 'अंतिम प्रश्न' की दादी और 'टूटे ख्वाबों की ताबीर' की विभावरी से। इन स्त्री चरित्रों के मध्य 'पीर पिरावानी' का देवराज भी कहीं बाट जोहे बैठा था कि उसकी पीर भी सुनी जाये। लेकिन इन पात्रों ने जो सामूहिक कोलाहल रचा उसे शब्द दिए बगैर मेरा भी गुज़ारा संभव न था।

इतने स्त्री किरदारों के नामों से एक बात तो साफ़ है कि कविता वर्मा की कहानियों में स्त्री पात्र मुखर हैं। यहाँ स्त्री अपने तमाम रूपों में हमारे सामने आती है। 'शीशमहल' की टीना और उसकी माँ शुरुआत में दो अलग-अलग पात्र नज़र आते हैं। टीना को आक्रोश है अपने पिता के सामने क्योंकि उसे और उसके भाई को कभी पिता से वह प्यार नहीं मिला, वह परवाह नहीं मिली जिसकी उम्मीद किसी भी बच्चे को होती है। जबकि उसकी माँ परिवार के मान-सम्मान को बचाने के लिए, पति के पौरुष पर आँच न आने देने के लिए, परिवार के दबाव में ज़िन्दगी भर दुख झेलकर भी विवाह संस्था में बनी हुई है ओर सफल गृहस्थ जीवन का ढोंग रच रही है। कहानी के अंत तक आते-आते टीना भी हमें अपनी माँ के साथ खड़ी मिलती है जो इस भ्रम की चादर का एक सिरा संभाले खड़ी है। इन्हीं सामाजिक परिस्थितियों की मारी मेघना भी एक और भ्रम बनाए रखती है।

'भ्रम' कहानी में मायकेवाले बेटी को शादी के बाद सिर्फ मेहमान समझते हैं। उसकी सगी अम्मा मायके आने पर खूब आतिथ्य सत्कार करती है। सामर्थ्य से अधिक उपहार देकर विदा करती है लेकिन गलती से भी उसके ससुराल के बारे में, उसके हालचाल के बारे में एक शब्द नहीं पूछती। क्योंकि वह जानती है कि ससुराल में उसकी सास और जेठानी कर्कशा हैं। वह डरती है कि सांत्वना पाकर बेटी अगर ससुराल से मायके वापिस आ गई तो क्या होगा? मेघना इस परायेपन के अपमान को सहन करते हुए भी हर बरस एक माह मायके में आकर रहती है क्योंकि वह ससुराल वालों के सामने यह भ्रम बनाए रखना चाहती है कि उसका एक घर और भी है।

समाज के पुराने रीति-रिवाजों में जकड़ी हुई स्त्री की बेचारगी, मजबूरी और दुर्दशा से भरी संवेदनशील कहानियाँ अगर इस संग्रह में हैं तो वहीं नये ज़माने की स्त्री - जो अपना अच्छा बुरा समझती है, जो अपने करियर के प्रति सचेत है और इस पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों द्वारा स्त्रियों के विरुद्ध रची जाने वाली साजिशों से वाकिफ़ हैं वे भी नज़र आती है। 'सूखे पत्तों के शोर में दबी बात' की प्रिया, मुनीश की जिद पर ही न्यू ईयर की कपल पार्टी में गई थी लेकिन इस आधार पर उसे मुनीश के माँ बाप चरित्रहीन समझें और अपने बेटे को चरित्रवान - यह उसे स्वीकार नहीं है। वह जानती है कि मुनीश यदि चाहे तो अपने माँ-बाप को शादी के लिए राजी कर सकता है। प्रेम के हाथों बेबस और लाचार होने के बजाय वह कहती है कि अगर तुम दो दिन में समझा सको अपने माँ-बाप को तो ठीक है नहीं तो मैं अपने माँ-बाप को और परेशान नहीं कर सकती....। वहीं इस संग्रह की शीर्षक कहानी 'तस्वीर जो दिखती नहीं' की वंशिका प्रशासनिक सेवा में चयन के लिए रात-दिन मेहनत करते हुए कलेक्टर बन तो जाती है, लेकिन परीक्षा देते समय जिस रुद्र के साथ वह हर प्रश्न साझा करती थी उसी रुद्र के साथ वह शादी के बाद नौकरी की हर चीज़ साझा नहीं करने का निर्णय लेती है, क्योंकि आज भी हमारे समाज में पति की तुलना में पत्नी का बड़े पद पर होना कहीं न कहीं गृह क्लेश का कारण होता है। नौकरीपेशा स्त्री को एक तरफ मातृत्व के लिये छह महीने की छुट्टियां दी जाती है लेकिन छह महीने बाद जब वह वापस लौटती है तो वह तरक्की की दौड़ में बहुत पिछड़ चुकी होती है। वंशिका इसे भी एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर दस दिन बाद ही नौकरी जॉइन कर लेती है और अपने करियर को बचाने का अभूतपूर्व निर्णय लेती है।

हम से एक पीढ़ी पहले की दादी-नानी रीति-रिवाज़ों में जकड़ी हुई बेशक हैं लेकिन 'अंतिम प्रश्न' की दादी अपने अंतिम प्रश्न से सबको अचंभित कर देती हैं। वे पूरी जिंदगी घर की बेटी मिनी को अनुशासन और कायदों में रखती हैं, लेकिन शादी के बाद जब मिनी का पति मुकुल उस पर शक करता है और मिनी उसके तानों से परेशान होकर घर आ जाती है तब पूरी बात जानने के बाद परिवार के अन्य सदस्यों के साथ दादी भी मिनी के पक्ष में ही खड़ी मिलती है और मुकुल से कहती हैं कि किसी भी औरत के पास इस बात का कोई सुबूत नहीं होता कि 'कुछ भी नहीं हुआ' और हर पुरुष यह शक करना कभी नहीं छोड़ता की 'कुछ तो हुआ होगा'। मेरी बेटी ज़िन्दगी भर आपके ताने-उलाहने सहन करने के लिए नहीं बनी है। वह पूरी ज़िन्दगी तुम्हारे शक का बोझ नहीं ढोएगी। तो अब आप बताओ आप चाहते क्या हो ? इस तीक्ष्ण प्रश्न के पीछे दादी की कलाई पर जले का वह निशान है जो पचास बरस पहले उनके मौसेरे भाई के साथ छत पर अकेले बात करते पकड़े जाने पर बनाया गया था।

संक्षेप में अगर कहूं तो हम इन कहानियों के बहाने अपने जीवन को किसी न किसी रूप में देखते हैं। इन कहानियों में हमें हमारे जीवन व समाज में चारों तरफ फैले और उलझे ताने-बाने नज़र आते हैं। अगर यहाँ एक स्त्री का बेबस और लाचार वजूद मात्र है तो नयी उड़ान भरने की तैयारी का जोश भी है। यहाँ स्त्री ही स्त्री की साथी है।

उसके सुख-दुख को कभी समझती हुई-सी तो कभी पूरी तरह नज़रंदाज़ करती हुई-सी। इसी तरह देखें तो पुरुष पात्र भी अपनी नकारात्मकता और सकारात्मकता के साथ इन कहानियों में मौजूद हैं। इन कहानियों को पढ़ना हमारे समाज की महीन बुनावट को समझना है। जीवन की उलझनों को टटोलते-टटोलते पाठक पर पकड़ बनाए रखने के लिए लिखी जाने वाली लिजलिजी और चिपचिपी कहानियों से दूर ये साफ़-सुथरी कहानियाँ किसी फिसलन भरे रास्ते पर नहीं ले जातीं बल्कि समाज और मानव मन को नजदीक से जानने-समझने का अवसर प्रदान करती हैं। प्रिय कविता वर्मा को बहुत बधाई इस नए संग्रह के लिये...साहित्य जगत में इस संग्रह का उत्साहपूर्वक स्वागत हो, यही शुभकामनाएं।


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