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पहले 'वास्तविक' सुधारों की दिशा में कदम उठाने चाहिए

इस समय देश सेवानिवृत्त लोगों को तयशुदा लाभ प्रदान करने वाली नई पेंशन योजना बनाम पुरानी योजना के गुणों पर एक अंतहीन बहस में व्यस्त है

पहले वास्तविक सुधारों की दिशा में कदम उठाने चाहिए
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- जीएन बाजपाई

यहां हमें बड़े सवालों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है- हमारे संस्थानों की तत्परता तथा मजबूती, हमारी शासन प्रबंध की गुणवत्ता व उन मानसिकताओं पर जिनके साथ ये प्रणालियां आम आदमी तक पहुंचने के लिए काम करती हैं और जो इस प्रणाली से फायदा उठाने वाले लोगों की छुट्टी करने के लिए काम करती हैं। अब समय आ गया है कि सुधारों के किसी भी नए दौर को शुरू करने से पहले हम इन प्रणालियों में से सबसे बड़ी पद्धति को देखें।

इस समय देश सेवानिवृत्त लोगों को तयशुदा लाभ प्रदान करने वाली नई पेंशन योजना बनाम पुरानी योजना के गुणों पर एक अंतहीन बहस में व्यस्त है। विभिन्न मानदंडों के आधार पर नए समूहों के लिए आरक्षण और कोटा के मुद्दे पर भी बहुत खींचतान है। इसके अलावा सरकार को जवानों को कम अवधि के लिए काम पर रखने की योजना पर फिर से काम करने के लिए गंभीर दबाव का सामना करना पड़ा है। इनमें से प्रत्येक में और इसी तरह की कई अन्य स्थितियों में इस बात को लेकर तनाव है कि नकदी की कमी से जूझ रही सरकार को कभी न खत्म होने वाले आधार पर समाधान और वेतन देने के लिए कहा जा रहा है जो उन दिनों की याद दिलाता है जब सरकारों को सहायक के रूप में काम करने के बजाय प्रदाताओं के रूप में देखा जाता था। 'राजकोषीय विवेक' पर 'प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद' हावी है।

आर्थिक सुधारों से यह अपेक्षा थी कि यह स्थिति बदलनी चाहिए लेकिन जिस तरह से हमारे सुधारों की शुरुआत हुई है उसे देखते हुए स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं हुआ है। इसलिए अब हम 'दूसरी पीढ़ी' के सुधारों के बारे में सुन रहे हैं- अधिक खुलेपन, सेवाओं से सरकार की अधिक वापसी और उदार ढांचे के तहत निजी कंपनियों पर अधिक निर्भरता होगी। फिर भी, एक आसान सा मूल सवाल जो अभी भी पूछा नहीं गया है कि जब डॉ. मनमोहन सिंह जैसे अनुभवी अर्थशास्त्री की निगरानी में चलाया गया सुधार का पहला दौर पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया तो हमें क्यों लगता है कि आर्थिक सुधारों का द्वितीय संस्करण किस तरह सफल होगा?

यहां हमें बड़े सवालों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है- हमारे संस्थानों की तत्परता तथा मजबूती, हमारी शासन प्रबंध की गुणवत्ता व उन मानसिकताओं पर जिनके साथ ये प्रणालियां आम आदमी तक पहुंचने के लिए काम करती हैं और जो इस प्रणाली से फायदा उठाने वाले लोगों की छुट्टी करने के लिए काम करती हैं। अब समय आ गया है कि सुधारों के किसी भी नए दौर को शुरू करने से पहले हम इन प्रणालियों में से सबसे बड़ी पद्धति को देखें और उन्हें सुधार कर फिर से तैयार करें या ठीक करें। आखिरकार किसी भी प्रणाली की जड़ में सुशासन है जो अपने सभी सदस्यों के लाभ के लिए काम करता है। यह बात छोटे समूहों के लिए भी उतनी ही सच है जितना कि यह एक बड़े समाज या एक राष्ट्र-राज्य के लिए है। आज हमारे शासन के लिए तय किये गए मानकों पर कई सवाल हैं जो हमें आज के एक बड़े सवाल की ओर ले जाते हैं: क्या हमने भारत के 75 साल पहले एक स्वतंत्र राष्ट्र बनने और खुद को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में गठित करने के समय किए गए वादों को पूरा किया है?

डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान सभा में ठीक ही कहा था- '... संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, जिन लोगों को उस पर काम करने के लिए बुलाया जाता है यदि वे बहुत बुरे होते हैं तो उसका बुरा होना निश्चित है। संविधान कितना भी खराब क्यों न हो अगर जिन लोगों को उस पर काम करने के लिए बुलाया जाता है, वे बहुत अच्छे होते हैं तो वह अच्छा साबित हो सकता है।' उसी भाषण में उन्होंने 'नायक पूजा और अराजकता का व्याकरण' तथा सामाजिक और आर्थिक जीवन में सर्वव्यापी असमानता की वास्तविकता के मद्देनजर संविधान में लिखी गई समानता के खतरों के खिलाफ चेतावनी दी थी।

इतने वर्ष गुजरने के बाद भी हम इन खतरों से किस तरह निपट रहे हैं? क्या सुशासन के हमारे मानकों को मजबूत किया जा रहा है या वे उस स्तर से पीछे हैं और हमें विफल कर रहे हैं? इस बात की व्यापक और निष्पक्ष समीक्षा करना उपयोगी हो सकता है कि देश को एक करने के लिए हमारे संविधान के घोष वाक्य- न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व प्रदान करने के मामले में स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद राष्ट्र कहां खड़ा है।

उन समतावादी मूल्यों के प्रभावी ढंग से लागू करने के सबसे महत्वपूर्ण संस्थान न्यायपालिका, नागरिक प्रशासन और देश की कानून और व्यवस्था प्रणालियां हैं। न्यायपालिका को ही ले लीजिए! भारत में अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित पड़े मामलों को देखते हुए यह कहावत सही साबित होती है कि 'न्याय में देरी न्याय से वंचित रखना है'। न्याय प्रदान करना महंगा है और कम आय वाली विशाल आबादी को देखते हुए न्याय की मांग करना और अधिक महंगा हो रहा है। न्यायिक व्यवस्था से संपर्क करना और इस अधिकार को सुरक्षित करना तो दूर की बात है। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड में लंबित मामलों का डैशबोर्ड है। यह बता रहा है कि देश की अदालतों में 4.27 करोड़ मामले लंबित हैं। मार्च, 2023 तक के आंकड़ों के मुताबिक इनमें से 70 प्रतिशत से अधिक मामले एक वर्ष से अधिक पुराने हैं।

नागरिक प्रशासन की बात करें जो नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण जीवन, आजीविका और अवसरों की सुविधा प्रदान करता है। नागरिक प्रशासन की कार्यप्रणाली से आम आदमी व्यथित है। यह स्पष्ट है कि 'अमीरों' को पर्याप्त संसाधन तथा अवसर मिलते हैं जबकि 'वंचितों' को समान व्यवहार के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। यह बात जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि जैसी सामाजिक संरचना प्रदान करने के साथ-साथ व्यवसाय तथा पेशे को आगे बढ़ाने के मामले के लिए भी लागू होती है। मुंबई जैसे तड़क-भड़क वाले शहरी केंद्रों में भी झुग्गी और गैर-झुग्गी आबादी के बीच सुविधाओं का असंतुलन दिखता हैं। गरीब स्पष्ट रूप से पानी, स्वच्छता, सड़कों आदि में पर्याप्त सेवाओं की कमी जैसे मसलों के साथ और कई अन्य अदृश्य तरीकों से पीड़ित हैं।

इसी तरह पुलिस प्रशासन द्वारा आम आदमी के साथ जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किया जाने वाला व्यवहार असमान है। साधनसंपन्न चालाक और पैंतरेबाज़ लोग अक्सर अपराध करने के बावजूद, यहां तक कि जघन्य अपराधों में भी सजा पाने से बच जाते हैं जबकि सामान्य व्यक्ति को दर्व्यवहार और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। पुलिस की प्रशासनिक प्रणाली में नागरिकों के खिलाफ हिंसा गहराई से अंतर्निहित है। कोई भी संस्थागत ढांचा जो शक्ति को अधिकृत और प्रत्यायोजित करता है, 'वसूली' के अवसर पैदा करता है। पारदर्शिता की कमी, जवाबदेही तथा आचरण की अस्पष्टता इस तरह के आचरण के सहायक और प्रवर्तक बन जाते हैं।

इन संस्थानों के कामकाज का व्यापक विश्लेषण दो मूलभूत समस्याओं की ओर इशारा करता है। सबसे पहली बात यह है कि इन संस्थानों का डिजाईन औपनिवेशिक युग की विरासत है। दशकों से इन संस्थानों का डिजाईन तथा संरचना बदलने की मांग विविधतापूर्ण और कई गुना बढ़ गई है। इन संस्थानों के डिजाईन और कार्यप्रणाली में अब तक किए गए मामूली बदलाव अपेक्षित परिणाम देने के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त हैं। दूसरी बात यह है कि जिन लोगों के पास अधिकार हैं तथा जिन्हें इन ठिकानों पर अधिकार और प्रत्यायोजित शक्तियां प्राप्त हैं उनमें से अधिकांश 'वसूली' के केंद्र बन गए हैं। जवाबदेही की कमी ने 'वसूली' की मांग को व्यापक और मुक्त बना दिया है। यह बताने की कोई जरूरत नहीं है कि साधनसंपन्न लोगों द्वारा इस सेटिंग का उपयोग पूरी ताकत के साथ खुद को लाभ पहुंचाने या सभी प्रकार के गैरकानूनी कामों के साथ-साथ दंड मुक्ति के लिए किया जाता है।

भारत को अब इन संस्थानों का डिजाईन फिर से तैयार करने पर ध्यान देना चाहिए। जहां तक 'वसूली' का सवाल है, यह एक मानवीय क्रिया है और इसे पूरी तरह से समाप्त करना लगभग असंभव है लेकिन इसे चार उपायों से- शिक्षा, जवाबदेही (मिसाल बनाने के लिए कठिन और तेज कार्रवाई के साथ), पारदर्शिता और प्रौद्योगिकी के उपयोग से कम किया जा सकता है। अगर इस कमी को मिशनरी जोश के साथ दूर नहीं किया गया तो इनके बारे में लोगों का पहले से ही डूब रहा विश्वास पूरी तरह से खत्म हो जाएगा।

अमेरिकी वकील तथा स्टेट्समैन हेनरी क्ले (12 अप्रैल, 1777-29 जून, 1852) ने कहा था- 'सरकार एक ट्रस्ट है तथा सरकार के अधिकारी ट्रस्टी हैं और ट्रस्ट और ट्रस्टी दोनों ही लोगों के लाभ के लिए बनाए गए हैं।' इस विश्वास पर खरा उतरने के लिए सुधारों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में कुछ बुनियादी बदलाव करने की जरूरत है। कई राजनीतिक-आर्थिक पंडित दूसरी पीढ़ी के सुधारों की बात करते हैं लेकिन वे अपनी सिफारिशों को उत्पादकता के कारकों के पूरक सुधारों तक सीमित रखते हैं। यदि हम वास्तव में एक महान राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं तो इसके लिए दूसरी पीढ़ी के सुधारों के तहत पूरे संस्थागत ढांचे को फिर से तैयार करने की आवश्यकता है। हमें स्वतंत्रता को संरक्षित करना चाहिए, संस्थानों को स्वतंत्र रूप से और बलपूर्वक काम करने की अनुमति देनी चाहिए लेकिन इसके साथ ही उन प्रणालियों पर कड़ी नजर रखनी चाहिए जो केवल लोगों का शोषण करने और खुद को बनाए रखने के लिए शक्ति का निर्माण करती हैं। सभी संस्थाओं को सामान्य नागरिक की सेवा के लिए काम करना चाहिए तथा उन पर खतरे की तलवार टंगी रहनी चाहिए कि यदि उन्होंने कोई लापरवाही की तो उन्हें भंग किया जा सकता है। यह लक्ष्य प्राप्त करने तथा न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व से भरे समतावादी समाज के निर्माण के अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए हमें कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता है।

(लेखक सेबी और एलआईसी के पूर्व अध्यक्ष हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)


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