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जब झारखंड के सीएम ने रावण को 'कुलगुरु' बता पुतला दहन से कर दिया था इनकार

विजयादशमी पर आज देश के कई हिस्सों में जगह-जगह पर रावण और कुंभकर्ण को बुराई का प्रतीक बता कर पुतलों का दहन किया जा रहा है, लेकिन झारखंड में कई जनजातियां रावण और महिषासुर को पूज्य मानती हैं। इसी मान्यता की वजह से वर्ष 2008 में झारखंड के सीएम रहे शिबू सोरेन ने रावण का पुतला दहन करने से इनकार कर दिया था

जब झारखंड के सीएम ने रावण को कुलगुरु बता पुतला दहन से कर दिया था इनकार
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रांची। विजयादशमी पर आज देश के कई हिस्सों में जगह-जगह पर रावण और कुंभकर्ण को बुराई का प्रतीक बता कर पुतलों का दहन किया जा रहा है, लेकिन झारखंड में कई जनजातियां रावण और महिषासुर को पूज्य मानती हैं। इसी मान्यता की वजह से वर्ष 2008 में झारखंड के सीएम रहे शिबू सोरेन ने रावण का पुतला दहन करने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि रावण महाज्ञानी पुरुष तो थे ही, वह उनके कुलगुरु रहे हैं। इसलिए वह उनका पुतला नहीं जला सकते।

इसी मान्यता की वजह से झारखंड की असुर जनजाति के लिए दशहरा शोक का वक्त है। महिषासुर इस जनजाति के आराध्य पितृपुरुष हैं। इस समाज में मान्यता है कि महिषासुर ही धरती के राजा थे, जिनका संहार छलपूर्वक कर दिया गया। यह जनजाति महिषासुर को ‘हुड़ुर दुर्गा’ के रूप में पूजती है। नवरात्र से लेकर दशहरा की समाप्ति तक यह जनजाति शोक मनाती है। इस दौरान किसी तरह का शुभ समझा जाने वाला काम नहीं होता। हाल तक नवरात्रि से लेकर दशहरा के दिन तक इस जनजाति के लोग घर से बाहर तक निकलने में परहेज करते थे।

झारखंड के गुमला, लोहरदगा, पलामू और लातेहार जिले के अलावा पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, मिदनापुर और कुछ अन्य जिलों में इनकी खासी आबादी है। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले के केंदाशोल समेत आसपास के कई गांवों में रहने वाले इस जनजाति के लोग सप्तमी की शाम से दशमी तक महिषासुर की मूर्ति ‘हुदुड़ दुर्गा’ के नाम पर प्रतिष्ठापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं।

दूसरी तरफ झारखंड के असुर जनजाति के लोग महिषासुर की मूर्ति बनाकर तो पूजा नहीं करते, लेकिन दीपावली की रात मिट्टी का छोटा पिंड बनाकर महिषासुर सहित अपने सभी पूर्वजों को याद करते हैं। असुर समाज में यह मान्यता है कि महिषासुर महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे, इसलिए देवी दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई। यह जनजाति गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम को महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है। प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की पूजा करने की परंपरा आज भी जीवित है। गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर, लातेहार जिला के महुआडाड़ प्रखंड के इलाके में भैंसा की पूजा की जाती है।

झारखंड की जनजातीय परंपराओं के जानकार पत्रकार-लेखक प्रबल महतो के अनुसार, आदिवासी मूलतः अनार्य समुदाय के हैं, जो महिषासुर को चक्रवर्ती सम्राट मानती है। दशहरे के समय संथाल-हो आदिवासियों में इस समय "दासांय" की परंपरा है। युवक स्त्री रूप धारण कर दस दिन तक नाचते-गाते गांव-गांव घूमते हैं। दासांय के गीतों से समझ सकते हैं ये खुशी का नहीं बल्कि दुख का अभियान है। ज्यादातर गीत ‘हाय रे हाय’ से शुरू होते हैं। ऐसी मान्यता है कि आईनोम और काजोल महिषासुर की बहनें थीं। युद्ध के दौरान महिषासुर को कमजोर करने के लिए दुश्मनों ने उनका अपहरण कर लिया था। दासांय के गीतों में उन्हीं आईनोम काजोल को ढूंढने की अभिव्यक्ति है।


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