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अमृतकाल में भुखमरी

चेन्नई में बंगाल से गए एक मजदूर की मौत हो गई, क्योंकि उसके पास खाने के लिए एक दाना नहीं था और छह दिनों से वो भूख से तड़प रहा था

अमृतकाल में भुखमरी
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- सर्वमित्रा सुरजन

चेन्नई में बंगाल से गए एक मजदूर की मौत हो गई, क्योंकि उसके पास खाने के लिए एक दाना नहीं था और छह दिनों से वो भूख से तड़प रहा था। अंग्रेजी अखबार द हिंदू की खबर है कि प.बंगाल से 12 किसान मजदूर 3 सौ रूपए रोजी के वादे पर तमिलनाडु लाए गए थे। अच्छे काम और पैसे के झांसे में आकर ये मजदूर जब चेन्नई पहुंचे, तो यहां इन्हें न काम मिला, न पैसे और न लौटने का कोई साधन इनके पास बचा था।

अगर तस्वीरें बोल सकतीं, मूर्तियां हिलने-डुलने में सक्षम होतीं, तो महात्मा गांधी अपने जन्मदिन पर हाथ जोड़कर नरेन्द्र मोदी समेत संघ की मानसिकता में पोषित तमाम नेताओं से विनती करते कि वे बेशक नाथूराम गोडसे की जय जयकार कर लें (जिसने उन पर तीन गोलियां दागीं), लेकिन उनके (गांधी के) आगे दिखावे के लिए हाथ न जोड़ें। क्योंकि गांधी की मूर्ति पर माला चढ़ाने या उन्हें प्रणाम करने का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तक उनके आदर्शों पर चलने की नीयत न हो। गांधीजी ने ऐसे आजाद भारत की कल्पना की थी, जिसमें आखिरी कतार के आखिरी व्यक्ति की आंख से आंसू पोंछे जाएं। यानी जो समाज में सबसे गरीब, पीड़ित और शोषित लोग हैं, उनकी पीड़ा को दूर करने का काम सरकार करे, तभी आजादी का मतलब है। लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार में गरीबों की पीड़ा बढ़ती ही जा रही है और अब भूख से मौत जैसी भयावह हकीकत समाज देख रहा है।

चेन्नई में बंगाल से गए एक मजदूर की मौत हो गई, क्योंकि उसके पास खाने के लिए एक दाना नहीं था और छह दिनों से वो भूख से तड़प रहा था। अंग्रेजी अखबार द हिंदू की खबर है कि प.बंगाल से 12 किसान मजदूर 3 सौ रूपए रोजी के वादे पर तमिलनाडु लाए गए थे। अच्छे काम और पैसे के झांसे में आकर ये मजदूर जब चेन्नई पहुंचे, तो यहां इन्हें न काम मिला, न पैसे और न लौटने का कोई साधन इनके पास बचा था। रेलवे स्टेशन पर ये मजदूर पिछले एक हफ्ते से बैठे हुए थे और भूख से तड़प रहे थे। जिसमें से एक ने आखिरकार दम तोड़ दिया और एक की हालत अभी नाजुक बताई जा रही है। भुखमरी से इस मौत के बाद प्रशासन हरकत में आया और अब बाकी मजदूरों को बचाया गया है। मृतक की पहचान समर खान के रूप में की गई है।

इस नाम के बाद अब भुखमरी से मौत के इस संगीन मामले को किस हद तक तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, इसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि भाजपा के दस सालों के शासनकाल में अकल्पनीय चीजें भी सच होने लगी हैं। आंखों की शरम का जो वाक्यांश हुआ करता था, वह अब लगभग गायब है। इसलिए अरबपतियों की शादी में हाथी के लिए बनी खिचड़ी को खाकर पत्रकार धन्य होते हैं। प्राइम टाइम में हिंदू-मुसलमान पर तीखीं झड़पें करवाते हैं। किसी के घर के फ्रिज में रखे मांस के नाम पर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। सरकारें प्रसाद में बने लड्डू को प्राथमिकता की सूची में सबसे पहले रखती हैं। तिरूपति में बने लड्डू शुद्ध घी के थे या उनमें जानवर की चर्बी मिली थी, इस पर 11 दिन का प्रायश्चित करने की विलासिता सरकार में बैठे लोगों के पास हो सकती है, लेकिन भूख से मरते आदमी के लिए शुद्धता या मिलावट से बड़ा सवाल उस रोटी का है, जो उसके हिस्से की थी, उसे पूरे हक और सम्मान से मिलनी चाहिए थी, लेकिन फिर भी उसे नहीं मिली।

राहुल गांधी ने हरियाणा में विजय संकल्प रैली में एक महत्वपूर्ण बात कही कि सम्मान जरूरी है, लेकिन गरीब की जेब में अगर पैसे नहीं हैं, तो फिर सम्मान का क्या मतलब। राहुल गांधी को सत्ता का मोह नहीं है, वो किसी पद के आकांक्षी नहीं हैं, इसलिए जब वो गरीबों के हितों की बात करते हैं, तो उसमें बनावटीपन नहीं दिखता, सच्चाई नजर आती है। राहुल गांधी ने ऊंचे मंचों पर चढ़कर अमृतकाल, विकसित भारत, पचास साल बाद के भारत का प्रवचन नहीं किया, बल्कि देश के चारों दिशाओं की यात्रा की है, हजारों किमी पैदल घूमे हैं, लोगों के बिल्कुल बीच में जाकर उनसे बात की है। इसलिए वो जानते हैं कि इस देश के लोगों के दुख-दर्द क्या हैं। इस दर्द का इलाज भी वो बता रहे हैं कि दो-तीन लोगों के हाथों में देश की पूरी संपत्ति देने की जगह इस पर सबकी बराबरी की हिस्सेदारी होनी चाहिए। हिस्सा किस तरह बांटा जाए, इसका समाधान जातिगत जनगणना से हो सकता है, ऐसा उनका विचार है। अगर भाजपा को या किसी और दल को इस सुझाव पर आपत्ति है, तो वह इससे बेहतर कोई उपाय पेश करे। लेकिन केवल कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के उठाए मुद्दों और दिए गए सुझावों का विरोध करने से तो समस्याएं सुलझेंगी नहीं।

सत्ता के ग्यारहवें साल में भी प्रधानमंत्री देश के गरीब और पिछड़े लोगों का जीवन स्तर ऊंचा करने के लिए वादे ही किए जा रहे हैं। 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज मुफ्त देने की योजना को भाजपा अगर अपनी उपलब्धियों में गिनती है, तब भी उससे सवाल किया जा सकता है कि ये पांच किलो अनाज समर खान और उनके साथियों तक क्यों नहीं पहुंचा। अब तक बेरोजगारी, कर्ज, परीक्षा में असफलता जैसे कारणों से होने वाली आत्महत्याएं समाज के लिए चिंता का विषय थीं। इस बीच कई घंटों के काम और नौकरी के कारण होने वाले तनाव से मौत की खबरें आईं। इन सबका उपाय सरकार के पास नहीं है और अब भुखमरी से मौत का मामला सामने आया है।

चूंकि तमिलनाडु और प.बंगाल दोनों जगह भाजपा की सरकार नहीं है, इसलिए भूख से मौत की खबर को दबाने या इसे फर्जी ठहराने की कोशिश अब तक नहीं हुई है। बल्कि प.बंगाल के राज्यपाल आनंद बोस ने इसके लिए ममता बनर्जी की सरकार पर सवाल भी खड़े कर दिए हैं। इसमें एम के स्टालिन की सरकार को किस तरह घेरा जाएगा, यह भी देखना होगा। लेकिन भाजपा को याद रखना चाहिए कि दूसरे दलों पर उंगली उठेगी तो उस पर भी सवाल खड़े होंगे। जब हर साल 2 करोड़ रोजगार का वादा था, किसानों की आय दोगुनी होने का दावा था, किसान सम्मान निधि के नाम पर जय-जयकार करवाई जा रही है, तब काम की तलाश में प.बंगाल से तमिलनाडु जाने की मजबूरी क्यों हो रही है, इसका जवाब नरेन्द्र मोदी को देना ही चाहिए।

देश के 140 करोड़ लोगों को अपना परिवार बताने वाले नरेन्द्र मोदी अपने परिजन की भूख से मौत पर विचलित हो रहे हैं या नहीं, ये उन्हें बताना चाहिए। गांधीजी होते तो शायद ऐसी किसी घटना पर प्रायश्चित स्वरूप उपवास पर बैठ जाते। आज भी उनकी आत्मा शायद यह देख कर दुखी हो रही होगी कि उनकी जयंती पर लाखों रुपए खर्च करके भव्य कार्यक्रम हो रहे हैं और जिनके आंसू पोंछने की बात वे करते थे, उनके लिए भुखमरी के हालात हैं।

मुंह में राम, बगल में छुरी की लोकोक्ति आज गांधी के संदर्भ में बिल्कुल खरी उतरती है। नाथूराम गोडसे ने किन लोगों के साथ, किन लोगों की मदद से और किनकी विचारधारा से प्रेरित होकर गांधी जी की हत्या की, यह खुला सच है। आज वही गोडसेवादी अखबारों और टीवी चैनलों में गांधी जयंती पर बड़े-बड़े इश्तिहार दे रहे हैं। मुंह से गांधीजी का नाम ले रहे हैं, और दिल में गोडसे के विचारों को पाल रहे हैं। इतनी चालाकी पर्याप्त नहीं थी, तो दस सालों में गांधी के विराट व्यक्तित्व को स्वच्छता के विचार तक सीमित करने की कोशिश की गई। आज भी देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वच्छ भारत दिवस मनाते हुए गांधीजी के स्वच्छता संबंधी विचारों को याद कर रहे थे। भाजपा के कुछ विज्ञापनों में स्वच्छता को सेवा मानने के विचार के जरिए नरेन्द्र मोदी को महात्मा गांधी के समतुल्य दिखाने की चेष्टा की गई। लेकिन थोड़ी देर के लिए छाए बादल अगर ये गुमान पाल लें कि सूरज को उन्होंने छिपा दिया है, तो वह गुमान सूरज की एक किरण से ही टूट जाता है। गांधीजी के विचारों को अपनी कुचेष्टा के बादल से छिपाने का भाजपा का गुमान भी इसी तरह एक न एक दिन टूटेगा ही।


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