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बाबरी विध्वंस की 25वीं बरसी पर विशेष

 हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब में 25 साल पहले एक कलंक लगा था

बाबरी विध्वंस की 25वीं बरसी पर विशेष
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नई दिल्ली। हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब में 25 साल पहले एक कलंक लगा था। एक ऐसा दाग, जिसे शायद ही कभी मिटाया जा सके। 6 दिसम्बर 1992 को न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, लोकतंत्र के इन तीन स्तंभों की नींव हिलाते हुए, संविधान को मुंह चिढ़ाते हुए ऐतिहासिक बाबरी_मस्जिद तोड़ दी गर्ई थी।

कहने को कहा जा सकता है कि उन्मादी कारसेवकों ने मस्जिद के गुंबद पर चढ़कर एक धक्का और दो, चिल्लाते हुए मस्जिद को तोड़ा, लेकिन हकीकत यह है कि सत्ता में आने को आतुर भाजपा और उसकी पितृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश भर के कारसेवकों के जुटने और मस्जिद तक पहुंचने का रास्ता तैयार करवाया। उन्हें मस्जिद तोडऩे के साजोसामान मुहैया करवाए, हौसला दिया कि तुम तोड़ो हम तुम्हारे पीछे ही खड़े हैं। धर्म की रक्षा के उन्माद में गुंबद पर चढ़े कारसेवकों को उम्मीद रही होगी कि बाबरी मस्जिद टूटेगी और रामलला को प्रतिष्ठित कर मंदिर बनवाया जाएगा और इस तरह वे अपने धर्म को बचा लेंगे। उन्हें शायद इस बात का एहसास भी नहीं होगा कि वे केवल मस्जिद नहीं तोड़ रहे थे, अपने देश की उस विशेष नींव को ही तोड़ रहे थे, जिसमें धर्म और जाति से ऊपर उठकर इंसानियत को पनाह मिली हुई थी।

अब न वह देश रहा, जिसकी कौमी एकता पर हम गर्व करते थे और न ही जनता के बीच आपसी विश्वास उस तरह कायम रह गया है, जो हमारी खास पहचान हुआ करती थी। भारत की खासियत ही सांप्रदायिक सद्भाव से थी,सभी धर्मों जैसे-हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई, बौद्ध, जैन, पारसी के साथ मिल-जुलकर रहने की थी। उस विशेषता को ही 25 साल पहले तोडऩे की कोशिश की गई और तब से अब तक यह साजिश जारी है। अब हम भी दुनिया के उन देशों की तरह होते जा रहे हैं, जहां धर्म के नाम पर मार-काट, झगड़े-फसाद होते हैं। और यह देखना दुखद है कि इस कमजोरी को दूर करने की जगह राजनैतिक दल इसे अपने वोट बैंक की ताकत की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं। ऐसे झगड़ों को बढ़ाने में लगे हैं।

यह अजीब संयोग है कि बाबरी विध्वंस की 25वीं बरसी के वक्त ही गुजरात में सत्ता के लिए जोर आजमाइश हो रही है। अयोध्या कांड का भयावह नतीजा इसी गुजरात में गोधरा कांड की शक्ल में देश के सामने आया था। जिसने 1992 में खोदी गई सांप्रदायिकता की खाई को और गहरा कर दिया था। सरयू और नर्मदा में इन बरसों में खूब पानी बह गया। लेकिन धार्मिक कट्टरता की काई अब भी जमी हुई है। जिस भाजपा ने रथयात्रा निकाल कर सत्ता तक पहुंचने में सफलता पाई थी, वही अब फिर से सत्ता में है।

केंद्र में भी, उत्तरप्रदेश में भी और अब तक गुजरात में भी। मंदिर वहीं बने, ऐसी चाह रखने वालों की संख्या इस बीच और बढ़ गई है, जबकि मस्जिद टूटने से आहत लोगों का दर्द भी कम नहीं हुआ है। राजनीतिक दलों ने तो देश के संविधान और न्यायव्यवस्था से खूब खिलवाड़ किया है, लेकिन आम जनता अब भी इन पर भरोसा करती है। उसके पास गुहार लगाने के लिए कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है। वह इंसाफ के लिए आज भी अदालत का दरवाजा ही खटखटाती है। मंदिर-मस्जिद विवाद भी अदालत की परिसर तक पहुंच चुका है। यह एक और संयोग है कि अयोध्या कांड की 25वीं बरसी के एक दिन पहले राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्वामित्व विवाद की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में शुरु हुई।

जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस अब्दुल नजीर की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही है। यह विशेष पीठ चार दीवानी मुकदमों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 अपीलों पर सुनवाई करेगी। गौरतलब है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में अयोध्या में पौने तीन एकड़ के इस विवादित स्थल को इस विवाद के तीनों पक्षकार सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और भगवान राम लला के बीच बांटने का आदेश दिया था। इससे पहले कोर्ट ने सलाह दी थी कि सभी पक्षों को आपसी सहमति से मसले का हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि मामला संवेदनशील है और आस्था से जुड़ा है।

कानूनी तौर पर तो यह कहा जा सकता है कि यह मामला आस्था से जुड़ा है, लेकिन हकीकत तो यह है कि इसमें आस्था की भी धज्जियां उड़ा दी गईं हैं। धर्म और आस्था के नाम पर तमाशा खड़ा करने वाले दरअसल केवल राजनीतिक फायदे के हिमायती हैं और इसलिए मंदिर-मस्जिद विवाद सुलझाने की जगह उसे और उलझाने में लगे हैं। अगर आपसी सहमति से हल निकालने की ईमानदार कोशिश करनी होती, तो सबसे पहले एक-दूसरे का विश्वास जीता जाता। लेकिन देश ने देखा है कि चुनाव के वक्त विश्वास हासिल करने की जगह संदेह पैदा करने का खेल चलता है। इसलिए कभी कब्रिस्तान-श्मशान की बात उठती है, तो कभी हिंदू होने या न होने का सवाल खड़ा होता है। मंदिर-मस्जिद विवाद खत्म हो जाएगा तो बहुतों की राजनैतिक दुकानदारी भी खत्म हो जाएगी।


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