पहाड़ों से साक्षात्कार के कुछ अनुभव
जब कभी हम आज की भागमभाग वाली जिंदगी से ऊबते हैं, तनाव में होते हैं, तब हमें जंगल, पहाड़, नदियां और गांव अपनी ओर खींचते हैं

- बाबा मायाराम
पूर्व में आदिवासियों द्वारा दहिया खेती भी की जाती थी। इस पद्धति में हल नहीं चलाया जाता है। इसमें छोटी झाड़ियों की टहनियों व पत्तों को खेत में बिछा दिया जाता है और उसमें आग लगा दी जाती है। उस राख में बीज छिड़क देते हैं, बारिश होती है तो बीज उग जाते हैं। और फसल पक कर तैयार हो जाती है। इस में मडिया, कांग, जगनी, कुटकी, कंगनी इत्यादि फसलें होती थीं।
जब कभी हम आज की भागमभाग वाली जिंदगी से ऊबते हैं, तनाव में होते हैं, तब हमें जंगल, पहाड़, नदियां और गांव अपनी ओर खींचते हैं। हम वहां जाते हैं और कुछ समय के लिए सुकून व शांति का एहसास करते हैं। प्रकृति को निहारना, पक्षियों को देखना और उनकी आवाज सुनना बहुत भाता है। मैं कई सालों से सतपुड़ा पहाड़ के नजदीक रहता हूं, उसकी सैर भी करता हूं। आज इस कॉलम में पहाड़ों के बारे में अपने अनुभव साझा करना चाहूंगा, जिससे हमें प्रकृति को और करीब से जानने में मदद मिल सके।
मेरा छुटपन गांव में बीता है। गांव का स्मरण करते ही सबसे पहले मुझे गांव की नदी याद आती है। इस नदी का नाम दुधी है। दुधी यानी दूधिया। दूध की तरह सफेद मीठा निर्मल पानी। इस नदी का उद्गम स्थल सतपुड़ा पहाड़ है। नदी में हम नहाते थे और खेलते थे। गांव वाले इसका पानी पीने के लिए भी इस्तेमाल करते थे। तीज-त्यौहार में नदी पर मेला जैसा माहौल होता था। इसकी रेत में तरबूज-खरबूज की खेती होती थी। इसी तरह, सतपुड़ा पहाड़ से ऐसी कई और नदियां निकलती हैं और नर्मदा में मिलती हैं। लेकिन अब यह नदियां सूख रही हैं, सदानीरा से बरसाती हो गई हैं।
अगर हम इस इलाके को दो भागों में विभाजित करें तो उत्तर में नर्मदा नदी है, और दक्षिण में सतपुड़ा की पर्वतमाला फैली हुई है। हमारे गांव के बाहर खेतों से सतपुड़ा पहाड़ की लम्बी श्रृंखलाएं दिखाई देती थीं। पहाड़ के नीचे से रेल गुजरती थी, जिसे देखने का कौतूहल होता था। रेल की आवाज सुनकर बच्चे देखने के लिए दौड़ते थे। रेल पटरी दूर से ही चमकती थी।
पहाड़ मुझे हमेशा से ही आकर्षित करते रहे हैं। वे सदैव ही हमारे साथ होते हैं और अभिभावक की तरह आश्वस्त करते हैं। वे सालों से अडिग हैं और उनकी दुनिया बड़ी और निराली है,जिसमें पेड़, पौधे, वनस्पति जीव जंतु, तितलियां, कीड़े-मकोड़े, पक्षी इत्यादि सभी शामिल हैं।
इन पहाड़ों में दूर- दूर तक हरियाली फैली होती है। हरी-भरी घास का कालीन बिछा होता है। लम्बे चौड़े घास के मैदान होते हैं। पेड़ों की हिलती फुनगियां, फुसफुसाते पौधे, सरसराती हवा, कल-कल बहते झरनें, नदियां और पक्षियों का गान इत्यादि देखते ही बनता है। ओस में नहाए चरागाह, नाचते मोर, इधर-उधर दौड़ती गिलहरियां, भटकते हिरण, लोमड़ी और सियार का दिखाई देना। पीले धूप के टुकड़े, छितराए घने बादल, मेढ़क व झींगुरों की आवाज, भीगी हवा इत्यादि। यह सब मिलकर बहुत मनमोहक वातावरण बनाते हैं।
जब सुबह मैं सैर पर निकलता हूं तो सड़क के दोनों ओर धान के खेत होते हैं। अब धान रोपाई हो गई है। खेतों में पानी जमा है। मेंढक टर्राते हैं। हवा में लहराते खेतों की छटा भाती है। कुछ समय बाद ये खेत धान की खुशबू से महकने लगेंगे। फिर सुनहरी बालियां आ जाएंगी।
प्रकृति का स्वभाव कुछ ऐसा होता है कि हर दिन, बीते हुए दिन से अलग होता है। हर क्षण, हर पल उसमें बदलाव होता रहता है। इन दिनों कहीं बारिश अधिक होती है, तो कहीं कम। कहीं हरियाली ज्यादा होती है, तो कम। कभी आसमान साफ होता है, तो कुछ देर में काले बादल भागते नजर आने लगते हैं। कभी पतझड़ होता है तो कभी हरियाली छा जाती है। पेड़ों की छांव, पत्तों का रंग, जंगली फूल, छोटी नदियों की कल-कल, एक साथ पक्षियों का नजर आना इत्यादि।
कोलाहल से दूर यहां का एकांत शांति व सुकून का एहसास देता है। बाहरी दुनिया से जोड़ता है। सोचता हूं कि ऐसा एकांत दूसरे जंगल पहाड़ों में भी होता होगा। यहां पहाड़ों की धुंध और उस पर छितरे बादलों को घंटों देखा जा सकता है। इन पहाड़ों की तलहटी में बसे छोटे—छोटे गांव, खेतों में काम करते किसान, मिट्टी के घर, मक्के के खेत, बल्लर ( सेम) और चरवाहे। ये सभी हमारा ध्यान खींचते हैं।
यहां के जंगल में पेड़-पौधों की काफी विविधता है। यहां आंजन, साल, पीपल, खिन्नी, महुआ, आम, चार, भिलवां, जामुन. सागौन, तेंदू, हर्रा, बहेड़ा जैसे कई पेड़ हैं। पचमढ़ी, जिसे सतपुड़ा की रानी कहा जाता है, यह पर्यटन स्थल तो है, साथ ही इसे जड़ी बूटियों के लिए भी जाना जाता है। पहले आदिवासी व ग्रामीण भी छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज परंपरागत रूप से जड़ी-बूटियों से ही करते थे। हालांकि अब इनके जानकार ( गुणधर्मों को जानने वाले) बहुत कम हैं।
यहां कई तरह के रंग-बिरंगे पक्षी हैं। उन्हें करीब से देखना. उनकी आवाज सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है। हालांकि बहुत से पक्षियों की पहचान से अनजान हूं। पक्षी भी प्रकृति का हिस्सा हैं। उनका हमारे जीवन में और प्रकृति में बड़ा योगदान है। परागीकरण से लेकर फसलों के कीट नियंत्रण में बहुत उपयोगी हैं। जंगल को बढ़ाने में भी उनका योगदान है। पक्षियों की विष्ठा खेतों को उर्वर बनाती है। कौआ, चील, और गिद्ध तो अच्छे सफाईकर्मी की तरह काम करते हैं।
इसी प्रकार, यहां के किसानों ने सालों से खेती की अनूठी पद्धति विकसित की हैं, इनमें से एक है, जिसे उतेरा कहा जाता है। अब भी यह पद्धति जंगल पट्टी में कुछ स्थानों पर प्रचलित है। इसमें 6-7 प्रकार के अनाजों को मिलाकर बोया जाता है। इस अनूठी पद्धति में ज्चार, धान, तिल्ली, तुअर, समा, कोदो मिलाकर बोते हैं। एक साथ सभी बीजों को मिला कर खेत में बोया जाता है और बक्खर चलाकर पेंटा लगा देते हैं। फसलें जून (आषाढ़) में बोई जाती हैं लेकिन अलग-अलग समय में काटी जाती हैं। पहले उड़द, फिर धान, ज्वार और अंत में तुअर कटती है। कुटकी जल्द पक जाती है।
उतेरा से पूरा भोजन मिल जाता है। दाल, चावल, रोटी और तेल सब कुछ। इसमें दलहन, तिलहन और मोटे अनाज सब शामिल हैं। इन सबसे साल भर की भोजन की जरूरत पूरी हो जाती है। मवेशियों के लिए चारा और मिट्टी को उर्वर बनाने के लिए जैव खाद मिल जाती है। यानी उतेरा से इंसानों के लिए अनाज, मवेशियों के लिए फसलों के ठंडल, भूसा और चारा, मिट्टी के लिए जैव खाद और फसलों के लिए जैविक कीटनाशक प्राप्त होते हैं।
इसी प्रकार, यहां पूर्व में आदिवासियों द्वारा दहिया खेती भी की जाती थी। इस पद्धति में हल नहीं चलाया जाता है। इसमें छोटी झाड़ियों की टहनियों व पत्तों को खेत में बिछा दिया जाता है और उसमें आग लगा दी जाती है। उस राख में बीज छिड़क देते हैं, बारिश होती है तो बीज उग जाते हैं। और फसल पक कर तैयार हो जाती है। इस में मडिया, कांग, जगनी, कुटकी, कंगनी इत्यादि फसलें होती थीं।
यहां के लोग महुआ के कई तरह के व्यंजन बनाते थे। महुआ का भुरका, बहुत ही स्वादिष्ट होता था। इसे महुआ और जगनी को कूटकर बनाया जाता था। कुटकी का भात और बल्लर की दाल भोजन हुआ करता था। कुटकी का पेज ( एक तरह का सूप) बनाकर पीते थे। यह देश के कई इलाकों में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में बासी को बहुत पसंद किया जाता है। इसके अलावा, आदिवासी कई तरह के कांदा ( कंद) भी खाते हैं। सब्जियों में कई जंगल से मिलने वाली हरी भाजियां व बांस की करील भी खाई जाती थी।
कुछ साल पहले तक हर घर में बाड़ी होती है जिसमें उतेरा की ही तरह मिलवां फसलें हुआ करती थीं। बाड़ी में घरों के पीछे कई तरह की हरी सबिजयां और मौसमी फल और मोटे अनाज लगाए जाते थे। जैसे भटा, टमाटर, हरी मिर्च, अदरक, भिंडी, सेमी (बल्लर), मक्का, ज्वार आदि होते थे। मुनगा, नींबू, बेर, अमरूद आदि बच्चों के पोषण के स्त्रोत होते थे। इसमें न अलग से पानी देने की जरूरत थी और न ही खाद। जो पानी रोजाना इस्तेमाल होता था उससे ही बाड़ी की सब्जियों की सिंचाई हो जाती थी। लेकिन इनमें कई कारणों से कमी आ रही है।
यहां के आदिवासी और ग्रामीणों को खेत और जंगल से काफी अमौद्रिक चीजें मिलती हैं, जो पोषण के लिए नि:शुल्क और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। ये सभी चीजें उन्हें अपने परिवेश और आसपास से मिल जाती हैं। जैसे बेर, जामुन, अचार, आंवला, महुआ, मकोई, सीताफल, आम, शहद और कई तरह के फल-फूल, जंगली कंद, और पत्ता भाजी सहज ही उपलब्ध हो जाते है। यह सब पोषण और भोजन का प्रमुख स्त्रोत हैं। हालांकि इनमें भी कमी आ रही है।
कुल मिलाकर, पहाड़ और जंगल की सैर कई मायनों में उपयोगी है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए तो अच्छा है ही साथ ही इससे परिवेश व पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ती ही है। प्रकृति के साथ नजदीकी रिश्ता भी बनता है। उसके प्रति हमारी संवेदनशीलता भी बढ़ती है। इससे जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ते है, टिकाऊ विकास का नजरिया भी मजबूत होता है। खासतौर से आज जब प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन की होड़ मची है, जलवायु बदलाव भी इसी की देन है, तब प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर विकास की राह अपनानी बहुत जरूरी है। इस लिहाज से प्रकृति से जुड़ना और समझना बहुत ही आवश्यक है। पहाड़ों का सौंदर्य और निर्मलता भी तभी कायम रह सकेगी, जब हम उसके साथ जुड़ेंगे। आखिर हम भी तो उसी का हिस्सा हैं।


