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कठिन परीक्षा को उत्तीर्ण करने वालों से कुछ उम्मीदें

देश में सबसे कठिन माने जाने वाली परीक्षा यूपीएससी के नतीजे मंगलवार शाम को घोषित हुए। पिछले कुछ सालों से शीर्ष स्थान लड़कियों को मिल रहा था

कठिन परीक्षा को उत्तीर्ण करने वालों से कुछ उम्मीदें
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- सर्वमित्रा सुरजन

यूपीएससी की सफल लोगों की कहानियों को भुनाते हुए कुकुरमुत्तों की तरह कोचिंग संस्थान खुल चुके हैं, जहां दड़बों में ठुंसी हुई मुर्गियों की तरह छात्रों को भरा जाता है। लाखों की फीस उनके अभिभावक देते हैं, और बहुतों को ये उम्मीद रहती है कि बच्चा सफल हो जाए तो सरकारी रौब का स्वाद चखने मिले। हालांकि इस स्वाद की कल्पना और हकीकत में काफी फर्क है।

देश में सबसे कठिन माने जाने वाली परीक्षा यूपीएससी के नतीजे मंगलवार शाम को घोषित हुए। पिछले कुछ सालों से शीर्ष स्थान लड़कियों को मिल रहा था, इस बार लड़कों को प्रथम और द्वितीय आने का मौका मिला है। संघ लोक सेवा आयोग ने 28 सौ से अधिक उम्मीदवारों को साक्षात्कार के लिए चयनित किया था, जिनमें से 1016 लोगों को सफलता मिली है। मतलब यह कि 50 प्रतिशत से अधिक लोगों को नाकामी हाथ लगी है। और अगर यूपीएससी की प्रिलिम्स और मेन्स परीक्षा के अभ्यर्थियों की बात करें तो करीब 13 लाख लोगों ने ये परीक्षाएं दी थीं। 13 लाख में केवल 28 सौ साक्षात्कार के स्तर तक पहुंचे और वहां से एक हजार 16 लोग सफल होकर निकले। हालांकि नतीजे आने के बाद से शीर्ष 50 स्थान पर आने वालों की ही ज्यादा चर्चा मीडिया में है। बाकी साढ़े नौ सौ लोगों की सफलता की कहानी या तो उनके परिजन सुनाएंगे या उन्हें कोचिंग देने वाले संस्थान।

यूपीएससी में सफल होने वालों के संघर्ष की कहानियां भी अब बाहर आनी शुरु हो चुकी हैं। ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि इनसे उस राह पर आगे बढ़ने वालों को प्रेरणा मिलती है कि जब वो ऐसा कर सकते हैं तो हम भी कर सकते हैं। हाल ही में एक फिल्म आई थी बारहवीं फेल, जो सच्ची घटना पर आधारित है। फिल्म में ऐसी ही सफलता की कहानी है, जिसमें गांव की स्कूल से पढ़ा एक लड़का, बार-बार की असफलता और आर्थिक परेशानियों के बावजूद अपनी मेहनत और लगन से आखिरकार यूपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ही लेता है और साक्षात्कार में बैठे लोगों को यह बखूबी समझा देता है कि हिंदी या अंग्रेजी केवल माध्यम हैं, असल बात तो लोगों की समस्याओं और जज्बात को समझने की है। फिल्म में एक और किरदार है, जिसने साक्षात्कार पर पहुंचने के अपने सारे मौके ले लिए, लेकिन किसी तरह सफल नहीं हुआ, तो फिर अपने अनुभव से दूसरों को प्रशिक्षण देने लगा। यह किरदार रि स्टार्ट यानी फिर से शुरु करना चाहिए, जैसे गीत से प्रेरणा देता नजर आया है।

फिल्म में यह सब देखने-सुनने में अच्छा ही लगता है, क्योंकि बात दो-ढाई घंटे की होती है, हम किरदारों से खुद को जोड़ लेते हैं और उनके साथ भावनाओं में डूबने-उतरने लगते हैं। मगर हकीकत कितनी अलग होती है, इसका एक उदाहरण ट्विटर पर देखने मिला, जिसमें एक असफल अभ्यर्थी ने आंकड़े दिए कि 12 प्रयास, 7 बार मेन्स और 5 बार साक्षात्कार, फिर भी असफलता हाथ लगी, शायद जिंदगी का दूसरा नाम ही संघर्ष है। यह केवल एक असफलता और निराशा का उदाहरण नहीं है, बल्कि यहां वो मलाल भी नजर आ रहा है जिसमें जीवन के सुनहरे बरस व्यर्थ हो गए। इस देश में लाखों लोग हर साल इसी तरह के मलाल से गुजरते हैं। उन्हें रि स्टार्ट जैसे गीतों से सांत्वना देने की जगह यह समझाने की जरूरत है कि अपनी बुद्धि और प्रतिभा का इस्तेमाल वो इससे बेहतर तरीके से कर सकते हैं।

यूपीएससी की सफल लोगों की कहानियों को भुनाते हुए कुकुरमुत्तों की तरह कोचिंग संस्थान खुल चुके हैं, जहां दड़बों में ठुंसी हुई मुर्गियों की तरह छात्रों को भरा जाता है। लाखों की फीस उनके अभिभावक देते हैं, और बहुतों को ये उम्मीद रहती है कि बच्चा सफल हो जाए तो सरकारी रौब का स्वाद चखने मिले। हालांकि इस स्वाद की कल्पना और हकीकत में काफी फर्क है। कड़ी मेहनत और बुद्धिमत्ता से सरकार में बड़े अधिकारी बनने वालों को सत्ता के दबाव का सामना करना पड़ता है। बहुत कम अधिकारी ऐसे होते हैं जो सत्ता पर बैठे लोगों की जी हुजूरी करने से इंकार करने की हिम्मत दिखाते हैं और वही फैसले लेते हैं जो जनता या देश के हित में हों। और ऐसे अधिकारियों को अक्सर सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ता है। कभी उन्हें तबादलों की मार झेलनी पड़ती है, कभी सरेआम अपमान सहन करना पड़ता है। अब तो सत्ता के साथ-साथ पूंजी का दबाव भी मिल गया है, जिसमें अधिकारियों के लिए रीढ़ को सीधा रखना कठिन हो चला है। सत्ता के अनुचित दबाव में आने से इंकार करने वाले लोग या तो प्रताड़नाओं को सहते हुए अपनी सेवानिवृत्ति का इंतजार करते हैं या फिर समय से पहले सेवानिवृत्ति ले कर निजी संस्थानों में अपनी सेवाओं का लाभ देने लगते हैं।

आजकल सेवानिवृत्ति के फौरन बाद राजनीति में आने और फिर ऊंचे पदों या आयोगों की अध्यक्षता करने का मौका भी मिलने लगा है। इसके दोहरे लाभ मिलते हैं, एक तो अधिकारी वाला रौब-दाब बना रहता है और दूसरा अपने कार्यकाल के दौरान सत्ता के हित में लिए गए फैसलों की न समीक्षा होती है, न किसी कार्रवाई का डर रहता है। आम बोलचाल की भाषा में ऐसे लोगों को व्यावहारिक बुद्धि वाला कहा जाता है, जो लहर के विपरीत न जाकर धारा के साथ बहना मंजूर कर लेते हैं। लेकिन फिर यहां एक जरूरी सवाल उठता है कि क्या यूपीएससी की कठिन परीक्षा सत्ता की चाकरी करने के लिए उत्तीर्ण की गई या इसमें कहीं देश और जनसेवा का भाव भी था। अब जो नए अधिकारी तैयार हो रहे हैं, उनकी सफलता की कहानियां आखिर कितने दिन तक सुनाई जाएंगी, क्या उसके बाद वो भी सत्ता की सुविधा वाले सांचे में ढाल दिए जाएंगे। ये सवाल हाल की एक घटना से और भी प्रासंगिक हो जाता है।

आयरलैंड के एक अखबार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भारत के चुनावों के संदर्भ में आलोचनात्मक टिप्पणी की। जिस पर आयरलैंड में भारतीय राजदूत अखिलेश मिश्रा ने अखबार को अपनी प्रतिक्रिया भेजी और उसमें न केवल भारतीय प्रधानमंत्री का बचाव करते हुए उनकी सरकार के कामकाज की तारीफ की, बल्कि इसके साथ ही कांग्रेस या गांधी परिवार का नाम लिखे बिना उसकी आलोचना की। अखिलेश मिश्रा ने लिखा कि भारत में एक ही वंशवादी परिवार के 55 साल के शासन, जिनमें शुरुआती 30 वर्ष महत्वपूर्ण हैं, के दौरान भ्रष्टाचार की गहरी जड़ें जमा चुके पारिस्थितिकी तंत्र के खिलाफ लड़ाई श्री मोदी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता के पीछे एक प्रमुख वजह है। इस जवाब में अखिलेश मिश्रा ने अपनी पक्षधरता साफ जाहिर कर दी है कि वे केवल भारत सरकार का बचाव नहीं कर रहे, बल्कि भाजपा का बचाव कर रहे हैं, क्योंकि आयरिश अखबार में भाजपा के शासनकाल में लिए जा रहे फैसलों और हालिया घटनाओं पर टिप्पणी की गई थी। 1989 बैच के आईएफएस अधिकारी अखिलेश मिश्रा के इस रवैये को कांग्रेस ने अपमानजनक और गैरपेशेवराना करार दिया है और उन पर कार्रवाई की मांग की है।

कांग्रेस की शिकायत का किस तरह से संज्ञान लिया जाता है, यह अलग मसला है। लेकिन यहां सवाल वही है कि संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण करने, फिर प्रशिक्षण लेने के बाद जब अधिकारी अपने कार्यक्षेत्र में उतरते हैं, तो उनकी प्रतिबद्धताएं किसके लिए रहती हैं और उनकी प्राथमिकताएं क्या रहती हैं। अगर वे आम जनता की भलाई को सर्वोपरि रखते हुए फैसले नहीं लेते और सत्ता प्रतिष्ठान के चाकर की तरह काम करना स्वीकार करते हैं, तो फिर हर साल 20-30 लोगों के यूपीएससी में सफल होने और संघर्ष से आगे बढ़ने की जो कहानियां सुनाई जाती हैं, उनका क्या औचित्य रह जाता है।

मध्यप्रदेश में एक आईएएस अधिकारी हुआ करते थे सुदीप बनर्जी, जिन्होंने साक्षरता, कला संस्कृति इन सबके लिए कई अनूठे काम किए। बस्तर के आदिवासियों के हितों को प्राथमिकता देने के लिए सरकार से भिड़ने में झिझक नहीं दिखाई। भोपाल गैस दुर्घटना के वक्त मोर्चे पर डटकर पीड़ितों की मदद की। किसी भी उद्योगपति या मंत्री के आगे दबाव में नहीं आए। सुदीप बनर्जी की संवेदनशीलता और ईमानदारी की मिसालें कई मौकों पर दी जाती रही हैं। उनकी तरह कई और आईएएस, आईपीएस या आईएफएस अधिकारी हुए हैं, जिन्होंने पूरी ईमानदारी से अपना काम किया। लेकिन क्या वे लोग अब समाज के और यूपीएससी में अभी सफल होने वालों के आदर्श हैं, यह विचारणीय है। आखिर में कवि चंद्रकांत देवताले की कविता खुद पर निगरानी का वक्त की चंद पंक्तियां पेश हैं-

हाँफरही कविता
कितना कर सकती है छातीकुट्टा
कह रही बार-बार निगरानी रखो
जैसी दुश्मन पर, वैसी ही खुद पर
चुटकी भर अमरता-खातिर
विश्वासघात न हो जाए।
अपनी भाषा, धरती और लोगों के साथ।

यूपीएससी में सफल होने वाले तमाम लोगों को शुभकामनाएं इस उम्मीद के साथ कि वे अपनी भाषा, धरती और लोगों के विश्वास को बनाए रखेंगे।


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