सीता की लट
पति का लंच बॉक्स और बेटे की स्कूल बस -सुबह के दोनों महान लक्ष्य पूरे हुए

- इंदिरा दांगी
पति का लंच बॉक्स और बेटे की स्कूल बस -सुबह के दोनों महान लक्ष्य पूरे हुए। बड़ा सौभाग्य कि घंटा-दो घंटा तंग करके अब छोटू प्रबल गहरी नींद सो गया है। काया जल्दी-जल्दी घर के काम निबटाने में लगी है। बर्तन माँज लिये हैं। पोंछा लगा रही है। इस गँवई इलाक़े की ग़रीबनें अब तक महरी नहीं बनी हैं। यहाँ आते ही काया ने हफ़्ते-दो हफ़्ते बड़ी कोशिश की थी। सड़क से गुज़रती दो-चार फटेहाल, निहायत ग़रीब दिखने वाली मज़दूर औरतों से पूछा भी था और उनके जवाब थे कि गाँव में किसी के जूठे बर्तन माँजने जाना बड़ा बुरा माना जाता है। हाँ, गेहूँ बीनने जैसा काम हो तो वे सहर्ष कर देंगी।
सीता की लट ! ...यही नाम था उस सांप का !
कहने को राजधानी की सीमा में था लेकिन दरअसल वो इलाक़ा शहर बाहर का अविकसित गाँव-खेड़ा था जहाँ के खेत-ताल से लेकर श्मशान भूमि तक छोटे प्लॉटों में तब्दील होती चली जा रही थी।
आठ सौ स्क्वायर फ़ीट प्लॉट में एक हॉल, दो कमरों और नाम मात्र के गार्डन-बाउन्ड्री वाला नन्हा, सुंदर, शहरी मकान अभी बनकर पूरा ही हुआ है। रहने आये परिवार के लोग हैं: किसी प्रायवेट कम्पनी का एरिया सेल्स मैनेजर पंकज वर्मा, उसकी पत्नी काया और दो नन्हे बच्चे सफल और प्रबल।
पति अलसुबह लंच-बाक्स लेकर काम पर रवाना। पाँच साल के सफल को वो आठ मिनिट स्कूटी चलाकर स्कूल बस में चढ़ा आई है। अब दोपहर एक बजे उसे लेने जाना होगा। यहाँ से सब जगहें इतनी दूर-दूर हैं अभी; पर काया को विश्वास है जब ये खाली कॉलोनियाँ बस जायेंगी, ये मिटता हुआ गाँव पूरी तरह मिट जायेगा, घर के आगे की पतली सड़क प्रस्तावित बाईपास चालीस फ़ीट रोड में बदल जायेगी -तब! हाँ, तब सफल की स्कूल बस का रूट ज़रूर बदलेगा और वो बिल्कुल घर के बाहर आकर हार्न दिया करेगी। बस, दो-पाँच साल में ही देखना, इस गाँव की जगह हमारी पूरी एक पॉश कॉलोनी होगी।
''तब हम कह सकेंगे कि इस कॉलोनी को बसाने वाले हम हैं। हम यहाँ तब से हैं जब कॉलोनी का कोई चिन्ह न था और घर के एड्रेस में ग्राम मेंहदीखेड़ी लिखना पड़ता था।''
काया उपलब्धि के ज़िक्र की तरह हँसकर कहती है और मामूली प्रायवेट नौकरीदार मैनेजर पति होम लोन, पेंशन प्लान से लेकर कम्पनी का इस मंथ का दिया बिक्री टारगेट पूरा कर पाने-न कर पाने तक की चिंताओं से दबा, भ्रम की तरह मुस्कुराकर फिर उदास हो जाता है।
पति का लंच बॉक्स और बेटे की स्कूल बस -सुबह के दोनों महान लक्ष्य पूरे हुए। बड़ा सौभाग्य कि घंटा-दो घंटा तंग करके अब छोटू प्रबल गहरी नींद सो गया है। काया जल्दी-जल्दी घर के काम निबटाने में लगी है। बर्तन माँज लिये हैं। पोंछा लगा रही है। इस गँवई इलाक़े की ग़रीबनें अब तक महरी नहीं बनी हैं। यहाँ आते ही काया ने हफ़्ते-दो हफ़्ते बड़ी कोशिश की थी। सड़क से गुज़रती दो-चार फटेहाल, निहायत ग़रीब दिखने वाली मज़दूर औरतों से पूछा भी था और उनके जवाब थे कि गाँव में किसी के जूठे बर्तन माँजने जाना बड़ा बुरा माना जाता है। हाँ, गेहूँ बीनने जैसा काम हो तो वे सहर्ष कर देंगी।
''पर हम तो ब्राण्डेड आटा इस्तेमाल करते हैं।''
काया के इस जवाब पर इधर बकरियाँ चराने वाली वो औरत संतोष बहुत चौंकी थी। अब आटा बेचने की भी कम्पनियाँ खुल गई हैं !! क्या भाव पसेरी का ? ...हैं ?? आटा बेचते हैं कि चाँदी ?
लब्बोलुआब ये कि यहाँ आकर नन्हे बच्चों की माँ काया को अपने घर में झाडू पोंछा, बर्तन, कपड़े, इस्त्री -सब कामों में ख़ुद के ही हाथ घिसने पड़ते हैं तिस पर ये छोटू! इतना ज़्यादा सक्रिय-शैतान जैसे कोई जिन्न ! ...उस दिन छत की रेलिंग पकड़कर हवा में लटक गया था ! ...उस दिन सड़क पर उतनी दूर अकेला घुटनों पर चलता मिला था। ...एक दिन अचानक ग़ायब हो गया। माँ ढूँढती, घबराती, हलकान; और वो मज़े से सोफे के नीचे सरक कर सो गया था।
पोंछा लगाकर पानी बाहर फेंकने आई वह पल को ठिठक गई। बगल के श्मशान में -जो घर से बस इतने प्लॉट्स के बाद है कि धुँआ यहाँ नहीं लगता- धूप में दाह की ऊँची अग्नि तेज़ गर्म चमक के साथ झिलमिला रही है। इंसान जीवन में कितने-कितने दंभ-मिथ्याभिमान पालता है -ये मेरा ! ये मैं ! अहम् ब्रम्हास्मि ! ...और मृत्यु की देवी देह का एक रोम तक साथ ले जाने की अनुमति नहीं देती !
काया को सहसा याद आया है। उसकी नानी और उसकी माँ भी हमेशा ये करती थीं कि घर के सामने से कभी अर्थी निकले तो मु_ी भर बारीक राई फेंक देती थीं -मृतक की आत्मा इधर को नहीं आ पायेगी ! काया फेंके क्या ? पल को उसने अपनेआप से पूछा है। उत्तर में अति की दृढ़ता है -हर्गिज़ नहीं ! इन सब ढकोसलों में पड़ने का वक़्त किसके पास है! काया ने पोंछे का धूल-फिनायल भरा पानी उधर को बहा दिया। माँ-नानी की किसी भी मान्यता को मानना उस डर को एक पहचान दे देना होगा जिसे वो भरसक झुठलाया करती है। पति अक्सर टूर पर रहते हैं। श्मशान की तरफ़ कड़कती बिजली की ख़ौफ़नाक रोशनी और हाहाकार-सा पानी बरसाती अंधेरी रातों में, अपने दोनों बच्चों को चिपटाये काया दिल में लगातार दोहराती है -मुझे डर नहीं लगता ! मुझे डर नहीं लगता !! मुझे डर नहीं लगता !!!
...निडर होना भी एक भयानक विवशता है! और पीछे एक नया डर उसके इंतज़ार में है!
पोंछे का पानी बाउन्ड्री के बाहर फेंक लौहद्वार बंद करती वो पलटी कि यक-ब-यक उसके मुँह से चीख़ निकल गई, साँप !! सामने एक छोटा साँप था। उसकी बित्ते भर की मार्बल बाउन्ड्री के बीचोंबीच अपने पूरे सर्पिल रोब-दाब से रेंगकर आता हुआ।
- अंदर मेरा बच्चा है!
उसका पाँव उठता है फिर ठिठक जाता है। सामने साँप है !!
- अंदर मेरा बच्चा है!!
फिर किसी ने दोहराया उसके भीतर और वो साँप को लगभग फाँदती हुई दौड़ गई। सोये बच्चे को समेटे वो वापिस दौड़ आई। साँप ऐन बीच में कुंडली जमा चुका है।
चिल्लाना यहाँ कौन सुनेगा ?? खेत-प्लॉटों का सूनापन उसने पहली बार सच की रोशनी में देखा। सड़क पार दो सौ क़दम की दूरी पर गाँव की किराने की दुकान है। बच्चे को चिपटाये स्त्री भागकर वहाँ पहुँची।
''भईया! हमारे घर साँप निकला है! आप जल्दी चलिये प्लीज़ !''
दुकान ख़ुली ही छोड़ दुकानदान दौड़ आया, साथ में उसके दोनों ग्राहक भी। ...सहायता की यही सच्ची तत्परता उन्हें ग्रामीण साबित करती है!
बाउन्ड्री में बैठे साँप को देखते ही डंडों पर कसी उनकी मु_ियाँ ढीली पड़ गयीं।
''अरे, जे तो सीता की लट है!'' वे हल्के होकर बोले जैसे किसी गुण्डे-हत्यारे को ढूँढते आये हों और मिला कोई नन्हा शरारती बच्चा।
''साँप है!'' -काया उसी घबराहट के वशीभूत थी अब भी।
''जे साँप कछू न करे।''
''ये जो भी है; है तो साँप ही न ? आप इसे मार क्यों नहीं देते ? ''
''है तो जे सीता की लट ही। न होय तो भी आप जाने दो; कौन बड़ा साँप है -काहे हत्या का पाप सिर लेना।''
वे जाने लगे। उसकी घबराहट कुछ और गाढ़ी हो गई,
''ये सिफ़र् एक साँप है!''
''इसे न मारना बहनजी। यदि सीता की एक लट को आपने मार दओ तो ऐसी सात निकलेंगी -जहीं, आपके घर भीतर से।''
वो रोकती रह गई; मददगार अपना सच्ची तत्परता समेटकर वापिस लौट गये।
अब बाउन्ड्री में बची काया और वो मझोला साँप जो सरककर गुलाब के गमले के पीछे जा छिपा है।
काया को समझ नहीं आ रहा, करे तो करे क्या ?
पति ? -पति को फ़ोन करने का कोई अर्थ नहीं निकलेगा। उल्टा, वे डाँट देंगे।
अब क्या ?
धड़कते दिल से काया, साँप से हरसंभव दूरी बनाये, चौकन्ने पंजों पर चलती निकली और इस पार आकर दरवाज़ा झट बंद कर लिया। हर एक खिड़की की सिटकनी चढ़ा ली। दरवाज़े के नीचे के साँस-रास्ते में अख़बार लगा दिया। अब हवा तक अंदर नहीं आ सकती। इस अकेलेपन में उस छोटे साँप का भय -जैसे कालिया दह का राजा! -जैसे शेष नाग ! -जैसे साक्षात् मौत !
अभी तक तो छोटा बच्चा सो रहा है, अभी तक तो बड़ा बच्चा स्कूल में है लेकिन कितनी देर ! कितना-सा समय है उसके पास इन हालात से अपने बच्चों को और अपनेआप को बचाने के लिये ? दिमाग़ फिरकी की तरह घूम रहा है।
-क्या करे ??
काया का सिर दुखने लगा है। उसने खिड़की से झाँककर देखा। वो वहीं है -वो साँप !
अब ?
मैं ह ह ऽ ऽ मैं ह ह ऽ ऽ मैं ह ह ऽ ऽ...
बाहर से बकरियों का इक्का-दुक्का स्वर आना शुरू हो गया है। संतोष बकरियाँ चराने आ गई है। काया उम्मीद और हिम्मत से दरवाज़ा खोलती है।
''संतोष! ओ संतोष ! '' -अपनी एकमात्र जान-पहचानदारिन को वो भरसक ऊँची आवाज़ में पुकारती है।
संतोष लोहे के फाटक तक आकर रुक जाती है, हमेशा की तरह। इधर घर के मुख्य द्वार पर काया है। उन दोनों के बीच मार्बल रास्ते पर साँप है।
''संतोष इसे मार दो प्लीज़।'' -डर भरी उँगली से आधुनिका ने जिसकी ओर इंगित किया है, ग्रामीण युवती उसे देख सहजता से कहती है,
''जे ! सीता की लट ! जाको भगा दीजिये। जे काटती नहीं है। जब रावण सीता मैय्या का हरण कर लिये जा रहो तो, मैय्या के कछू केस वन में गिर गये, वे ही लटें जे नागिनें होती हैं -बड़ी पवितर और निर्दोस! मारना नहीं बाईजी। डंडा भी नहीं दिखाना; नहीं तो इत्ती निकलेंगी कि आप गिन नहीं पाओगी।''
''अनगिनत निकलेंगी या सिफ़र् सात और निकलेंगी ? -क्या बकवास सवाल है। पूछते-पूछते ही साइंस पढ़ा हुआ काया का ज़हन झुंझला उठा।
संतोष भी चली गई तो मदद की कहीं से कोई उम्मीद नहीं रही। दरवाज़ा बंद कर उसने नीचे फिर अख़बार से साँस-रास्ता बंद किया और भीतरी कमरे में सोये बच्चे को एक नज़र देखा। जब तक ये सोया है, तभी तक दरवाज़ा बंद रखा जा सकता है। न जाने वो कब जाग जाये! कुछ करना होगा काया,
अभी !
वो परेशान होकर शून्य दिमाग़ से सोफ़े पर बैठी है। अपनी हर परेशानी में हमेशा वो अकेली ही क्यों है ?
-कभी जब बेटे की स्कूल बस समय पर नहीं आती है, वो बस ड्रायवर से लेकर स्कूल के तय ज़िम्मेदारों तक को फ़ोन करती परेशान होती है -अकेली !
-कभी जब उसे हरारत-बुख़ार जैसा कुछ हो जाता है तो उस पस्त हाल में भी तयशुदा रुटीन से घर के सब काम पूरे कर रही होती है -अकेली !
-कैसी जानलेवा धूप में भी अपने दोनों बच्चों को स्कूटी पर संग लिये, एक को आगे खड़ा किये, दूसरे को कंगारू बैग में सीने से बाँधे, वो भरे ट्रैफ़िक में चली जा रही होती है, कभी घर का राशन लाने, कभी पेरेन्ट्स मीट, कभी कोई बिल भरने -अकेली !
पति नाम का जीव जैसे सिफ़र् रुपये कमाने वाला और मूड के मुताबिक कुछेक और काम करने वाला रोबोट है कोई।
काया सोफ़े से उठ खड़ी हुई है। कितनी बार ! कितनी बार उसने साबित किया है कि अपने बच्चों की परवरिश-हिफ़ाज़त के लिये वो किसी मर्द के आसरे की मोहताज़ नहीं :
-तब जब वे किराये के एक कमरे में रहते थे जो दूसरी मंज़िल का कोना था। कोने पर एक विराट छत्ता छिपा था मधुमक्खियों का; और इससे पहले कि कोई मधुमक्खी उसके बेटे को नुकसान पहुँचा पाती; उसने कॉकरोच मारने वाले फुल भरे स्प्रे से पूरा-का-पूरा छत्ता इस फुर्ती से नहला दिया था कि एक डंक भी हिल न सका था छत्ते भर मधुमक्खियों का।
-तब जब नन्हे सफल ने मच्छरनाशक काइल खा ली थी। बिना घबराये उसने बच्चे को नमक का पानी इतना-इतना पिलाया था कि उसने उल्टी कर के पूरे ज़हर को बाहर निकाल दिया था।
गृहिणी ने साँप का सामना करने के लिये दिल-दिमाग़ स्थिर किया, अपना कुल साहस बटोरा और दरवाज़ा खोला है।
साँप वहीं छिपा बैठा है, ऐन वहाँ जहाँ से वो उसके किसी भी बच्चे पर सरलता से हमला कर सकता है; लेकिन गाँव के लोग अगर कह रहे हैं कि ये काटता नहीं तो क्या इसे सिफ़र् भगाया नहीं जा सकता ? निहत्थी काया बेआवाज़ पाँवों से दो-चार क़दम उस तरफ़ को बढ़ती है। साँप चौंककर फन उठा लेता है -ख़ालिस साँप! निर्णय हो चुका है। इसका नाम सीता की लट हो या गंगा का तट, व्हाटएवर; ये सिफ़र् एक साँप है और काया एक ज़िम्मेदार माँ है ...गाँव माफ़ कर देता है, उसे जो नुकसान नहीं पहुँचाता; शहर नहीं कर पाता, उसे भी जो सीधा फ़ायदा नहीं देता !
धड़कते दिल और पुख़्ता हौसले से उसने एक बाल्टी भर पानी इधर से ज़ोर से फेंका है। साँप सरसराता निकल आया है। बला की फुर्ती है उसमें। उसने फन फैला लिया है और उसकी फुत्कार आक्रामक हो उठी है।
सांप में मौत सरीखी फुर्ती है, बच्चों की माँ में सब हदों के पार आ चुका साहस !
एक ...दो ...दस ...पन्द्रह ...पचास ! कितने वार किये उसने हाथ के रैकेट से साँप पर अंधाधुंध, विचार शून्य ! ...लस्ट ऑफ़ मर्डर !
रक्त-माँस रेशा-रेशा साँप सामने है पर अब भी उसके अंगों में हरकत बाक़ी है। एक पॉलिथिन में उसने सब टुकड़े बंद किये हैं। संतोष कहती है मरे साँप को अग्नि देनी चाहिये। अग्नि का पवित्र द्वार मिलता है तो अगली योनि मानव की पाता है सर्प। काया को ये मिथक नुकसानदेह नहीं लगता लेकिन सच में, उसके पास बिल्कुल समय नहीं है। ये जगह फिनायल से धोनी है, अपने हाथ और बच्चे का रैकेट एंटीसेप्टिक से साफ़ करना है। और अभी बेटे को स्टॉप पर लेने जाने का समय होने ही वाला है। सोये छोटू को जगाकर साथ लेना है। स्कूटी बाहर निकालनी है।
काया ने बंद पॉलिथीन ताक़त भरके उधर को उछाल दी है जिधर को प्रज्वलित श्मशान है।
ख़ाली पड़े खेत-प्लॉटों को देख विजयी-विवश हत्यारिन काया अपनेआप को तसल्ली दे रही है, बस कुछ ही सालों में ये गाँव मिट जायेगा,
...और यहाँ उसके मकान की तरह के सैकड़ों शहरी मकान होंगे।


