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चीन-अमेरिका प्रतिस्पर्धा आधिपत्य के लिए नहीं

हाल ही में, भारत में कई टिप्पणीकारों ने मीडिया में लेख प्रकाशित कर यह विचार प्रकट किया कि चीन और अमेरिका के बीच जो भीषण प्रतिस्पर्धा हो रही है

चीन-अमेरिका प्रतिस्पर्धा आधिपत्य के लिए नहीं
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बीजिंग। हाल ही में, भारत में कई टिप्पणीकारों ने मीडिया में लेख प्रकाशित कर यह विचार प्रकट किया कि चीन और अमेरिका के बीच जो भीषण प्रतिस्पर्धा हो रही है, वह आधिपत्य के लिए है। चीन का लक्ष्य अमेरिका को प्रतिस्थापित कर विश्व आधिपत्य जीत लेना है। ऐसी स्थिति में भारत को अपने स्वयं के हितों के लिए चीन-अमेरिका संघर्षों का उपयोग करना चाहिए। साथ ही भारत को चीन को दबाने वाली पश्चिमी ताकतों के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। ऐसी टिप्पणियां भारत में एक दो नहीं हैं। इधर के दिनों में कुछ लोग भारतीय मीडिया में इसी तरह के विचारों की वकालत करते रहे हैं।

यदि हम दुनिया को निष्पक्ष रूप से नहीं देख सकते हैं, तो अंत में हमेशा गलत निष्कर्ष निकाला जाएगा। भारत कभी एक ऐसा राष्ट्र था जो उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद द्वारा अत्यधिक उत्पीड़ित था। स्वतंत्रता के बाद, भारत ने स्पष्ट रूप से पश्चिमी ताकदों से खुद को दूर कर लिया। प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का नेतृत्व किया और विकासशील देशों का सम्मान जीत लिया। बीते 70 से अधिक वर्षों के इतिहास का सिंहावलोकन करते हुए हमने देखा है कि भारत, अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी ताकतों का कभी भी सहयोगी नहीं रहा है। भारत के आर्थिक विकास के स्तर, विशाल जनसंख्या और अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक श्रृंखला में स्थान से यह निर्धारित है कि भारत के हित अमेरिका और पश्चिमी ताकतों के साथ नहीं हैं।

अमेरिका ने अपनी वर्चस्ववादी प्रणालियों का एक पूरा सेट स्थापित किया है। वह पूरी दुनिया का शासन और शोषण करने के लिए डॉलर-केंद्रित विश्व वित्तीय और व्यापारिक प्रणाली का उपयोग कर रहा है, और फिर अपनी सैन्य शक्तियों और आधिपत्य को बनाए रखने के लिए दुनिया भर से लूटी संपत्तियों का उपयोग कर रहा है। यदि कोई देश अमेरिकी स्थिति के लिए थोड़ा सा खतरा दिखाता है, तो अमेरिका इसे दबाने के लिए आर्थिक माध्यम से लेकर सैन्य शक्ति तक हर संभव साधन का उपयोग करेगा।

हाल के वर्षों में आर्थिक विकास के चलते चीन कुछ वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में अमेरिका के विकास स्तर तक पहुंच गया है। सो, अमेरिका का मानना है कि चीन के विकास ने उसे धमकी दी है। इसलिए वह चीन को अपना सबसे महत्वपूर्ण प्रतिद्वंद्वी मानता है और व्यापार, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी पहलुओं पर चीन के खिलाफ नकेल कसने लगा है।

एक शांतिप्रिय समाजवादी देश होने के नाते, चीन 'मानव जाति के साझा समुदाय' के राजनयिक सिद्धांत का पालन करता है। चीनी विकास का लक्ष्य अपने लोगों के जीवन स्तर में सुधार करना है। चीन किसी अन्य देश के साथ आर्थिक और व्यापार संबंधों को विकसित करने के लिए तैयार है। चीनी विदेश नीतियां न केवल पिछले सत्तर वर्षों में चीन के राजनयिक अभ्यास का सारांश है, बल्कि प्राचीन काल से 'सारी दुनिया एक ही परिवार है' की वकालत करने की चीन की सभ्य परंपरा की अभिव्यक्ति भी है। चीन की कुछ प्रगतियां प्राप्त होने के बावजूद चीनी लोगों का वास्तविक जीवन स्तर अभी भी पश्चिम से बहुत पीछे है।

चीन विश्व आधिपत्य के लिए संघर्ष को अपने विकास लक्ष्य के रूप में नहीं ले सकता है। अपनी भारत यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को 'साझा भाग्य विश्व समुदाय' की अवधारणा का परिचय दिया। उसी समय प्रधानमंत्री मोदी ने भी प्राचीन काल में 'वैसुधैव कुटुम्बकम्' की भारतीय अवधारणा की जानकारी दी। चीन और भारत जैसी पूर्वी सभ्यताओं के लिए दुनिया का भविष्य 'सारी दुनिया एक ही परिवार है' के मुतबिक बनाया जाना चाहिए, न कि वह अमेरिका के जैसे शक्तियों के अनुसार वर्चस्व बनाए रखा जाएगा।

उधर, अमेरिका का विकास लक्ष्य हमेशा अपने वैश्विक आधिपत्य को बनाए रखना रहा है। इसके लिए अमेरिका को अपनी सैन्य और तकनीकी महाशक्ति का दर्जा बनाए रखना पड़ता है, और उसकी आर्थिक और व्यापारिक नीतियों का उद्देश्य जरूर ही अन्य देशों को नुकसान पहुंचाना है। लेकिन चीन का विकास लक्ष्य 'सारी दुनिया एक ही परिवार है' के प्राचीन सभ्यता के मूल्यों को महसूस करना है, न कि अन्य देशों पर आक्रमण और शासन करना।

चीन और अमेरिका के मूल्य पूरी तरह से अलग हैं। अमेरिका ने हमेशा दूसरे देशों पर आक्रमण करने और दमन करने और अपने आर्थिक हितों को महसूस करने का अवसर लेने के लिए अपनी शक्तिशाली ताकत पर भरोसा किया है। चीन की पारंपरिक मूल्य अवधारणा 'दुनिया एक परिवार' है, बिना आत्मरक्षा के युद्ध शुरू करने की पहल नहीं करेगी। चीन का प्रस्ताव है कि मानव जाति के साझा भविष्य समुदाय का निर्माण करने से विश्व लोगों को वास्तविक लाभ पहुंचेगा। चीन और अमेरिका दो सभ्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। चीन पूर्वी सभ्यता प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि अमेरिका पश्चिमी सभ्यता का प्रतिनिधित्व।

चीन-अमेरिका प्रतिस्पर्धा वास्तव में दुनिया की दो सभ्यताओं के बीच के अंतर को दशार्ता है। चीन और अमेरिका के बीच का विवाद विश्व आधिपत्य के लिए संघर्ष नहीं है, बल्कि दोनों देशों द्वारा प्रतिनिधित्व की जाने वाली विभिन्न सभ्यताओं के बीच टकराव है।

हाल के वर्षों में, चीन ने लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिए उच्च तकनीक प्रौद्योगिकी अनुसंधान और विकास, उद्योग, कृषि, शिक्षा तथा पर्यावरण संरक्षण आदि में अपने निवेश में लगातार वृद्धि की है। चीन के विकास मॉडल आर्थिक और व्यापारिक आदान-प्रदान के माध्यम से दुनिया के दूसरे देशों के सामने दिखने लगे हैं। चीनी शक्तियों की वृद्धि से अंतरराष्ट्रीय नियमों, व्यवस्था और कुछ हद तक बोलने के अधिकार में अमेरिका के प्रभुत्व को तोड़ा गया है। लेकिन यह सब एक नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का निर्माण करने के लिए है, जो विश्व के सार्वभौमिक हितों के अनुरूप है।

अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों और भारत जैसे विकासशील देशों को सब इस प्रणाली में साथ-साथ विकास कर सकेंगे। उधर, चीन की सफलता दूसरे विकासशील देशों को एक नया विकास मॉडल तथा अधिक बाजार अवसर तैयार हैं। नव उभरते हुए देश के रूप में, भारत के लिए यह गहन तौर पर विचार करने योग्य सवाल है कि वह अमेरिकी आधिपत्य द्वारा शासित पुराने आदेश का अनुसरण करेगा, या चीन के साथ मिलकर साझा भविष्य के विश्व समुदाय बनाने के लिए काम करेगा।


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