सिकल सेल रोग रौशनी का एक दीप जलाओ
नवजात शिशुओं का जन्म के समय से ही रक्त परीक्षण कर सिकल रोगी बच्चे को चिन्हित किया जा सकता है

- डा. ए.आर. दल्ला
नवजात शिशुओं का जन्म के समय से ही रक्त परीक्षण कर सिकल रोगी बच्चे को चिन्हित किया जा सकता है। रोगग्रस्त जन्में बच्चों को 2 माह की आयु से ही पेनीसिलीन की गोली और निमोकोकस वैक्सीन (टीका) देकर इन बच्चों में संक्रमण से होने वाली बीमारी को रोका जा सकता है । आवश्यकतानुसार रक्त प्रदाय कर एनीमिया और सिकल रोग से होने वाले दुष्प्रभाव को रोककर ऐसे बच्चों को लम्बा जीवनकाल दिया जा सकता है।
प्रतिवर्ष 9 जून को विश्व सिकल दिवस मनाया जाता है इसका उद्देश्य सिकल रोग की जानकारी बढ़ाना है। सदियों तक सिकल सेल रोग पर भ्रांतियां बनी रहीं। इस रोग से प्रभावित लोगों में शिक्षा का अभाव था। कबीलाई मान्यताओं के चलते इसे ईश्वर का अभिशाप माना जाता था कुछ लोग इसे समागम से होने वाली या छुआछूत से होने वाली बीमारी समझते थे। इन सभी भ्रांतियों को दूर करने के लिये इस वर्ष 2025 के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 'शाईन द लाईट ऑन सिकल सेल' का नारा दिया है जिसका भावार्थ है कि सिकल सेल रोग पर प्रकाश प्रज्जवलित करो ।
सिकल सेल विकृति एक आनुवांशिक (जेनेटिक) रोग है। विश्व के पांच प्रतिशत लोग इससे प्रभावित हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस रोग में गोलाकार लाल रक्त कण (हीमोग्लोबिन) हंसिए (सिकल) के रूप में परिवर्तित होकर नुकीले और कड़े हो जाते हैं। यह रक्त कण शरीर की छोटी रक्तवाहिनीयों में फंसकर लिवर, तिल्ली, किडनी, मस्तिष्क आदि अंगों के रक्त प्रवाह को बाधित कर देते हैं। रक्त कणों के जल्दी-जल्दी टूटने से भी रोगी को सदैव रक्त की कमी (एनीमिया) रहती है, इसलिए इस रोग को सिकल सेल एनीमिया भी कहा जाता है। अब से 115 वर्ष पहले डॉ. मेसन और डॉ. जेम्स हेरिक ने सबसे पहले आपने मायक्रोस्कोप में इसे देखा। लम्बे, नुकीले और हंसिये जैसे अर्द्धचन्द्राकार आकार के कारण इसे सिकल सेल एनीमिया का नाम दिया गया ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार विश्व में प्रतिदिन बच्चे 1 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते काल-कवलित हो जाते हैं। बचे हुए लोग युवा अवस्था तक मुश्किल से पहुंचते हैं। यह बीमारी अफ्रीका, सऊदी अरब, एशिया और भारत में ज्यादा पाई जाती है, जहां मलेरिया का प्रकोप अधिक है। पहले यह रोग अश्वेत अफ्रीकन (नीग्रो) लोगों का रोग माना जाता था। चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के साथ मालूम हुआ कि भारतवर्ष, अरब और मेडीटेरियन अफ्रीका के ऐसे देशों में व्याप्त है जहां घने जंगल हैं, और जहां मलेरिया का प्रकोप है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे एक घातक आनुवांशिक रोग चिन्हित करते हुए कहा है कि इस विकृति के प्रबंधन एवं जनजागरण के चलते मलेरिया, कुपोषण एवं एनीमिया से होने वाली बीमारी से शिशु मृत्यु दर में कमी लाई जा सकेगी।
यह विडंबना ही है कि वर्ष 1952 तक भारतवर्ष में इस बीमारी के विषय में विशेष जानकारी नहीं थी। समय के साथ मालूम हुआ कि मध्य भारत के आदिवासी, पिछड़े और वंचित लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग इस बीमारी से ग्रस्त है। छत्तीसगढ़ में किए गये सर्वे के अनुसार छत्तीसगढ़ के पिछड़े, वंचित और आदिवासी लोगों में यह बीमारी 10 से 40 प्रतिशत तक व्याप्त है ।
भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए यह अनुमानित है कि विश्व के आधे सिकल सेल रोगी भारत में रहते हैं। एक लम्बे समय तक इस विभीषिका को पहचाना नहीं जा सका। 'अनुसंधान के अभाव' में चिकित्सक अनभिज्ञ, प्रशासक संवेदनाशून्य और मीडिया मौन रहा। सिकल सेल रो पर जाग्रति तेज गति से बढ़ी है। किन्तु आज भी भारत में सिकल का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है । अब प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने त्वरित गति से 'मिशन मोड' पर इस कार्यक्रम को गति दी है।
सिकल सेल व्यक्ति दो तरह के होते हैं- (1) एक वाहक (एएस) एवं (2) दूसरा सिकल सेल रोग पीड़ित (एसएस)। जब माता या पिता प्रत्येक से एक-एक जीन संतान को मिलता है तो इसे सिकल सेल का वाहक कहा जाता है। सिकल सेल वाहक को कोई तकलीफ नहीं होती है। उन्हें किसी इलाज की भी जरूरत नहीं होती। लेकिन जब वे आपस में विवाह करते हैं तो इस रोग के प्रसार की संभावना बढ़ जाती है। उन्हें विवाह पूर्व सिकल कुंडली मिलाने की समझाइश दी जाती है। यदि दो वाहक आपस में विवाह कर भी लेते हैं तो उन्हें गर्भधारण के शुरूआती महीनों में गर्भजल परीक्षण (एमीनोसेन्टेसिस) जाँच कराकर गर्भस्थ सिकल रोगी (एसएस) बच्चे का गर्भपात करा लेना वैधानिक है ।
नवजात शिशुओं का जन्म के समय से ही रक्त परीक्षण कर सिकल रोगी बच्चे को चिन्हित किया जा सकता है। रोगग्रस्त जन्में बच्चों को 2 माह की आयु से ही पेनीसिलीन की गोली और निमोकोकस वैक्सीन (टीका) देकर इन बच्चों में संक्रमण से होने वाली बीमारी को रोका जा सकता है । आवश्यकतानुसार रक्त प्रदाय कर एनीमिया और सिकल रोग से होने वाले दुष्प्रभाव को रोककर ऐसे बच्चों को लम्बा जीवनकाल दिया जा सकता है।
अब सिकल रोग पर विश्व के कई देशों में अनुसंधान का कार्य भी चल रहा है। हाइड्रोक्सीयूरिया जैसी दवाओं ने सिकल रोगियों (एसएस) का प्रबंधन आसान कर दिया है। अब विश्व में जेनेटिक इंजीनियरिंग, जीन थैरेपी एवं मालेकुलर जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुसंधान का कार्य प्रगति पर है।
छत्तीसगढ़ विधान सभा में एक संकल्प प्रस्ताव रखा गया था जो सर्वसम्मति से पारित हो चुका है । छत्तीसगढ़ में मालेकुलर और जेनेटिक लेब की स्थापना हुई है। भारत में सबसे पहले छत्तीसगढ़ के सिकल सेल संस्थान की स्थापना भी हुई है।
यह भी उल्लेखनीय है कि इस रोग में शरीर का भी कोई अंग प्रभावित हो सकता है। ऐसी सभी उलझनों का प्रबंधन आसानी से किया जा सकता है।
सिकल सेल को राष्ट्रीय स्तर पर गति तब मिली जब भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इसका संज्ञान लिया। वर्ष 2023 में प्रधानमंत्री जी ने सिकल सेल रोग विकृति की रोकथाम के लिये 'मिशन मोड' पर एक त्वरित प्रयास का शुभारम्भ किया। मध्यप्रदेश के 'शहडोल' नामक शहर में एक विशेष सिकल सेल नियंत्रण की स्थापना की गई है। प्रारम्भिक तौर पर भारत के 17 जिलों के प्रभावित विशेषकर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में सिकल सेल का सर्वेक्षण, रोकथाम एवं जन-जागरण का कार्यक्रम त्वरित गति से मिशन मोड पर प्रारम्भ हुआ। इस अवसर पर सिकल के वाहक या विवाह योग्य युवकों के लिये एक डिजीटल कार्ड भी बनाया गया है जो सिकल सेल कुंडली पर भी ध्यान आकर्षित करेगा।
प्रधानमंत्री ने वर्ष 2047 तक सिकल सेल विकृति के उन्मूलन का लक्ष्य भी निर्धारित किया है। इसके साथ ही विश्व के लिये एक बड़ी उपलब्धि का आगाज हो चुका है। समय बदल रहा है। अब फीटल हिमोग्लोबीन में परिवर्तन हेतु जेनेटिक इंजीनियरिंग का कार्य प्रगति पर है। आने वाले समय में प्रयोगशाला में नये जीन का निर्माण कर उसे अस्थिमज्जा में प्रथापित किया जा सकेगा। भविष्य में हम सिकल गाथा की समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।
आओ हम सब मिलकर विश्व सिकल दिवस पर रौशनी का दीप जलाये ।
(लेखक भारतीय रेड क्रॉस सोसायटी छत्तीसगढ़ के भूतपूर्व चेयरमैन और प्रोजेक्ट सिकल छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष भी रहे हैं। )


