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श्रद्धा आफ़ताब ही ज्वलंत मुद्दा, देश की बाकी समस्याएं नगण्य
आफ़ताब ने पानी का बिल नहीं भरा है जबकि उसने श्रद्धा के टुकड़े करने के बाद खून बहाने के लिए लाखों लीटर पानी बहाया। यह खबर एक चैनल ने बड़े ही सनसनी के साथ ब्रेकिंग के रूप में प्रस्तुत की।

गजेन्द्र इंगले
आफ़ताब ने पानी का बिल नहीं भरा है जबकि उसने श्रद्धा के टुकड़े करने के बाद खून बहाने के लिए लाखों लीटर पानी बहाया। यह खबर एक चैनल ने बड़े ही सनसनी के साथ ब्रेकिंग के रूप में प्रस्तुत की। यह अजीब सा गम्भीर मुद्दा सुनने के बाद कुछ पल तक तो समझ मे ही नहीं आया कि ऐसी मीडिया को लानत दूँ या इन पर हँसूँ। न्यूज़ चैनल बदलते जाइये लेकिन खबर सभी पर एक ही है। श्रद्धा आफ़ताब अब राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है। इनसे जुड़ी छोटी से छोटी बात इस समय बड़ी खबर है।
मामला व्यक्तिगत हो या आवेग में कई गया हत्या, लेकिन इसे लव जिहाद के एंगल से जोड़कर देखा जा रहा है। आफ़ताब के धर्म को लेकर सोशल मीडिया पर काफी बहस हो रही है। मानलों आफ़ताब के धर्म की खोज पर ही हमें कोई नोबेल पुरुस्कार मिलने वाला हो। हत्या की वजह हत्या करने वाले के धर्म से ही तय किये जाने का नया प्रचलन चल पड़ा है। माना कि यह एक जघन्य हत्या का मामला है लेकिन इसे धर्म की आग में झोंक कर टीआरपी बटोरी जा रही है। सोशल मीडिया पर लोग बेटियों को श्रद्धा प्रकरण से सीख लेने की नसीहत दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर ज्ञान लव जिहाद का ज्ञान बखेरने वाले ऐसे भी कई लोग होंगे जिनके घर की कहानी ही उनको पता न हो लेकिन उन्हें लगता है कि दूसरों को ज्ञान देने का स्व हस्ताक्षरित प्रमाणपत्र लेकर घूमना ही उनका मौलिक अधिकार है।
श्रद्धा आफ़ताब या किसी भी लव जिहाद के मुद्दे में स्त्री गुलामी का रंग भी साफ नजर आता है। श्रद्धा आफ़ताब की जगह सकीना तारा सिंह यदि इस घटना के किरदार होते तो शायद इतनी लंबी बहस नहीं होती। मामला लवजिहाद का तभी बताया जाता है जब स्त्री मतलब जिसको पुरुष प्रधान समाज अपनी संपत्ति समझता हो , वह पीड़ित हो। आप ही याद कीजिये, क्या इतिहास में कोई ऐसा लव जिहाद का मुद्दा सुर्खियों में रहा है जहाँ हिन्दू पुरुष ने मुस्लिम लड़की से शादी की हो और इसका विरोध धर्म के ठेकेदारों या सोशल मीडिया के ज्ञानियों ने किया हो। मतलब स्त्री आज भी स्वयं के लिए निर्णय लेने को स्वतंत्र नहीं है। हजारों स्त्रियों में से यदि एक स्त्री का निर्णय गलत हो जाये तो सभी लड़कियों को ज्ञान बांटकर ऐसा प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि स्त्री निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। जबकि पुरुष द्वारा दूसरे धर्म में शादी का मामला कभी मुद्दा नहीं बनता।
श्रद्धा आफ़ताब का मुद्दा इस समय इतनी जोर शोर से सुर्खियों में है मानो देश की अन्य समस्याएं खत्म हो गई हैं। न तो देश मे महंगाई बची है न ही भ्रस्टाचार! शिक्षा और स्वास्थ्य तो कभी भी टीआरपी देने वाले विषय रहे ही नहीं इसलिए उन्हें मुद्दा बनाना भी गैर जरूरी है। आप ही याद करिए क्या किसी चेनल पर इन मुद्दों पर लंबी बहस होती देखी है? सुशांत आत्महत्या मामले को भी बेवजह तूल देकर ब केवल मुद्दा बनाया गया बल्कि भुनाया भी गया। अब सुशांत को और ड्रग को ये चैनल भूल चुके हैं क्योंकि उनका निहित स्वार्थ सिद्ध हो चुका है। वर्तमान में भी श्रध्दा आफ़ताब मुद्दा कुछ निहित स्वार्थों की वजह से ही सुर्खियों में है। कुछ राज्यों में चुनाव है वहां के हिन्दू बेटियां वोटर्स भी हैं, यह इस चैनलों की जिम्मेदारी है कि वह इन बेटियों के मन में असुरक्षा का भाव भर दें फिर इन्हें एक पार्टी को वोट देने के लिए प्रेरित किया जाए जो इनके धर्म की वकालत करे।
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