पत्रकारिता के रोशन सितारे
मुझे राहुल बारपुते जी, जिन्हें सभी बाबा के नाम से संबोधित करते थे, का बहुत स्नेह मिला

- बाबा मायाराम
मुझे राहुल बारपुते जी, जिन्हें सभी बाबा के नाम से संबोधित करते थे, का बहुत स्नेह मिला। उन्होंने मुझे बताया था कि पत्रकारिता एक श्रमसाध्य काम है, इसे सतही तौर पर नहीं करना चाहिए। वे कहते थे कि जैसे चिड़िया एक- एक तिनका लाकर उसका घोंसला बनाती है, उसी तरह पत्रकार तथ्यों को जुटाकर कहानी
बनाते हैं।
इन दिनों जब पत्रकारिता की स्थिति देखता हूं, तब मुझे मेरे पत्रकारिता के पुराने दिन याद आ जाते हैं। मैंने नई दुनिया में तीन साल काम किया और देशबन्धु में पांच साल। ये दोनों ही समाचार पत्र अविभाजित मध्यप्रदेश में काफी प्रतिष्ठित माने जाते थे। यह 80-90 के दशक की बात है। नईदुनिया में मैने 1988 से 1991 तक काम किया। यहां मैंने किसी संपादकीय डेस्क पर काम करने की बजाय पुस्तकालय में काम किया। यह मेरे लिए एक नई खिड़की खोलने जैसा था।
किताबों, पत्र-पत्रिकाओं ने मेरे अनुभव संसार को काफी व्यापक किया। उस समय नईदुनिया के संपादक राहुल बारपुते जी थे। वे लगभग रोज ही संवाददाताओं व पत्रकारों के साथ मीटिंग करते थे। जिसमें वे अखबार की त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाते थे। और अखबार की भाषा कैसी होनी चाहिए, यह बताते थे।
मुझे राहुल बारपुते जी, जिन्हें सभी बाबा के नाम से संबोधित करते थे, का बहुत स्नेह मिला। उन्होंने मुझे बताया था कि पत्रकारिता एक श्रमसाध्य काम है, इसे सतही तौर पर नहीं करना चाहिए। वे कहते थे कि जैसे चिड़िया एक- एक तिनका लाकर उसका घोंसला बनाती है, उसी तरह पत्रकार तथ्यों को जुटाकर कहानी बनाते हैं। यह जल्दबाजी का नहीं, समय लेकर करने का काम है। पुस्तकालय में बैठकर किताबें पढ़ना और तथ्यों को जुटाना और फिर कहानी बनाना। वे खुद भी बहुत मेहनत करते थे, उन्हें प्रत्येक सोमवार का संपादकीय लिखना होता था, जिसके लिए वे विविध तरह की संदर्भ सामग्री का अध्ययन करते थे। कला, साहित्य, संगीत, नाटक और शिल्पकला के गहरे जानकार थे।
उनके गहरे जन सरोकार थे। उनकी मित्रता कलागुरु विष्णु चिंचालकर और शास्रीय संगीत के प्रसिध्ध गायक कुमार गंधर्व से थी। इन तीनों की मित्रता अनूठी थी, जिसकी चर्चा जाननेवाले करते रहते हैं, किस्से बताते हैं। नईदुनिया में उस समय प्रतिष्ठित लेखक,विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता लिखते थे और आते रहते थे। अखबार में ग्रामीण, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी मुद्दों को उचित स्थान मिलता था। कृषि, शिक्षा,स्वास्थ्य,साफ-सफाई,स्वच्छता, स्थानीय निकाय और शहर के हाशिये के लोगों की समस्याओं पर जोर दिया जाता था। संपादक के नाम पत्र का जवाब खुद संपादक ही दिया करते थे। और संपादक के नाम पत्र अखबार में छपना भी बड़ी बात हुआ करती थी, और जो भी समस्याएं या मुद्दे उठाए जाते थे, उन पर संबंधित विभाग ध्यान देते।
वर्ष 1995 में मैंने रायपुर देशबन्धु ज्वाइन किया। हमारे प्रधान संपादक ललित सुरजन जी थे। ललित जी जिन्हें सभी बड़े भैया कहते थे। सिर्फ संबोधन ही आत्मीय नहीं था, बल्कि देशबन्धु का माहौल ही आत्मीय और पारिवारिक था। किसी भी कर्मचारी व सहयोगी को नाम के साथ भैया का संबोधन किया जाता था। पिरामिडनुमा ढांचा नहीं था और न ही संपादक व प्रधान संपादकों से मिलने के बीच कोई दीवार थी। कोई भी बिना रोक-टोक मिल सकता है और किसी भी समस्या पर बात कर सकता है। नईदुनिया की तरह देशबन्धु में भी बहुत समृद्ध पुस्तकालय था, जहां संदर्भ सामग्री की फाइलें, फोटो व किताबों का
भंडार था। देशबन्धु में ग्रामीण व विकासोन्मुख रिपोर्टिंग को काफी प्रमुखता दी जाती थी। यही कारण है कि देशबन्धु को कई बार राष्ट्रीय स्तर के स्टेट्समैन ग्रामीण पुरस्कार मिले। मुझे खुद देशबन्धु से ग्रामीण रिपोर्टिंग करने के लिए छत्तीसगढ़ के दूरदराज के इलाकों में भेजा गया। इस दौरान मुझे कमार, बैगा, भुंजिया जैसे आदिवासियों के जीवन में झांकने मौका मिला, उनकी अनूठी संस्कृति से साक्षात्कार करने का मौका मिला।
सांस्कृतिक समृद्धता छत्तीसगढ़ की प्रमुख विशेषता है। यहां कई तरह के तीज-त्योहार, लोकगीत, लोकनृत्य आदि की साझी संस्कृति है। खेती की विविधतावाली संस्कृति है। पंडवानी और सतनामी के पंथी नृत्य मशहूर हैं। आदिवासियों की रंग-बिरंगी व एक-दूसरे को जोड़नेवाली संस्कृति को भी यहां देखा जा सकता है। मशहूर कृषि वैज्ञानिक डॉ.आर.एच.रिछारिया ने इसी इलाके से सैकड़ों प्रजाति के देशी धान के बीज संग्रहीत किए थे। इन सबको देशबन्धु में उचित स्थान मिलता था। स्थानीय संस्कृति को संजोने के लिए साप्ताहिक परिशिष्ट मंडई के नाम से प्रकाशित होता था। साहित्य व संस्कृति के लिए अक्षर पर्व की ख्याति थी।
देशबन्धु में कवि गोष्ठियां, साहित्यकारों का आना-जाना, जनमुद्दों पर विशेष रिपोर्टिंग देशबन्धु की प्राथमिकता थी। ग्रामीण खबरों पर जोर था। ग्रामीण संवाददाताओं की खबरों को फिर से लिखना, फोन पर व अन्य स्रोतों से तथ्यों की जांच करना, वरिष्ठ संपादकों द्वारा दुबारा खबर पढ़ना और संपादन करना और फिर खबर को अखबार में देना, एक पूरी लंबी प्रक्रिया होती थी। आज की तरह बेरोक-टोक खबरों की आवाजाही नहीं होती थी। बल्कि उसके जनसरोकार व उपयोगिता का ख्याल रखा जाता था। देशबन्धु ने कई ग्रामीण संवाददाताओं का प्रशिक्षण किया और नए लेखक तैयार किए। उन्हें सामाजिक सरोकार व भाषायी संस्कारों से गढ़ा। दरअसल लिखना हो या पढ़ना, यह अभ्यास से ही आता है। लिखना लिखने से आता है और पढ़ना पढ़ने से। यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहनी चाहिए। बड़े भैया यानी ललित सुरजन जी बहुत ही अध्ययनशील थे। कवि व साहित्यकार थे। किताबें पढ़ना उन्हें बहुत प्रिय था। नईदुनिया और देशबन्धु में एक रिश्ता भी है। नईदुनिया इन्दौर के रायपुर संस्करण से इसकी शुरूआत हुई थी, जो बाद में स्वतंत्र रूप से देशबन्धु हो गया। शायद इसलिए भी इनमें समानताएं दिखाई देती हैं। मुझे दोनों में काम करने के सौभाग्य मिला। ऐसे अनूठे संपादकों का साथ मिला, जिन्होंने मेरी भाषा ही परिमार्जित नहीं की, पत्रकारिता
के मूल्य दिए। अब राहुल बारपुते जी और ललित सुरजन जी, दोनों हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी सीख सदैव ही साथ रहेगी। आज के दौर में उन्हें याद करने का मतलब पत्रकारिता के मूल्यों को याद करना भी है, जिन पर चलने की जरूरत है।


