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पत्रकारिता की मशाल थामने वाले शीतला जी

देश के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह का निधन मीडिया जगत के लिए एक ऐसी क्षति है

पत्रकारिता की मशाल थामने वाले शीतला जी
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- सर्वमित्रा सुरजन

जब देश में करोड़ों बेरोजगार हैं, तो कुछ लाख को नौकरियों से इस समस्या का हल कैसे निकल सकता है। और इन लाखों लोगों में कितने योग्य लोगों को रोजगार मिल रहा है, इसकी पड़ताल का जिम्मा भी पत्रकारों पर ही है। मगर जब सरकार से सवाल पूछने की परंपरा खत्म हो गई है, तो पड़ताल तो दूर की बात है। कोई बाप एंबुलेंस के अभाव में अपनी बेटी के शव को साइकिल पर ले कर जा रहा है या इलाज के अभाव में मासूम लोग दम तोड़ रहे हैं, ये खबरें पत्रकारों की चिंता नहीं रह गई हैं।

देश के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह का निधन मीडिया जगत के लिए एक ऐसी क्षति है, जिसकी भरपाई संभव नहीं है। देशबन्धु परिवार के लिए यह व्यक्तिगत क्षति भी है। देशबन्धु के प्रधान संपादक रहे ललित सुरजन और शीतला सिंह का दशकों का साथ रहा। पत्रकारिता के मूल्यों में आ रही गिरावट और देश में सांप्रदायिक ताकतों के बढ़ने पर दोनों की चिंताएं एक जैसी ही थीं। दोनों की आजीविका पत्रकारिता से ही चली, किसी अन्य व्यवसाय से नहीं।

सीमित साधनों में, रोजमर्रा की वित्तीय दिक्कतों के बावजूद, हर मुश्किल का सामना करते हुए दोनों ने अपने-अपने प्रदेशों में अखबार निकाला। और देशबन्धु और जनमोर्चा दोनों के सामने ऐसी स्थितियां भी आईं, जब सरकार का कोपभाजन बनने के कारण अखबार के संस्करण बंद करने की नौबत आईं, लेकिन फिर भी मूल्यों से समझौता दोनों ने नहीं किया। जब ललित जी कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से जूझ रहे थे, तब कोरोना लॉकडाउन का वक्त था, इस वजह से शीतला जी उनसे भेंट नहीं कर सके, लेकिन फोन पर वे लगातार उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेते रहते थे, और घर के बुजुर्ग की तरह तबियत की बेहतरी के लिए अपनी सलाह भी दिया करते थे।

बढ़ती उम्र के कारण खुद उनके सामने भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं थीं, लेकिन संयोग देखिए कि देश के दो दिग्गज संपादक आखिरी वक्त तक पत्रकारिता के मोर्चे पर डटे रहे। ललित जी 30 नवंबर 2020 को अस्पताल में भर्ती हुए, लेकिन उससे पहले दोपहर को उन्होंने संपादकीय लिखा, जो हैदराबाद नगरनिगम के चुनावों पर आधारित था। इसमें ललित जी ने इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि किस तरह संकीर्ण धार्मिक आस्था पर आधारित केन्द्रीय सत्ता को स्थापित करने की सोची-समझी रणनीति के तहत देश में राजनीति चल रही है। आज तीन साल बाद भी देश में हालात वही हैं। ललितजी की तरह शीतलाजी भी अपने जीवन के आखिरी दिन जनमोर्चा के दफ्तर में मौजूद थे, व्हील चेयर पर होना उनके अखबारी सरोकारों में कोई बाधा खड़ी नहीं कर पाया।

सही अर्थों में पत्रकारिता से जुड़े लोग शीतला सिंह के काम से परिचित होंगे, बाकियों के बारे में कहा नहीं जा सकता। अब तो भारतीय पत्रकारिता का चेहरा वही लोग बन गए हैं, जो या तो विदेशों से बड़े पुरस्कार हासिल कर, सारी सुख-सुविधाओं के बीच आदर्श की बड़ी बातें करते हैं, या फिर वे पत्रकार जो सत्ता की चापलूसी कर स्टार पत्रकारों की श्रेणी में आ गए हैं। गोया पत्रकार नहीं हुए, किसी ग्लैमरस शो का हिस्सा हो गए हैं। वैसे पत्रकारिता भी अब फिल्मी जगत की तरह ग्लैमरस व्यवसाय में तब्दील कर दी गई है। यहां लाइट, कैमरे और शो बाजी की चमक में बुनियादी मुद्दे इतनी आसानी से गायब कर दिए जाते हैं, जैसे जादूगर हाथ की सफाई से चीजें गायब कर देता है।

हालांकि चीजें गायब नहीं होती, वह उसी जगह पर रहती हैं, लेकिन सम्मोहित दर्शक उन्हें देख नहीं पाते। यही हाल पत्रकारिता का हो गया है। मुद्दे तो अब भी वहीं हैं, लोगों के सामने रोजमर्रा की बढ़ती महंगाई, बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा का प्रबंध, उनकी नौकरी की चिंता, लड़कियों की सुरक्षा की फिक्र, बुजुर्गों के लिए सम्मान और आराम का जीवन, विकलांगों, किन्नरों के लिए भेदभाव रहित जीवन और समाज में इज्जत का माहौल, पर्यावरण, वन संरक्षण की चिंताएं, दलितों, अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों, लघु और मध्यम उद्योग संचालकों के सामने पेश आने वाली समस्याएं, ऐसे दर्जनों विषय हैं, जिन पर रोजाना खबरें बननी चाहिए। लोगों की चिंताओं को आवाज देने का काम मीडिया करे और उन्हें सरकार तक पहुंचाए। लेकिन देश में इस वक्त उल्टी गंगा बह रही है।

प्रधानमंत्री कभी 10 लाख रोजगार के लिए नियुक्ति पत्र बांटें या किसी ट्रेन को हरी झंडी दिखाएं तो उस पर पन्ने भर के खबरें आती हैं, चैनलों की सुर्खियां बनती हैं। तब मीडिया सरकार से सवाल नहीं करता कि ऊंट के मुंह में जीरा समान रोजगार देकर सरकार आखिर किस तरह अपनी वाहवाही करवा सकती है। जब देश में करोड़ों बेरोजगार हैं, तो कुछ लाख को नौकरियों से इस समस्या का हल कैसे निकल सकता है। और इन लाखों लोगों में कितने योग्य लोगों को रोजगार मिल रहा है, इसकी पड़ताल का जिम्मा भी पत्रकारों पर ही है।

मगर जब सरकार से सवाल पूछने की परंपरा खत्म हो गई है, तो पड़ताल तो दूर की बात है। कोई बाप एंबुलेंस के अभाव में अपनी बेटी के शव को साइकिल पर ले कर जा रहा है या इलाज के अभाव में मासूम लोग दम तोड़ रहे हैं, ये खबरें पत्रकारों की चिंता नहीं रह गई हैं। चुनावों में खुलेआम धांधली की खबरें आती हैं, चंदौली में हाल ही में नगरपालिका चुनाव में सोनू किन्नर को अपनी जीत के लिए वोटों की दोबारा गिनती करवाने में संघर्ष करना पड़ा, इसके वीडियो देखकर आम आदमी दंग रह जाए, मगर पत्रकारों के लिए ये भी अहम खबर नहीं है। उनके लिए प्रमुख खबरें तब बनती हैं जब कोई फिल्मी या खेल सितारा विवादों में पड़ता है। अभी एनसीबी अधिकारी समीर वानखेड़े पर सीबीआई ने कार्रवाई की।

समीर वानखेड़े पर नशे के झूठे मामलों में फंसाकर बड़ी रकम ऐंठने का आऱोप है। वानखेड़े ने ही आर्यन खान को ड्रग्स रखने के आरोप में गिरफ्तार किया था। तब कई स्टार पत्रकारों ने बॉलीवुड को नशे का गटर, फिल्मी सितारों के बच्चों को नशेड़ी, अमीर बाप की बिगड़ी औलादें और न जाने किस-किस तरह से कुख्यात किया था। अब वानखेड़े पर तो किसी वजह से कानूनी कार्रवाई हुई है, लेकिन क्या इन पत्रकारों पर आय़र्न खान या शाहरुख खान को बदनाम करने पर मानहानि नहीं होनी चाहिए।

भले लोगों पर कीचड़ उछालने का जुर्म ही पत्रकार नहीं कर रहे, देश में नफरती उन्माद भरने का संगीन जुर्म भी मीडिया कर रहा है। हालात इतने गंभीर हैं कि कई बार सुप्रीम कोर्ट को इस पर चिंता जाहिर करनी पड़ी है। लेकिन फिर भी रोज की टीवी बहसों में हिंदू-मुस्लिम का शोर मचाया जा रहा है। ढोंगी बाबाओं का महिमामंडन करने का काम पत्रकार कर रहे हैं। ऐसे वक्त में याद आता है कि किस तरह शीतला सिंह और उनका पर्याय बन चुके जनमोर्चा अखबार ने अयोध्या में बाबरी विध्वंस के वक्त पत्रकारिता के मूल्य ढहने से बचाए थे।

लालकृष्ण आडवानी की रथयात्रा के बाद कारसेवकों को देश की गंगा-जमुनी तहजीब में सांप्रदायिकता का कीचड़ उड़ेलने के लिए तैयार किया गया था, और इसका परिणाम एक धक्का और के रूप में देश-दुनिया ने देखा था। अटल बिहारी वाजपेयी ने जमीन को समतल करने की बात की थी और अब तो 2 सीटों से लेकर लोकसभा में बहुमत हासिल करने वाली भाजपा की देख-रेख में अयोध्या में भव्य राम मंदिर बन रहा है। देश को बांटने वाले इस राजनैतिक विवाद को धर्म का चोला ओढ़ा कर किस तरह खड़ा किया गया, इसके तमाम पेंचोखम शीतला सिंह अच्छे से जानते थे और उन्होंने भरसक कोशिश की कि समाज में सौहार्द्र बने रहे। जनमोर्चा ने इसमें अहम भूमिका निभाई। बाहर से आने वाले कई पत्रकारों को निष्पक्ष जानकारी इस अखबार और शीतला सिंह से मिली।

अब शीतलाजी नहीं हैं, देश की राजनीति सांप्रदायिक ताकतों के चंगुल में है और पत्रकार सत्ता के दुलारे बनने को उतावले हैं। इस कठिन समय में पत्रकारिता की मशाल थामने वाले एक और हाथ का कम हो जाना अत्यंत दुखद है।


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