शंकराचार्य की खरी-खरी
ज्योतिर्मठ शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती पिछले दिनों उद्योगपति मुकेश अंबानी के बेटे के विवाह में अपना आशीर्वाद देने पहुंचे थे

- सर्वमित्रा सुरजन
कुंभनदास के इस पद से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और राजनीति दो अलग-अलग क्षेत्र हैं। लेकिन भारत की राजनीति में अब धर्म को एक बड़ा मुद्दा बना लिया गया है। खासकर भारतीय जनता पार्टी की तो पूरी राजनीति ही हिंदुत्व के इर्द-गिर्द शुरु हुई और उसी पर आगे बढ़ी। अगर लालकृष्ण आडवानी सोमनाथ से रथयात्रा लेकर अयोध्या की ओर नहीं निकलते या भाजपा राम मंदिर निर्माण को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल नहीं करती तो उसकी पकड़ कभी सत्ता पर बन ही नहीं सकती थी।
ज्योतिर्मठ शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती पिछले दिनों उद्योगपति मुकेश अंबानी के बेटे के विवाह में अपना आशीर्वाद देने पहुंचे थे। अपने मुंबई प्रवास के दौरान शंकराचार्य शिवसेना मुखिया उद्धव ठाकरे के निवास भी पहुंचे और इसके बाद उन्होंने कुछ बयान दिए, जिनसे नयी राजनैतिक हलचल उठी। इसके बाद शंकराचार्य को नसीहत दी गई कि उन्हें राजनैतिक मसलों पर नहीं बोलना चाहिए। हालांकि इस नसीहत का माकूल जवाब शंकराचार्य ने दिया है। मगर इससे राजनीति में धर्म की स्वार्थवश की जा रही मिलावट पर विचार करने का एक बड़ा अवसर देश को मिल गया है। धर्म और राजनीति को लेकर 15वीं सदी के संत कवि कुंभनदास ने अकबर के दरबार से लौटने के बाद जो पद लिखा था, वह 22वीं सदी में भी अपनी प्रासंगिकता साबित कर रहा है।
अष्टछाप के कवि कुंभनदास ब्रजभूमि में रहते थे, उन्होंने महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी। एक बार उन्हें अकबर के दरबार में फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया गया और वहां उनका पूरा सम्मान भी हुआ, लेकिन फिर भी भगवद्भक्ति में डूबे रहने वाले कुंभनदास का मन शहंशाह के दरबार जाकर भी खिन्न हो गया, क्योंकि वहां उन्हें ऐसे लोगों से भी भेंट करनी पड़ी, जो धर्म के विपरीत काम करते थे और जिन्हें देखकर खुशी नहीं होती थी। सीकरी से लौटकर कुंभनदास ने लिखा कि-
संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पनहियां टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुंभनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।
कुंभनदास के इस पद से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और राजनीति दो अलग-अलग क्षेत्र हैं। लेकिन भारत की राजनीति में अब धर्म को एक बड़ा मुद्दा बना लिया गया है। खासकर भारतीय जनता पार्टी की तो पूरी राजनीति ही हिंदुत्व के इर्द-गिर्द शुरु हुई और उसी पर आगे बढ़ी। अगर लालकृष्ण आडवानी सोमनाथ से रथयात्रा लेकर अयोध्या की ओर नहीं निकलते या भाजपा राम मंदिर निर्माण को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल नहीं करती तो उसकी पकड़ कभी सत्ता पर बन ही नहीं सकती थी। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी धर्म के इस राजनैतिक उपयोग से आशंकित थे। क्योंकि उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान देखा कि किस तरह अंग्रेजों ने भारत की धार्मिक विविधता को समझ कर, उसमें फूट डालने की कोशिश कर फिर उसे अपनी सत्ता के लिए इस्तेमाल किया। 1905 के बंग-भंग के फैसले से लेकर 1947 में भारत-पाक विभाजन तक अंग्रेज इसी खेल पर ही राज करते रहे। जनता धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल के असल मकसद को नहीं समझ पाई तो सावरकर और जिन्ना को द्विराष्ट्र सिद्धांत को आगे बढ़ाने का मौका मिला। गांधीजी की हत्या जैसा जघन्य अपराध भी राजनीति में धर्मांधता के घातक असर से संभव हुआ। इसलिए जब 1951 में सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन किया जा रहा था और इसके लिए राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद को आमंत्रित किया गया कि उन्हीं के हाथों से यह कार्यक्रम संपन्न हो, तो नेहरू जी ने इसके खिलाफ अपनी राय प्रकट की थी। उन्होंने एक चि_ी लिखकर राजेंद्र बाबू को मशविरा दिया था कि उन्हें इस कार्यक्रम में नहीं जाना चाहिए। नेहरू के मुताबिक प्रसाद की सोमनाथ मंदिर यात्रा राजनीतिक महत्व ले रही है। यह सरकारी कार्यक्रम नहीं है। लिहाजा, उन्हें इसमें नहीं जाना चाहिए।
हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरूजी की राय नहीं मानी, वे सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के लिए गए। लेकिन नेहरूजी की दूरदृष्टि ने जिस आशंका को भांप लिया था, वह सही साबित हुई। सोमनाथ मंदिर से शुरु हुआ सिलसिला अयोध्या तक पहुंचा और भाजपा का तो नारा ही बना कि अयोध्या तो झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है। भाजपा ने हिंदुत्व की सीढ़ी को सत्ता तक पहुंचने के लिए इस्तेमाल किया। इसमें कई नामी-गिरामी संतों समेत आम जनता के भी बड़े वर्ग को यह बात नजर नहीं आई कि राम मंदिर का निर्माण भाजपा के लिए धार्मिक नहीं सियासी मकसद है। लेकिन इस साल 22 जनवरी को जब नरेन्द्र मोदी के हाथों राम मंदिर का उद्घाटन तय हुआ, तब बहुत से लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची। क्योंकि वे यह मानकर चल रहे थे कि मंदिर का उद्घाटन किसी धर्मगुरु के हाथों होगा। शंकराचार्यों ने जब यह सवाल उठाया कि आधे-अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा क्यों की जा रही है। क्यों धार्मिक मानदंडों का पालन नहीं हो रहा। तब भाजपा के आईटी सेल की ओर से शंकराचार्यों को ही निशाने पर लिया गया। इसके साथ ही अयोध्या में मंदिर निर्माण के नाम पर इक_ी की गई अकूत धनराशि के हिसाब पर सवाल उठे, अयोध्या में जमीन घोटाला सामने आया, कुछ दिन पहले यह जानकारी भी सामने आई कि मंदिर के आसपास कई एकड़ जमीन पर अब भाजपा के नेताओं और उसके करीबियों का मालिकाना हक हो गया है, ऐसे तमाम खुलासों से यह जाहिर हो गया कि भाजपा के लिए राम का नाम राजनैतिक एजेंडे से अधिक कुछ नहीं है। इससे उन लोगों को गहरी ठेस पहुंची जिन्होंने यह उम्मीद पाल ली थी कि उनके धर्म को अब तक जो भी खतरा था, वह सब श्री मोदी के सत्ता में आने से दूर हो जाएगा।
धर्म के नाम पर लोगों को अपने ठगे जाने का अहसास हुआ तो उन्होंने अयोध्या में भाजपा के उम्मीदवार को हरा दिया। इसके बाद बद्रीनाथ उपचुनाव में भी भाजपा प्रत्याशी को हार मिली, क्योंकि बद्रीनाथ की जनता भी इस बात से दुखी बताई जा रही है कि वहां धर्म से ज्यादा पर्यटन और कारोबार को बढ़ावा देकर लोगों की धार्मिक भावनाओं को छला जा रहा है। अब केदारनाथ में भी उपचुनाव होने हैं, और भाजपा से नाराजगी यहां भी सामने आ रही है।
भाजपा जिस तरह दूसरे दलों में तोड़-फोड़ कर सत्ता हासिल करती जा रही है, वह भी बहुत से लोगों को पसंद नहीं आ रहा है। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने इसी को विश्वासघात बताते हुए कहा था कि उद्धव ठाकरे के साथ यह ठीक नहीं हुआ। उन्होंने इसे हिंदू धर्म में बड़ा पाप बताया। जिस पर शिंदे गुट के नेता संजय निरूपम ने कहा कि वे धर्म के मसलों पर बातें करें, राजनीति से जुड़े विषयों पर उन्हें नहीं बोलना चाहिए, ये गलत है। शंकराचार्य ने इस पर सटीक जवाब दिया कि राजनीति के लोग धर्म में हस्तक्षेप बंद करें। हम भी राजनीति में बोलना बंद कर देंगे। शंकराचार्य ने यह सवाल भी उठाया कि जो राजनीतिज्ञ हैं, क्या उनके जीवन में जो धर्म है, उसका पालन उन्हें नहीं करना चाहिए। उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि जब मोदीजी मंदिर का उद्घाटन करते हैं तो मीडिया उसे लाइव दिखाता है, इस काम का स्वागत किया जाता है। शंकराचार्य ने कहा कि हमने राजनीति की बात नहीं की, धर्म की बात की। जो सच्चा धर्म है, हिंदुत्व है, उसके बारे में लोगों को बताना हमारा कर्तव्य है।
शंकराचार्य की इन खरी-खरी बातों से भाजपा की धर्म के इर्द-गिर्द चल रही राजनीति पर फिर से सवाल खड़े हो गए हैं। अधूरे बने मंदिर के उद्घाटन पर न जाकर शंकराचार्य ने पहले भी भाजपा को कटघरे में खड़ा किया था। इसके बाद राहुल गांधी के संसद में हिंदुत्व पर दिए बयान को भाजपा ने मीडिया के जरिए जब मुद्दा बनाने की कोशिश की, तब भी शंकराचार्य ने पत्रकारों को नसीहत दी थी कि वे पूरा बयान सुनें और फिर उस पर सवाल करें। उद्धव ठाकरे के साथ विश्वासघात और सच्चे हिंदुत्व की बात उठाकर शंकराचार्य ने भाजपा की राजनीति पर सवाल उठाए और अब उन्हें उनका दायरा समझाने वालों को बता दिया कि राजधर्म का पालन करने की जरूरत किसे है और वे किस तरह अपने धर्म का निर्वाह कर रहे हैं।
15वीं सदी में अगर संतों का काम सीकरी में नहीं था, तो 22वीं सदी में सीकरी को भी यह बात समझ आनी चाहिए कि संतों के कामों में उसकी दखलंदाजी की कोई जरूरत नहीं है।


