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शाहरूख की हिम्मत का कमाल है 'जवान'

आज के इस दौर में जहां सच लिखना, बोलना, दिखाना तो दूर की बात है झूठ न बोलना भी एक अपराध हो गया हो वहां जवान जैसी फिल्म बनाना वाकई एक बड़ी हिम्मत की बात है

शाहरूख की हिम्मत का कमाल है जवान
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- शकील अख्तर

इस दौर में जब पत्रकार, साहित्यकार समझौते कर रहे हैं। तब केवल मनोरंजन के लिए फिल्म बनाने वाले मुंबई के फिल्म वालों से तो कोई अपेक्षा थी ही नहीं। वहां तो सरकारी अजेंडे को आगे बढ़ाने वाली फिल्में कश्मीर फाइल्स, केरला फाइल्स, गदर टू जैसी प्रोपेगंडा फिल्में बन रही थीं। जवान को आप प्रोपेगंडा फिल्म नहीं कह सकते।

आज के इस दौर में जहां सच लिखना, बोलना, दिखाना तो दूर की बात है झूठ न बोलना भी एक अपराध हो गया हो वहां जवान जैसी फिल्म बनाना वाकई एक बड़ी हिम्मत की बात है।

क्या नहीं कहा है फिल्म में! सब तो कह दिया। सबसे बड़ी बात जिस पर यह सरकार चल रही है वह भी कि धर्म के नाम अब वोट मत देना। और दूसरी ऐसी ही बड़ी बात कि नेक्स्ट स्टेज कारपोरेट को खुद सरकार बनाना होगा। नेता इसके लिए तैयार हो गए हैं।
इसके बाद अब और क्या बचता है?

हमें लगता है जी-20 की वजह से फिल्म पर कार्रवाई नहीं की गई। अब इस पर बैन भी लगीया जा सकता है। जी-20 में जो अन्तरराष्ट्रीय नेता आए थे उनमें से अधिकांश क्रिश्चियन और मुसलमान थे। अगर उनके सामने फिल्म को मुद्दा बनाया जाता तो उनकी उत्सुकता जाग सकती थी कि ऐसा फिल्म में क्या दिखाया गया है। वे फिल्म देख सकते थे। और अगर ऐसा हो जाता तो उन्हें भारत की जो सच्ची तस्वीर मिलती वह उससे बहुत उलट होती जो उन्हें बताने की कोशिश की जा रही थी।

फिल्म में जो शाहरूख खान धर्म का नाम लेता है तो फिर उनका ध्यान इस पर जाता कि मणिपुर में जो हो रहा है और जिसे होने दिया जा रहा है वह धर्म के नाम पर ही हो रहा है। वहां चर्चों को जलाया जा रहा है। और ईसाइयों को मारा जा रहा है। बाकी देश में भी मुसलमानों के खिलाफ इतनी नफरत फैला दी गई है कि सिर्फ नाम सुनते ही लोग रिएक्शन करने लगते हैं। हर चीज में इस्लाम को निशाना बनाया जाता है और नफरत फैलाने वाले लोग उसी के आधार पर ध्रुवीकरण करते हैं।

कल तो जो सामान्य लोग हिन्दू-मुसलमान की बात भी नहीं करते थे वे भी आज हर बात में यही मुद्दा ले आते हैं। पहले पुल होते थे। सिर्फ हिन्दू-मुसलमान ही नहीं सभी समुदायों के बीच की दूरियां पाटने को। मेल-मिलाप की बातें होती थीं। एक दूसरे पर सवाल नहीं किए जाते थे। इंसान एक है कहकर सबको साथ लिया जाता था।
अभी जी-20 के सारे नेता बापू की समाधि पर पहुंचे। मोदी सरकार के लिए बहुत तकलीफदेह बात होती होगी। जिन गांधी के खिलाफ इतना प्रचार कर रहे हैं वह खतम होने के बदले और लोकप्रिय होते चले जा रहे हैं। राहुल गांधी ने अपने यूरोप दौरे पर गलत नहीं कहा कि लड़ाई गांधी और गोडसे की है।

वैसे तो देश में हमेशा से गांधी की हत्या के बाद से गोडसे को बचाने की कोशिश होती रही। हत्या के बदले संघ परिवार के लोग इसे वध कहते रहे। वध का मतलब होता है हत्या का जस्टिफिकेशन। उसे उचित ठहराना। पिछले साढ़े 9 सालों में इस काम को और तेज कर दिया गया। भोपाल की लोकसभा सदस्य प्रज्ञा सिंह सहित कई और बड़े नेता गोडसे को महान बताने लगे। और इस प्रक्रिया में कुछ लोग गांधी को गाली भी देने लगे। मगर जब दुनिया भर के अन्तरराष्ट्रीय नेता भारत आए तो वे गांधी की समाधि पर ही पहुंचे। किसी ने नहीं कहा कि हम गोडसे को श्रद्धांजलि देना चाहते हैं उसके लिए कहां ले चलेंगे! ऐसा तो नहीं है कि यह लोग गोडसे के बारे में अन्तरराष्ट्रीय नेताओं को उस समय नहीं बताते होंगे जब इनकी उनके साथ वन टू वन ( अलग से) बात होगी। वन टू वन बातचीत का बड़ा हिस्सा अनौपचारिक होता है। एक दूसरे के घर परिवार से लेकर सब तरह की होती हैं। तो क्या गोडसे जो इनका सबसे बड़ा हीरो है उसकी तारीफें ये विदेशी नेताओं के सामने नहीं करते होंगे? लेकिन वे प्रभावित नहीं होते। एक हत्यारे को हमारे यहां तो इन्होंने हीरो बनाने में कुछ हद तक सफलता पा ली मगर दुनिया में हत्यारे को हत्यारा ही माना जाता है।

तकलीफ तो बहुत होती होगी कि इतनी कोशिशें करने के बावजूद दुनिया, जिसका वे खुद को गुरु भी कहने लगे हैं, बात गांधी और नेहरू की ही करती है. गोडसे जिसका पिछले साढ़े 9 सालों में इतना प्रचार और तारीफ की उसे कोई नहीं पूछ रहा। सब इक_ा होकर गांधी की समाधि पर पहुंच रहे हैं। और ग्रुप फोटो भी खिंचवा रहे हैं।
मोदी सरकार आने के बाद यह पहला अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन था। और गोडसे बिल्कुल ही चर्चा में नहीं आ पाया। जबकि इस दौरान देश में कई जगह उसकी पूजा की गई, मूर्ति लगाई गई। जय जयकार की गई। गांधी को जो मुंह में आया वह गाली दी गईं। और इनमें इनकी विचारधारा के संत साधु तो थे ही सांसद और मंत्री भी थे।

साढे 9 साल में यह देश बहुत बदल गया है। और यही फिल्म जवान में दिखाया गया है। किसानों की आत्महत्या, उनसे फसल खराब हो जाने के बावजूद जबर्दस्ती कर्जा वसूली, दूसरी तरफ बड़े उद्योगपतियों के कर्जे माफ। फिल्म देखकर सबकी समझ में आ रहा है कि कहानी किसकी है। देश में किन उद्योगपतियों के कर्जे माफ किए जा रहे हैं। और किसानों के साथ कैसे अत्याचार हो रहे हैं।

कोरोना में जब मनमाने लॉकडाउन के बाद मजदूरों को पैदल हजारों किलोमीटर दूर उनके गांवों की तरफ खदेड़ा गया तो हमने इस त्रासदी के बारे में लिखते हुए कहा था कि दुनिया के इतिहास में सरकार द्वारा बनाई गई ऐसी किसी और त्रासदी का जिक्र नहीं मिलता। केवल दोनों विश्व युद्धों में ही ऐसी मानवीय त्रासदी देखने को मिली थी। लेकिन उन के बारे में विश्व साहित्य और विश्व सिनेमा में कई अच्छी किताबें और फिल्म देखने में आईं। उसी समय हमने लिखा था कि-कोई बड़ी कृति शायद इन लाखों मजदूरों के जिनमें औरतें, बच्चे, बुजुर्ग, बीमार सब थे-के महीनों पैदल चलते चले जाने पर आए।

जब दौर बहुत प्रतिकूल हो तो आप कलात्मक्ता और विचार के इस स्तर को पैमाना नहीं बना सकते जो सामान्य समय में होता है। मुश्किल समय में बात कहना ही बड़ी बात होती है।

जवान फिल्म को इसी तरह देखा जाना चाहिए। अगर शोरशराबा, मारधाड़, रंग रोशनी, शाहरुख का नायकत्व और साउथ की फिल्म तकनीक नहीं होती तो क्या लोग इतनी बड़ी तादाद में थियेटरों में पहुंचते?

थियेटर में बैठा हुआ हर शख्स शाहरूख के फिल्म के आखिरी हिस्से में दिए टी वी संदेश को दिल से सुनता रहा। धर्म पर वोट मत दो, जाति पांति पर वोट मत दो, को सहमति के साथ सुनता रहा। आज के दौर में कैसे भी हो इतना बड़ा संदेश शाहरूख खान ने लोगों तक पहुंचा दिया।

हिम्मत का काम है। सेना को किस तरह कमजोर किया जा रहा है जैसे नाजुक विषय को भी बिना पुलवामा का नाम लिए सामने रख दिया। गोरखपुर में किस तरह आक्सीजन सिलेंडर न होने की वजह से बच्चे तड़प-तड़प कर मरे। और उनके लिए आक्सीजन सिलेंडर का इंतजाम करने वाले डॉक्टर को कैसे बदनाम किया गया? जेल भेजा गया, यह भी बिना डा1. कफील का नाम लिए प्रभावी तौर पर दिखा दिया गया।

देश के लिए लड़ने वालों, काम करने वालों के पूरे परिवार को किस तरह तबाह किया जाता है। पत्नी तक को फांसी पर चढ़ा दिया जाता है, यह दर्दनाक मगर हकीकत के बहुत पास का मंजर भी दिखाया गया है

इस दौर में जब पत्रकार,साहित्यकार समझौते कर रहे हैं। तब केवल मनोरंजन के लिए फिल्म बनाने वाले मुंबई के फिल्म वालों से तो कोई अपेक्षा थी ही नहीं। वहां तो सरकारी अजेंडे को आगे बढ़ाने वाली फिल्में कश्मीर फाइल्स, केरला फाइल्स, गदर टू जैसी प्रोपेगंडा फिल्में बन रही थीं।

जवान को आप प्रोपेगंडा फिल्म नहीं कह सकते। प्रोपेगंडा सरकार का होता है। ताकतवर का होता है। जनता का नहीं होता। जनता की तो आवाज होती है। जवान जनता की आवाज ही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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