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सीवर की सफाई हर साल ले रही है करीब 70 लोगों की जान

इंसानों से सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई करवाना बंद करने की सालों से उठ रही मांगों के बावजूद यह अमानवीय काम आज भी जारी है. भारत सरकार ने यह संसद में माना है और बताया है कि इसमें हर साल कई लोगों की जान जा रही है.

सीवर की सफाई हर साल ले रही है करीब 70 लोगों की जान
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लोक सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया है कि पिछले पांच सालों में सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई करने के दौरान पूरे देश में 339 लोगों की मौत के मामले दर्ज किये गए. इसका मतलब है इस काम को करने में हर साल औसत 67.8 लोगमारे गए.

सभी मामले 18 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से हैं. 2019 इस मामले में सबसे भयावह साल रहा. अकेले 2019 में ही 117 लोगों की मौत हो गई. कोविड-19 महामारी और तालाबंदी से गुजरने वाले सालों 2020 और 2021 में भी 22 और 58 लोगों की जान गई.

कुछ राज्यों में समस्या भयावह

2023 में अभी तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक नौ लोग मारे जा चुके हैं. महाराष्ट्र में तस्वीर सबसे ज्यादा खराब है, जहां सीवर की सफाई के दौरान पिछले पांच सालों में कुल 54 लोग मारे जा चुके हैं. उसके बाद बारी उत्तर प्रदेश की है जहां इन पांच सालों में 46 लोगों की मौत हुई.

दिल्ली की स्थिति भी शर्मनाक है क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी और महाराष्ट्र या उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के मुकाबले एक छोटा केंद्र शासित प्रदेश होने के बावजूद वहां इन पांच सालों में 35 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. सरकार का कहना है कि इन लोगों की मौत का कारण है सीवरों और सेप्टिक टैंकों की खतरनाक तरीकों से सफाईकरवाना.

इसके साथ ही कानून में दी गई सुरक्षात्मक सावधानी को ना बरतना. सफाई के दौरान सीवरों से विषैली गैसें निकलती हैं जो व्यक्ति की जान ले लेती हैं.

क्यों नहीं सुधरते हालात

कानून के मुताबिक सफाई एजेंसियों के लिए सफाई कर्मचारियों को मास्क, दस्ताने जैसे सुरक्षात्मक उपकरण देना अनिवार्य है, लेकिन एजेंसियां अकसर ऐसा नहीं करतीं. कर्मचारियों को बिना किसी सुरक्षा के सीवरों में उतरना पड़ता है.

सीवर और सेप्टिक टैंकों की इंसानों के हाथों सफाई मैन्युअल स्कैवेंजिंग या मैला ढोने की प्रथा का हिस्सा है, जो भारत में कानूनी रूप से प्रतिबंधित है. कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति या एजेंसी को एक लाख रुपये तक का जुर्माना या दो साल जेल की सजा हो सकती है. हालांकि जमीन पर इस प्रतिबंध का पालननहीं होता है जिसकी वजह से यह प्रथा चलती चली जा रही है.

इस प्रथा में शामिल लोगों को रोजगार के दूसरे मौके उपलब्ध कराने के लिए केंद्र सरकार एक योजना भी चलाती है, जिसके तहत हर साल करोड़ों रुपये आबंटित किये जाते हैं. इन पांच सालों में इस योजना के लिए कुल 329 करोड़ रुपये दिए गए हैं, लेकिन नतीजा संसद में दिए आंकड़े खुद ही बयान कर रहे हैं.

जाति का आयाम

जाती व्यवस्था में मैला सफाई का काम परंपरागत रूप से तथाकथित निचली जाती के लोगों से करवाया जाता रहा है. माना जाता है कि अंग्रेजों ने जब शहरों में सीवर बनाये तो उन्होंने भी शोषण की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सफाई के लिए दलित जातियों के लोगों को ही नौकरी पर रखा.

आजादी के बाद अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगा दिए जाने के साथ ही आजाद भारत में यह प्रथा बंद हो जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा हो ना सका और यह आज तक चली आ रही है. आज भी इस तरह की सफाई का काम दलितों से ही करवाया जाता है.

कई ऐक्टिविस्ट और संगठन इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं. इनमें मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन भी शामिल हैं. विल्सन सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक हैं और पिछले कई महीनों से भारत के कोने कोने में इस मुद्दे को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए यात्रा कर रहे हैं.

विल्सन का कहना है कि इन 'जहरीले गड्ढों' में चली जाने वाली मासूम जानों पर चुप्पी तोड़ने की कहीं कोई इच्छा भी नजर नहीं आती.


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