भाषा के स्तर पर हीनता का भाव
8 से 10 तारीख तक जी-20 शिखर सम्मेलन कई कारणों से सुर्खियों में छाया रहा

- सर्वमित्रा सुरजन
इस देश का प्रचलित नाम इंडिया ही है, और इसमें कुछ असंवैधानिक नहीं है, क्योंकि इंडिया दैट इज़ भारत संविधान के पहले अनुच्छेद में ही लिखा गया है। लेकिन संविधान में लिखी बहुत सी बातों से भाजपा को जिस तरह आपत्ति है, उसी तरह इस बात से भी है। इंडिया को औपनिवेशिक दासता का प्रतीक बताया जा रहा है। लेकिन इस विरोध के पीछे ऐसा लग रहा है कि यह दासता का नहीं हीनताबोध का सवाल है।
8 से 10 तारीख तक जी-20 शिखर सम्मेलन कई कारणों से सुर्खियों में छाया रहा। आलीशान भारत मंडपम में एक रात की बारिश में पानी भर गया, गरीबों को छिपाने के लिए उन्हें उनके ही घरों में कैद कर, ऊपर से हरे पर्दे ढंक दिए गए, सड़क पर रहने वाले पशुओं को बेदर्दी के साथ बाड़ाबंद किया गया, सोने-चांदी के पानी चढ़े बर्तनों में मेहमानों को भोजन परोसा गया, सभी राष्ट्रों के मेहमान गांधी समाधि पर नमन करने गए और आखिर में चर्चा इस बात की भी रही कि दिल्ली घोषणापत्र पर आम सहमति बन गई। प्रधानमंत्री मोदी ने किस राष्ट्राध्यक्ष के साथ कितनी देर हाथ मिलाया, किसके साथ कैसी फोटो खिंचवाई, कौन आया, कौन नहीं आया, कोई नहीं आया तो उसके पीछे क्या कारण रहे, इन तमाम बातों पर भी चर्चाएं हुईं। इन सबके अलावा इंडिया हटाकर भारत कहने की मोदी सरकार की जिद भी जी-20 के मंच पर नजर आई।
राष्ट्रपति के रात्रिभोज निमंत्रण पत्र में प्रेसिडेंट ऑफ भारत लिखा गया। प्रधानमंत्री मोदी के आगे प्राइम मिनिस्टर ऑफ भारत लिखा गया। भारत रोमन लिपि में लिखा गया, क्योंकि सभी विदेशी मेहमान देवनागरी से परिचित नहीं थे। उनके लिए इस देश का प्रचलित नाम इंडिया ही है, और इसमें कुछ असंवैधानिक नहीं है, क्योंकि इंडिया दैट इज़ भारत संविधान के पहले अनुच्छेद में ही लिखा गया है। लेकिन संविधान में लिखी बहुत सी बातों से भाजपा को जिस तरह आपत्ति है, उसी तरह इस बात से भी है। इंडिया को औपनिवेशिक दासता का प्रतीक बताया जा रहा है। लेकिन इस विरोध के पीछे ऐसा लग रहा है कि यह दासता का नहीं हीनताबोध का सवाल है।
हीनता अंग्रेजी और हिंदी की तुलना को लेकर, हीनता चमड़ी के रंग को लेकर। इसलिए भारत में आज भी गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन धड़ल्ले से होता है। पहले केवल लड़कियों के गोरेपन तक बात सीमित थी, अब लड़कों को भी गोरा दिखाने की चाहत पैदा हो गई है। विवाह के विज्ञापन में शादी योग्य लड़के या लड़की में योग्यता का पैमाना सुंदर और गोरे होने से भी तय होता है। इस हीनभावना को दूर किया जा सकता है, अगर हम अपनी खासियत पर ध्यान दें और उन कमजोरियों को दूर करने की कोशिश करें, जिनकी वजह से हम दुनिया के बाकी देशों से पिछड़े हुए हैं। सभी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की अच्छी व्यवस्था। देश के गांव-शहर साफ-सुथरे होना।
काम और जाति के आधार पर किसी को छोटा या बड़ा न मानना। एक नागरिक के तौर पर अपने अधिकारों और कर्तव्यों के लिए जागरुक होना और समाज को भी जागरुक करना। इंसानों के साथ-साथ प्रकृति के अन्य जीवों, जंगलों, नदी-पहाड़ों का सम्मान करना। ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजना। ऐसी बहुत सी छोटी-छोटी बातों पर मेहनत करके हम दुनिया में आगे निकल सकते हैं। लेकिन आगे निकलने की जगह हम पिछड़ा होने की हीनता में ही उलझे हुए हैं। इस हीनता को कभी विश्वगुरु के तमगे से हम दूर करना चाहते हैं और कभी अपने शहरों को विदेशी शहरों जैसा बनाने की चाहत से दूर करने की कोशिश करते हैं। हीनता का एक भाव भाषा के स्तर पर भी दिखाई देता है। इसका एक उदाहरण जी-20 में नजर आया।
अमेरिकी विदेशमंत्री की प्रवक्ता मार्गरेट मैकलियोड जी-20 के लिए दिल्ली पहुंची थीं और यहां उन्होंने कई लोगों से हिंदी में ही बातचीत की। इसके बाद तो मीडिया में सुश्री मैकलियोड की चर्चाएं होने लगीं। कई चैनलों में दिखाया गया कि वे कितनी धाराप्रवाह हिंदी बोल लेती हैं। हिंदी सीखने के बारे में मार्गरेट मैकलियोड ने बताया कि उन्होंने जब दिल्ली स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स में दाखिला लिया था तो वहां तो अंग्रेजी बोली जाती थी, लेकिन हॉस्टल में सहेलियों के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने हिंदी सीखी। मार्गरेट रिक्शेवालों के साथ भी हिंदी में बात करती थीं ताकि भाषा पर पकड़ मजबूत बने। मसूरी के एक संस्थान से उन्होंने हिंदी की शिक्षा ली, और व्याकरण मजबूत किया। इसके अलावा अमेरिका में हिंदुस्तानी समुदाय के बीच वे हिंदी में ही बातचीत कर अपनी भाषा को दुरुस्त करती हैं। हिंदी के अलावा मार्गरेट ने गुजराती भी सीखी थी, हालांकि अब वो अच्छे से बोल नहीं पाती हैं। इसके अलावा उर्दू और फ्रेंच भी उन्हें आती है।
मार्गरेट मैकलियोड पहली अमेरिकी नागरिक नहीं हैं, जिन्हें अच्छी हिंदी आती है या जिन्होंने शौक से हिंदी सीखी हो। न ही वे पहली विदेशी हैं, जिन्होंने हिंदी का ज्ञान प्राप्त किया है। आजादी से पहले भी और प्राचीन काल में जब हिंदी का खड़ी बोली वाला अस्तित्व नहीं था, लेकिन संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाएं चलन में थीं, तब भी विदेशी अध्येता भारत आते थे और यहां की भाषायी विविधता के सागर में डुबकी लगाते थे। कितने प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद अंग्रेजी समेत दूसरी विदेशी भाषाओं में हुआ है और इसी तरह विश्व साहित्य के अनूठे ग्रंथ भारतीय भाषाओं में अनूदित हुए हैं। भाषा और ज्ञान इसी तरह मिलजुल कर बांटने और प्रसारित करने से ही बढ़ता है। दुनिया सभ्यता के इस मुकाम तक पहुंची है तो इसके पीछे हमारे पुरखों की उदार दृष्टि ही रही है। लेकिन अब भाषा को संकुचित दायरे में बांधा जा रहा है।
अमेरिकी महिला की फर्राटेदार हिंदी पर लहालोट होने वाले लोग अपने आसपास नजर डाल कर देखें कि उनके घर-परिवार की नयी पीढ़ी के बच्चे कितनी हिंदी जानते हैं। कड़वी सच्चाई है कि बच्चे अब केवल मजबूरी में हिंदी पढ़ रहे हैं। दसवीं के बाद हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य नहीं होती, तो बहुत से बच्चे हिंदी छोड़ देते हैं। स्कूलों में अंग्रेजी में बात करने की बाध्यता तो रहती ही है, अब कई घरों में मां-बाप बच्चों से अंग्रेजी में ही बात करते हैं, ताकि वो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलें और समाज में उनकी हैसियत बने।
हमारे बच्चे को तो हिंदी बिल्कुल आती ही नहीं, इस बात को अभिभावक गर्व से बताते हैं। उन्हें इस बात पर जरा शर्म महसूस नहीं होती कि अपने देश की सर्वाधिक प्रचलित भाषा से उनका बच्चा अनजान है। क्योंकि उन्हें इस बात का घमंड रहता है कि बच्चा अंग्रेजी अच्छे से बोल लेता है। ऐसे बहुत से लोग भाजपा की हिंदी भाषा में शिक्षण मुहिम के समर्थक होंगे, क्योंकि मेडिकल या इंजीनियरिंग की शिक्षा हिंदी में बांध देने को वो राष्ट्रवादी कर्तव्य मानेंगे। लेकिन यह कर्तव्य केवल साधारण लोगों के बच्चों के लिए रहेगा। जैसे बहुत से भाजपा नेताओं के बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई कर, विदेश चले गए हैं, वही आकांक्षा उनके समर्थकों की भी रहती है।
बच्चों के अंग्रेजी पढ़ने या उनके बाहर जाकर उच्च शिक्षा हासिल करने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन भाषा को सियासत का मसला बना देना बड़ी बुराई है। जी-20 से लेकर अब हिंदी दिवस तक यह बुराई देशप्रेम के नाम पर खूब फैलाई जाएगी। सरकारी खर्चे पर 15 दिनों का तमाशा हिंदी के विकास के नाम पर किया जाएगा। सरकारी संस्थानों में तरह-तरह के कार्यक्रम किए जाएंगे, ताकि हिंदी को बढ़ावा मिले। लेकिन एक अक्टूबर आते ही फिर हिंदी के विकास की मुहिम पटरी से उतर जाएगी।


