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मिट्टी संग सेल्फी, मुस्लिम महिलाओं संग राखी; शहंशाह के नए फरमान!

शहंशाह ने अगस्त महीनों के दो बड़े शिगूफों का फरमान जारी कर दिया है

मिट्टी संग सेल्फी, मुस्लिम महिलाओं संग राखी; शहंशाह के नए फरमान!
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- बादल सरोज

यह 2024 का डर है । लगता है इन आह्वानों को देने वाले और उनका पूरा गिरोह समझता है कि डर लगे तो हनुमान चालीसा गाने से काम चल जाएगा; इसीलिये जितना ज्यादा डर बढ़ता जाता है ये उतना ही ज्यादा जोर से गाने लगते हैं। हालांकि कर्नाटक में डर के मारे आख़िरी दिनों में वे खुद इसे आजमा कर देख भी चुके हैं कि जब जनता ठान लेती है तो कोई चौबीसा या पचीसा काम नहीं आता।

शहंशाह ने अगस्त महीनों के दो बड़े शिगूफों का फरमान जारी कर दिया है। उन्होंने फरमाया है कि 15 अगस्त को देश के सारे नागरिक अपने हाथों में देश की माटी लेकर अपनी अपनी सेल्फी खींचें और उसे सोशल मीडिया वगैरा पर इधर-उधर चिपकाने के साथ-साथ उन्हें भी भेजें। इसके लिए बाकायदा एक नई साईट भी खोली गयी है । इस फरमान की ख़ास बात यह है कि इसमें बात यहीं तक नहीं रुकेगी, यह इवेंट इससे आगे भी चलने वाला है; 'मेरी माटी मेरा देश' के इस अभियान में इसके बाद एक अमृत कलश यात्रा भी निकलेगी, इन कलशों में मिट्टी के साथ पौधे भी लाये जायेंगे- इस माटी के साथ ये पौधे राष्ट्रीय युद्ध स्मारक - नेशनल वार मेमोरियल- के करीब के, ठीक इसी काम के लिए बनाए जाने वाले परिसर में, एक साथ रोपकर अमृत वाटिका बनाई जायेगी और बकौल उनके इस तरह 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' का भव्य स्मारक बनेगा!! दूसरा फरमान उन्होंने अपने एनडीए के सांसदों को दिया है और उनसे कहा है कि इस रक्षाबंधन पर वे मुस्लिम महिलाओं से राखी बंधवायें। इस आह्वान में हालांकि ऐसा नहीं कहा गया है लेकिन पालित पोषित मीडिया ने, लगभग सभी ने, पसमांदा मुसलमानों को इसमें तरजीह देने का इशारा किया है।

यह न पहले शिगूफे है न आखिऱी - पिछली 9 वर्षों में शिगूफेबाजी ही तो हुई है। शुरुआत ही झाडू लगाते हुए फोटो खिंचवाने के हास्यास्पद पाखण्ड से हुई - इसमें पहले कूड़ा कचरा बगराने और उसके बाद एक ही जगह लम्बी-लम्बी झाडू उठाकर अलग-अलग भंगिमा में तस्वीरें उतरवाने के कारनामे हुए; इसे स्वच्छ भारत अभियान का नाम दिया गया। कोरोना की महामारी के दौरान तो इनके नयेपन के मामले में जैसे सारी रचनात्मक उर्वरता चरम पर जा पहुंची थी: लॉकडाउन का शुरुआती ड्रेस रिहर्सल जनता कर्फ्यू से हुआ, इसके बाद 9 तारीख को 9 बजे 9 मिनट तक बत्ती बुझाकर अंधेरे में कोरोना के वायरस को रास्ता भुलाकर गफलत में डालने का निर्देश राष्ट्र को दिया गया। इसके बाद भी यह दुष्ट वायरस नहीं माना तो ताली बजाने, थाली बजाने, दीये और मोमबत्ती जलाने, गो कोरोना गो के नारे लगवाने के नए नए आह्वान आये। कुल मिलाकर यह कि जिसकी उस समय सबसे ज्यादा जरूरत थी उस ऑक्सीजन, पेरासिटामोल, जिंक, विटामिन सी और बी कॉम्प्लेक्स जैसी मामूली इलाज की उपलब्धता को छोड़कर बाकी सब हुआ।

बात सिर्फ इतनी होती तब भी बर्दाश्त कर ली जाती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस तरह के दिखावटी जुमलों वाले आह्वानों के पीछे इतना भर नहीं है, इससे ज्यादा कुछ है और जो है वह गंभीर है। इन दिखावों के पीछे एक इरादा अपने अपकर्मों और देश तथा जनता के साथ किये अपराधों को छुपाने का है। नोट बन्दी के वक्त का ऐसा ही शिगूफाई कथन कि '50 दिन में सब कुछ ठीक न होने पर चौराहे पर खड़ा करके सजा दे देना' लोगों को आज भी याद है। चुनाव जीतने के बाद पहली बार संसद में जाने पर उसकी सीढ़ियों पर लगाई गई लम्बलेट भी लोग भूले नहीं है। उसके बाद संसदीय लोकतंत्र का जो हश्र हुआ वह सामने है, इन दिनों चल रहे संसद सत्र में तो वे जाने से ही कतरा- सकुचा रहे हैं। एक निश्चित अंतराल के बाद रोने का कारनामा तो लगता है कि अब इतना पुराना पड़ गया है कि खुद अभिनेता ने ही उसे अनेक समय से नहीं दोहराया।

इन शिगूफों का दूसरा इरादा आभासीय उजाले की आभा- होलोग्राम- की बिना पर नकली गौरव, लिजलिजा राष्ट्राभिमान पैदा करने का होता है। बुलेट ट्रेन के ख्याली पुलाव से यह सिलसिला शुरू हुआ; कुछ चुनिन्दा रेलवे स्टेशनों को चमचमा कर उन्हें विकास का सूर्योदय साबित करते हुए अब पूरी तरह अव्यावहारिक और अलाभकारी साबित हो चुकी वन्दे भारत रेलगाड़ियों के ढकोसले तक पहुंच गया है। इसी तरह का आवरण डालने की हालिया हरकत अमेरिकी संसद में इतने बार तालियां बजने और उतने बार खड़े होकर जय-जयकार करने की खबरों से फर्जी गर्व पैदा करने की कोशिशों में दिखी; जबकि असल में इनके जरिये उन आपराधिक समझौतों को छुपाया जा रहा था जिनका असर इस देश की विदेश नीति से लेकर आर्थिक औद्योगिक परिस्थिति के लिए विनाशकारी होने वाला है।

बेटी बचाओ के खोखले आह्वान के बाद देश भर में बेटियों और उनकी मांओं पर बढ़ते अत्याचारों से ध्यान बंटाने के लिए 'सेल्फी विथ डॉटर' का शिगूफा छोड़ा गया। इधर देश भर में दलितों की दुर्दशा करने के लिए सामाजिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर सारे घोड़े खोल दिए गए उधर डॉ अम्बेडकर के नाम पर विराट स्मारक बनाने का शिगूफा छोड़ दिया। इस काम में अब उनके बाकी लगुये भगुये भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चल पड़े हैं; एक भाजपाई आदिवासी के सिर पर पेशाब करता है दूसरा भाजपाई मुख्यमंत्री निवास परउसी आदिवासी के पांव धोता है। इन चंद उदाहरणों से ही सारे शिगूफों की चोंचलेबाजी उजागर हो जाती है।

मगर इन सब आह्वानों के एक बड़े हिस्से का मकसद इन सबके साथ इससे आगे का, किसी न किसी बहाने भीड़ जुटाने और उसे उन्मादी बनाने का है। नए-नए प्रतीक गढ़ने, उनके नाम पर कुछ अर्थहीन काम करवाने की इस कवायद के साथ जो हुजूम इक_ा किये जाते हैं उन्हें संघ- भाजपा के एजेंडे के हिसाब से एक खास रुझान में ढालकर जुनूनी बनाने के सायास प्रयत्न किये जाते हैं। इनके द्वारा गढ़ा गया ऐसा ही एक प्रतीक बुलडोजर है। जिसका मुंह अल्पसंख्यकों और दलित आदिवासियों के घरों और दुकानों की दिशा में ही रहता है। इसी के साथ अलग-अलग आह्वान के प्रति रुख के आधार पर असहमत लोगों की शिनाख्त की जाती है, फिर उसे मथ कर हम और वो का सोच बनाया जाता है- जिसके नतीजे जयपुर-मुम्बई ट्रेन जैसे निकलते हैं।

हिटलर और मुसोलिनी वाले फासिज्म के इतिहास में प्रतीकों के इसी तरह गढ़ने और उनके अति दोहन की अनेक मिसालें हैं, इनमें से कई को तो उन्हें अपना गुरु मानने वाले उनके भारतीय बटुकों ने हू ब हू अपनाया है। पिछले स्वतन्त्रता दिवस पर घर घर तिरंगा लगाने और तिरंगे झंडे को अपनी डीपी और प्रोफाइल बनाने के आह्वान इसी तरह के हैं। यह विडंबना नहीं तो क्या है कि आजादी का महत्व समझाने और आजादी की लड़ाई में शहीद हुए हिन्दुस्तानियों के नाम पर कलश यात्राएं निकलवाने का आह्वान वे दे रहे हैं जिनका स्वतन्त्रता संग्राम में रत्ती भर का योगदान नहीं है। तिरंगे का प्रतीक वे इस्तेमाल करना चाहते हैं जो हमेशा इसे राष्ट्रीय ध्वज बनाने के विरुद्ध रहे।

इस तरह की ढीठ शातिर चतुराई यही दिखा सकते हैं कि एक तरफ तो नूंह-मेवात के हिन्दू मुस्लिम बाशिंदों से कहें कि 'फूल मालाएं तैयार रखो, तुम्हारे जीजा आ रहे हैं' मणिपुर में सामूहिक बलात्कार के बाद स्त्रियों को निर्वसन घुमायें और बजाय लज्जित होने के 'ऐसी तो सैकड़ों घटनाएं घटी हैं' कहकर देश की जनता को जीभ चिढ़ायें और वहीं पूरी बेशर्मी के साथ रक्षाबन्धन पर मुस्लिम महिलाओं को बहन बनाने का आह्वान करें। अगर शिगूफेबाजी के शहंशाहे आलम वाकई में अपने इन आह्वानों को लेकर गंभीर हैं तो उम्मीद की जानी चाहिये कि वे खुद इसे अमल में लायेंगे और रक्षाबंधन के दिन अपने ही गुजरात की बहन बिल्किस बानो के घर जाकर उनसे राखी बंधवा कर आयेंगे; खट्टर को नूंह के गांवों में राखी बंधवाने भेजेंगे।

आने वाले दिनों में इसी तरह के और आह्वान आने वाले हैं। यह 2024 का डर है । लगता है इन आह्वानों को देने वाले और उनका पूरा गिरोह समझता है कि डर लगे तो हनुमान चालीसा गाने से काम चल जाएगा; इसीलिये जितना ज्यादा डर बढ़ता जाता है ये उतना ही ज्यादा जोर से गाने लगते हैं। हालांकि कर्नाटक में डर के मारे आख़िरी दिनों में वे खुद इसे आजमा कर देख भी चुके हैं कि जब जनता ठान लेती है तो कोई चौबीसा या पचीसा काम नहीं आता। नूंह- मेवात के किसान दंगाइयों के खिलाफ अपनी एकजुटता से सपष्ट रूप से इस सन्देश की पेशगी दे चुके हैं।
(सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा)


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